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महाभारत में शुक्राचार्य के विषय में अधिक नहीं लिखा है। इनकी पूर्ण कथा अलग अलग पुराणों में है। महाभारत के अनुसार:
- शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे व उस समय असुर राज वृषपर्वन के राज्य में रहते थे।
- उनकी पुत्री का नाम देवयानी था जो उन्हें बहुत प्रिय थी।
- उन्हें मृत-संजीवनी विद्या का ज्ञान था जो देवताओं के गुरु बृहस्पति के पास भी नहीं थी। इस विद्या से शुक्राचार्य देवासुर संग्राम में मारे गए असुरों को पुनः जीवित कर देते थे।
- बृहस्पति ने यह विद्या सीखने के लिए अपने पुत्र कच को शुक्राचार्य के पास भेजा। शुक्राचार्य ने सब कुछ समझते हुए भी कच को शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया।
- असुरों ने कच को मारने के कई प्रयास किए, किन्तु हर बार देवयानी के कहने पर शुक्र कच को अपनी विद्या से पुनः जीवित कर देते थे। अंत में असुरों ने कच को मारकर उसके शरीर को जला दिया, व उसकी अस्थियों का चूर्ण बनाकर शुक्र को मदिरा में घोल कर दे दिया। इस बार देवयानी के कहने पर शुक्र ने कच को पुकारा तो उसकी आवाज़ उनके उदर से आई। सत्य जान शुक्र को बहुत दुःख भी हुआ व क्रोध भी आया। उन्होंने तब से ब्राह्मणों के लिए मदिरा वर्जित कर दी। उन्होंने कच को मृत-संजीवनी विद्या सिखाई व उसे पुकारा, जिससे वो उनके उदर को चीरता हुआ निकला। इसके पश्चात उसने अपनी विद्या से अपने गुरु को पुनर्जीवित किया। इसके पश्चात कच देवलोक लौट गया।
- शुक्र की पुत्री देवयानी का विवाह कुरूकुल के पूर्वज राजा ययाति से हुआ था। शुक्र ने ययाति को उनका तेज़, बल व यौवन समाप्त हो तत्काल वृद्धावस्था को प्राप्त होने का श्राप दिया था। देवयानी की याचना पर इसमें यह बदलाव किया की यदि कोई स्वतः ययाति की वृद्धावस्था उनसे लेना चाहे तो ययाति उससे उसका यौवन प्राप्त कर सकते हैं।
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इस कथा का महाभारत में भी उल्लेख है, क्योंकि यह कथा कुरुकुल के पूर्वजों से जुड़ी है। यद्यपि कच व देवयानी में से कोई भी कुरुओं के पूर्वज नहीं थे।
बात देवासुर संग्राम के समय की है। देवताओं के गुरु थे बृहस्पति व असुरों के गुरु थे शुक्राचार्य। शुक्र को संजीवनी विद्या आती थी जिससे वो युद्ध में मारे गए असुरों को पुनः जीवित कर देते थे। इस कारण देवता असुरों को पराजित नहीं कर पाते थे। देवताओं ने बृहस्पति के साथ मिलकर योजना बनाई यह विद्या सीखने की, और बृहस्पति के पुत्र कच को शुक्र के पास यह विद्या सीखने के लिए भेजा।
शुक्र ने सत्य जानते हुए भी कच को शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया व उसे अपने पास रख लिया। शुक्र की लाड़ली पुत्री थी देवयानी, जो रूप व गुणों से सम्पन्न थी व शुक्र को अत्यंत प्रिय भी। इस कारण वो थोड़ी ज़िद्दी भी थी। देवताओं ने कच से कहा था कि वो देवयानी को प्रसन्न कर लेगा तो शुक्र को प्रसन्न करना आसान हो जाएगा। अतः कच ने देवयानी से बहुत विनम्र व्यवहार किया व उसका ध्यान रखने लगा। इस बात से देवयानी उस पर आसक्त हो गई। किन्तु कच ने ब्रह्मचर्य व्रत ले रखा था, अतः देवयानी ने उस समय के लिए अपने प्रेम को मित्रता तक ही सीमित रखा।
