यह वास्तव में विचारणीय प्रश्न है कि कर्ण के पराजित होने के लिए उसके कवचकुण्डल लेने की इन्द्र को क्या आवश्यकता हो सकती थी। द्रुपद्र पर आक्रमण की घटना, द्रौपदी स्वयंवर के युद्ध और घोषयात्रा के युद्ध की घटना ने भलीभाँति सिद्ध कर दिया था कि कर्ण अर्जुन का मुकाबला नहीं कर सकता। यदि कर्ण का कवचकुण्डल न भी लिया जाता तो भी वह अर्जुन से उसी प्रकार पराजित होता जैसे वह पहले होता आया था। अन्तर केवल इतना होता कि उसे वीरमृत्यु न प्राप्त होती। अश्वत्थामा के समान अमरता की यातना झेलते हुए वह आज भी जीवित होता।
दूसरी बात यह ध्यान देने की है कि इन्द्र का अर्जुन के ऊपर ऐसा प्रेम नहीं दिखायी देता कि हम कहें कि पुत्रप्रेम से प्रेरित होकर उन्होंने ऐसा किया। लाक्षागृह काण्ड के बाद जब पाण्डव दर दर भटक रहे थे तब इन्द्र सान्त्वना देने के लिए भी उनके पास नहीं आये। पहली बार वह अर्जुन से मिले तो रणभूमि में उसके शत्रु के रूप में आये। (खाण्डव वन दहन की घटना के दौरान) इसके बाद वनवास के दौरान अर्जुन की तपस्या के समय ही उससे मिले। उस समय भी उन्होंने कहा कि शिव की आज्ञा होने पर ही वे दिव्यास्त्र दे सकेगें। अर्जुन द्वारा किरात रूप में शिव का दर्शन करने और उनसे वरदान पाने के बाद ही इन्द्र उसे स्वर्ग ले गये और दिव्यास्त्रों की शिक्षा दी। वहाँ उसके निवास करने के दौरान भी इन्द्र ने उससे निवात कवच नाम के दानवों का संहार कराकर अपना ही प्रयोजन सिद्ध किया। यह नहीं लगता कि इसके बाद इन्द्र ने कभी अर्जुन से भेंट की। मतलब यह कि इन्द्र का अर्जुन पर न तो इतना प्राकृतिक प्रेम था न ही ऐसी कोई आवश्यकता थी कि वे कपटवेश धारण करके कर्ण से कवचकुण्डल माँगते।
प्रसङ्गवश यह बताना आवश्यक है कि महाभारत के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि देवता अपने विशेष सम्बन्ध के कारण मानवीय सङ्घर्षों में पक्षपात नहीं करते थे। धर्मदेव युधिष्ठिर के पिता थे पर उन्होंने युधिष्ठिर के धर्म की बार बार परीक्षा लेने के सिवा जीवन के सङ्घर्षों में उनकी मदद नहीं की। न तो पवनदेव की भीम से भेंट की चर्चा आती है न ही अश्विनीकुमारों की नकुल सहदेव से मुलाकात की। इन देवताओं द्वारा अपने पुत्रों को दी गयी किसी मदद की चर्चा नहीं मिलती। सूर्यदेव ने कर्ण को इन्द्र द्वारा उसके कवचकुण्डल के हरण के सम्बन्ध में चेतावनी भले दी हो पर इसके सिवा उन्होंने उसकी कोई मदद नहीं की। फिर हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सूर्य ने दो मौकों पर पाण्डवों की मदद भी की थी। उन्होंने ही युधिष्ठिर को वह अक्षयपात्र दिया था जिससे वह अतिथियों को भोजन कराते थे और जिससे दुर्वासा ऋषि की प्रसिद्ध घटना जुड़ी हुई है। इसके अतिरिक्त उन्होंने युधिष्ठिर के कहने पर अज्ञातवास के दौरान द्रौपदी की रक्षा के लिए एक राक्षस को भेजा था जिसने अदृश्य अवस्था में रहते हुए विराट सभा में कीचक से द्रौपदी की रक्षा की थी। इन बातों से लगता है कि सूर्य ने कर्ण और युधिष्ठिर के सूर्यभक्त होने के कारण उन पर कृपा की थी किसी और कारण से नहीं।
उस समय के समाज की यह मान्यता थी कि देवता पक्षपात से उठे होते हैं और अन्याय नहीं कर सकते। उद्योगपर्व में एक प्रसङ्ग आता है कि दुर्योधन को लोग यह समझाते हैं कि पाण्डवों के साथ तो देवता हैं तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते। इस पर दुर्योधन कहता है कि देवता लोग पक्षपातों से ऊपर उठने के कारण देवता हुए हैं वे किसी का इस तरह से पक्ष नहीं ले सकते। अतः यह मानना ठीक नहीं लगता कि इन्द्र ने छलकपट करके कवचकुण्डल लिये थे।
तीसरी बात यह कि कर्ण में इतनी समझ रही होगी कि वह यह समझ सके कि दान का सुपात्र कौन है। (कपटवेश में इन्द्र दान का सुपात्र तो नहीं हो सकता था।) और वह यह भी जानता होगा कि दान के बदले में कुछ माँगा नहीं जाता। फिर वह ऐसा कैसे कर सकता था? सम्भव है कि उसका चरित्र अधिक ही गिरा हुआ हो पर उसके और इन्द्र के व्यवहार की अधिक युक्तिसङ्गत व्याख्या की जा सकती है जो इस प्रकार है।
ऐसा लगता है कि देवता अपनी दी हुई वस्तुओं को उस व्यक्ति की मृत्यु से पहले किसी समय ले लेते थे जिसके लिए वह वस्तु दी गयी थी। महाप्रस्थानिकपर्व में वर्णन है कि अर्जुन से अग्निदेव ने यह कहकर गाण्डीव माँग लिया कि उसका समय पूरा हो गया है। इसी प्रकार कर्ण के कवच और कुण्डल का समय पूरा हो गया था अतः इन्द्र ने कर्ण से उसको माँग लिया।(कर्ण के बचपन में उसकी सुरक्षा के लिए यह कवच दिया गया था। और इसने काफी दिन तक उसकी रक्षा की थी। अब उसकी मृत्यु का समय निकट आ रहा था। देवता मनुष्यों की आयु से अवगत होते हैं।) देवताओं की दी हुई वस्तु होने के कारण कर्ण इन्हें देने से तो इंकार नहीं कर सकता था पर इसके बदले में वह माँग तो कर ही सकता था। इसमें कोई दोष नहीं था। अतः इस प्रकार से देखने पर न तो कर्ण का व्यवहार अयुक्तियुक्त प्रतीत होता है न ही इन्द्र का।
महाभारत के संरक्षण और संशोधन का काम काफी दिनों तक सूत जाति के लोगों द्वारा किया गया जो कर्ण को अपने समुदाय का समझकर उससे विशेष आत्मीयता अनुभव करते थे। ये लोग महाभारत की मूलकहानी में बदलाव तो नहीं कर सकते थे पर विभिन्न प्रसङ्गों के रूप तो बदल सकते ही थे। (आजकल के सूत भी बदलते हैं। विभिन्न साहित्यिक उपन्यासों और धारावाहिकों की मूल महाभारत से तुलना करके यह जाना जा सकता है।) उन्होंने ही इस प्रसङ्ग में परिवर्तन करके इन्द्र को पक्षपाती देवता और कर्ण को दानवीर के रूप में प्रस्तुत किया।
मेरी दृष्टि में कवचकुण्डल हरण की घटना की सन्तोषजनक व्याख्या यही है।
No comments:
Post a Comment