जब असुरों को यह बात पता चली कि बृहस्पति का पुत्र उनके गुरु के आश्रम में संजीवनी विद्या सीखने के आशय से रह रहा है, तो वे क्रोध में आ गए। एक बार कच गाय चराने वन में गया तो उन्होंने उसका वध कर दिया। जब कच नहीं लौटा तो देवयानी चिंतित हो गई। उसे लगा कि अवश्य ही असुरों ने उसे मार डाला है। उसने अपने पिता से कच को जीवित करने के लिए कहा। अपनी पुत्री के अश्रुओं को देख शुक्र ने कच को पुकारा, जिससे वो पुनः जीवित हो कर आ गया, व पूछने पर उसने पूर्ण वृत्तांत कह सुनाया।
इस प्रकार असुरों ने कई बार कच को मारने का प्रयास किया। हर बार वो उसका वध करते, व हर बार देवयानी अपने पिता से अनुरोध करती, व हर बार शुक्र उसे जीवित कर देते। अंततः असुरों ने कच को मारकर उसका शरीर जला दिया, उसकी अस्थियों का चूर्ण बना दिया, व उसकी भस्म व अस्थि चूर्ण मदिरा में डालकर शुक्र को पिला दिया। अबकी बार जब देवयानी के कहने से शुक्र ने कच को पुकारा, तो कच की आवाज़ उनके उदर से आई। उसने जब शुक्र को सत्य बताया तो शुक्र को क्रोध भी आया व दुःख भी हुआ। एक ओर उन्होंने असुरों पर बहुत क्रोध किया, व दूसरी ओर यह घोषणा भी की कि अब से ब्राह्मणों के लिए मदिरापान वर्जित होगा, क्योंकि मदिरा के नशे में वो इतने ज्ञानी होते हुए भी अपने शिष्य के अवशेष पी गए थे। उधर देवयानी भी कच को लेकर विलाप कर रही थी। तब शुक्र ने कच को संजीवनी विद्या का मंत्र सिखाया, व उसे पुकारा। कच उनके उदर को भेद कर निकल आया, जीवित, किन्तु शुक्र की मृत्यु हो गई। फिर कच ने उसी विद्या से शुक्र को पुनर्जीवित किया।
विद्या समाप्ति के पश्चात कच शुक्र की आज्ञा लेकर जाने लगा, तब देवयानी ने उससे प्रणय निवेदन किया। कच ने कहा कि एक तो वो गुरु पुत्री होने के कारण सम्मान के योग्य है, दूसरे उसके पिता के उदर से जन्म लेने के कारण अब वो कच की बहन समान हो गई है। अतः इस प्रकार की बातें वो उसके विषय में सोच ही नहीं सकता। इस पर अपनी बात मनवाने की आदि देवयानी को क्रोध आ गया। उसने कच को श्राप दिया कि शुक्र द्वारा सिखाई विद्या से वो किसी को जीवित नहीं कर पाएगा। कच ने कहा कि बिना किसी कारण का श्राप देने के कारण वो भी देवयानी को श्राप देता है कि उसका विवाह किसी ब्राह्मण से नहीं हो सकेगा व उसे प्रतिलोम विवाह करना पड़ेगा।
इसके पश्चात कच ने स्वर्ग पहुँचकर वो विद्या बृहस्पति को सिखा दी, किन्तु स्वयं उसका उपयोग नहीं किया। आगे चलकर देवयानी का विवाह कौरवों के पूर्वज राजा ययाति से हुआ।
इसके अतिरिक्त, कई पुराणों में शुक्राचार्य के जीवन के विषय में काफ़ी जानकारी है। मत्स्य पुराण, देवी भागवत पुराण इत्यादि के अनुसार, शुक्र महान ऋषि भृगु के पुत्र थे इनकी माता का नाम काव्यमाता था। अन्य पुराणों में इनकी माता का नाम ख्याति है। ब्रह्मा के पुत्र थे ऋषि भृगु, जिससे शुक्र ब्रह्मा के पौत्र हुए। शुक्र व बृहस्पति दोनों अंगिरस के शिष्य थे। अंगिरस बृहस्पति के पिता थे व अपने पुत्र के साथ पक्षपात करते थे, जिससे खिन्न होकर शुक्र ने अपनी शिक्षा ऋषि गौतम के आश्रम में पूर्ण की। शुक्र बृहस्पति से अधिक मेधावी थे, किन्तु इंद्र ने बृहस्पति को अपना गुरु चुना। इस कारण शुक्र नाराज़ हो गए व उन्होंने असुरों का साथ चुन लिया व सदैव देवताओं को परास्त करने के लिए असुरों का मार्गदर्शन करने में लगे रहते थे। एक बार देवासुर संग्राम के समय शुक्र ने शिवजी को प्रसन्न कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त करने की सोची। जाने से पहले वे असुरों को अपने माता व पिता के संरक्षण में छोड़ गए। शुक्र की अनुपस्थिति का लाभ उठा देवताओं ने आक्रमण कर दिया। असुर भृगु के आश्रम में पहुँचे। उस समय वे तो नहीं थे, किन्तु शुक्र की माता ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया। इंद्र जब वहाँ पहुँचे तो काव्यमाता ने इंद्र को अपने तपोबल से वही जड़ कर दिया। देवता विष्णु की शरण में गए। प्रारब्ध व जान कल्याण से बँधे विष्णु आश्रम में पहुँचे व उन्होंने काव्यमाता से असुरों को देवताओं को सौंपने व इंद्र को छोड़ने को कहा। काव्यमाता ने बात नहीं मानी, व विष्णु ने काव्यमाता का शीश सुदर्शन चक्र से काट दिया व इंद्र को मुक्त कर दिया। इस पर भृगु को बहुत क्रोध आया व उन्होंने विष्णु को श्राप दिया कि उन्हें भी मृत्युलोक में बार बार अवतरित हो कर जीवन-मरण के चक्र से गुज़रना होगा। इसी श्राप के कारण श्रीराम व श्रीकृष्ण इस धरती पर आए। ऋषि भृगु ने अपनी पत्नी को पुनः जीवित कर दिया, व शुक्र भी शिव से मृत संजीवनी विद्या लेकर लौट आए। इस प्रकरण के बाद से शुक्र विष्णु से भी द्वेष रखने लगे।
महाभारत के शांति पर्व की एक अन्य कथा के अनुसार शुक्र का नाम उषाँस था। अपनी माता के नाम के कारण उन्हें कवि भी कहा जाता था। उनका नाम शुक्र कैसे पड़ा इसकी भी एक कथा है। उषाँस ने एक बार कुबेर से उनका राज्य व समृद्धि छीन ली। कुबेर महादेव के पास गए। शिव अपना भाला लेकर उषाँस को खोजने निकले। शिव को सामने देख उषाँस भयभीत हो गए व सूक्ष्म रूप लेकर भाले की नोक पर बैठ गए। शिव ने अपने हाथ से भाले को मोड़ दिया, जिससे उषाँस उनकी हथेली पर आ गिरे, व फिर उन्हें निगल लिया। उषाँस अपने तपोबल व शिव की इच्छा से उनके उदर में रहने लगे। उन्होंने शिव की बहुत आराधना की व बहुत याचना की, तब शिव ने उन्हें अपने शुक्राणु के रूप में अपने शरीर से निकाला। वो उन्हें भस्म करने वाले थे, किन्तु पार्वती ने उन्हें रोक दिया, व शिव ने उन्हें क्षमा कर दिया। शिव के शुक्राणु के रूप में निकलने से उषाँस का नाम शुक्र पड़ा। शिव के भाले को हाथ से मोड़ने से वो धनुष बन गया, जिसका नाम पिनाक पड़ा।
शुक्र की पत्नी का नाम ऊरज्जस्वति था व उनसे उनके पाँच पुत्र व एक कन्या थी। उनके दो पुत्र, अमर्क व शंड- हिरण्यकशिपु के सलाहकार थे। उनकी दूसरी पत्नी इंद्र की पुत्री जयंती से उन्हें पुत्री देवयानी की प्राप्ति हुई। एक कथा के अनुसार अयोध्या के राजा इक्ष्वाकु का सबसे उद्दंड पुत्र दंड शुक्र का शिष्य था, व उसने शुक्र की पुत्री के साथ बलात्कार किया था, जिससे शुक्र ने उसे शापित किया व दंड का राज्य सदा के लिए दंडकारण्य वन में बदल गया।
शुक्राचार्य के कुछ प्रसिद्ध शिष्यों के नाम:
- बृहस्पति-पुत्र कच
- असुर-राज वृषपर्वन
- विष्णु-भक्त प्रह्लाद
- प्रह्लाद के पौत्र राजा बाली
- इक्ष्वाकु-पुत्र दंड
- राजा पृथु
- गंगा-पुत्र देवव्रत
शुक्र ने एक धर्मसंहिता की भी रचना की थी।
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