सनातन धर्म में मांसाहार स्पष्टतया निषिद्ध है।
- यः पौरुषेयेण करविषा समङकते यो अश्वेयेन पशुयातुधानः।
यो अघ्न्याया भरति कषीरमग्ने तेषांशीर्षाणि हरसापि वर्श्च॥
(ऋग वेद, मंडल १०, सूक्त ८७, ऋचा १६)
जो मनुष्य नर, अश्व अथवा किसी अन्य पशु का मांस सेवन कर उसको अपने शरीर का भाग बनाता है, गौ की हत्या कर अन्य जनों को दूध आदि से वंचित रखता है, हे अग्निस्वरूप राजा, अगर वह दुष्ट व्यक्ति किसी और प्रकार से न सुने तो आप उसका मस्तिष्क शरीर से विदारित करने के लिए संकोच मत कीजिए। - अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति ।
अनभ्यर्च्य पितॄन् देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत् ॥
(मनु संहिता, अध्याय ५, मंत्र ५१-५२)
जो पशुहत्या को मान्यता देता है, जो पशु को मारता है, जो उसके मांस को चिरता है, जो मांस को बेचता या खरीदता है, जो मांस को खानेयोग्य बनाता है और जो उस मांस को खाता है- ये सब पशु के हत्त्यारे है। जो पितरों की और देवताओं की पूजा न करे और उसका मांस पशुओं के मांस से बढ़ाए उसके समान पापात्मा विश्व मे और कोई नही। - कुर्याद् घृतपशुं सङ्गे कुर्यात् पिष्टपशुं तथा ।
न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुमिच्छेत् कदा चन ॥
यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वो ह मारणम् ।
वृथा पशुघ्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ॥
(मनु स्मृति, अध्याय ५, मंत्र ३७-३८)
अगर किसी मनुष्य की (मांस के लिए) दृढ़ कामना है तो वह घी और आटें से (प्रतिकात्मक) पशु बनाएँ (और उसका सेवन करे), किंतु उससे किसी न्यायसंगत कारण के बिना पशु की हत्या कभी न हो। अथवा मृत पशु के शरीर पर जितने केश है उतनी बार भविष्य में उस हत्त्यारे का वध उस पशु के हाथों होगा। - न हि मांसं तृणात काष्ठाद उपलाद्वापि जायते।
हत्वा जन्तुं ततॊ मांसं तस्माद्दॊषॊऽसय भक्षणे॥
स्वाहा स्वधामृत भुजॊ देवाः सत्यार्जव परियाः।
करव्यादान्राक्षसान्विद्धि जिह्मानृत परायणान्॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय ११५, मंत्र २४-२५)
मांस निर्जीव घास या लकड़ियों से नही प्राप्त होता। जबतक एक निर्दोष पशुकी हत्या न हो तबतक मांस की प्राप्ति नही होती। इसीलिए मांसाहार का निषेध है। जो स्वर्गीय जीव स्वाहा, स्वधा और अमृत पर जीवनव्यापन करते है उन्हें सत्य और निष्कपट बुद्धि की प्राप्ति होती है। जो लोग स्वाद का मजा लेने में व्यस्त है वे मांसभक्षी राक्षस है और उन्हें अंधकार की ही प्राप्ति होती है।
सुश्रुत संहिता में मांसाहार का विधान क्यों?
- सुश्रुत संहिता शारीरिक भाष्य है, गीता आध्यात्मिक ज्ञान है।
सुश्रुत एक आयुर्वेद तज्ञ थे जिन्होंने धन्वंतरि भगवान से शल्य चिकित्सा, जीव विज्ञान और जैव रसायन शास्त्र की विद्या प्राप्त की। सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, सिद्धसार रत्नमाला, अष्टांग निघन्तु आदि वैज्ञानिक ग्रंथ है। इन ग्रंथों का तत्त्व ‘अपर-धर्म’ तक सीमित होता है। अपर-धर्म क्या है? हमारे भौतिक जीवन को कैसे सुदृढ़ बनाए यह अपर-धर्म है और हमारे आध्यात्मिक जीवन की सुदृढ़ता परम-धर्म का विषय है। गीता परम-धर्म पर आधारित है अतः वह आत्मा के विषय में बात करती है। आयुर्वेद अपर-धर्म पर आधारित है अतः वह शरीर के विज्ञान की बात करता है। आप को चुनना है कि आप किस विषय में रुचि रखते है- शरीर या आत्मा।
वैसे तो गीता शारीरिक काम और उपभोग के त्याग की बात करती है किंतु वात्स्यायन काम सूत्र और अनंग रंग कामोपभोग के विविध अश्लील पहलुओं का ज्ञान देते है। वेदों के भीतर सब कुछ भरा पड़ा है। वैदिक परिपेक्ष जीवन के हर छवि को स्पर्श करता है। आपके जो आंतरिक गुण है उनके अनुसार आप वेदों के भिन्न भिन्न तत्त्वों के द्वारा आकर्षित हों जाओगे। अगर आप पर भौतिकता की छाया है तो आप इन भौतिक और शारिरिक शास्त्रों का स्वीकार करेंगे, अगर आप आध्यात्मिक चैतन्य से ओतप्रेत है तो आत्मज्ञान के निचोड़ गीता का स्वीकार करेंगे। भगवान कृष्ण गीतामें कहते है, “तं येन मामुपयान्ति ते।” अर्थात जिस जिस भाव से जो जो मेरे पास आता है, उसका वह वह भाव मे दृढ़ करता हूँ। अगर आप कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति से गीता या वैदिक साहित्य पढ़ेंगे तो आपका प्रेम और बढ़ेगा, अगर आप मांसाहार गीता और वेदों में किस प्रकार मान्य है ये जानने हेतू उन्हें पढ़ेंगे तो आपका वही विचार दृढ़ होता चला जाएगा। वेद कामधेनु है, जो चाहे वह वो देती है। किन्तु क्योंकि गीता का तत्त्व परम है, सभी विद्याओं का सार है, उसे प्राथमिकता मिलनी चाहिए। गीता का शब्द सभी वेदों का सारसंग्रह है, सभी सिद्धांतों का निष्कर्ष है अतः उसीका शब्द अंतिम प्रमाण के स्वरूप में स्वीकार करना चाहिए। - मांस, लहसुन और प्याज औषधीय है।
आप किसी वैद्य के पास जाकर दवाइयाँ लेते हो, क्या उन सारी दवाइयों को आप पतीले में पकाकर आनंद से खाते हो? औषध बीमारी का इलाज है आपके जिव्हा के स्वाद का उपाय नही। प्रमाण के अनुसार योग्य समय उसका सेवन किया जाता है। आपको जब अच्छा लगे, जितना अच्छा लगे आप नही खा सकते। दवाइयाँ भोजन नही है। मांस, लहसुन और प्याज़ आदि तामसिक चीजों का औषधीय स्वरूप में सेवन करने की मान्यता शास्त्र देते है। आज भी मछली के शल्क, साँप के दांत, केचुगा-टेंटोंरिया नाम के कुछुए का कवच और अनेको ड्रग्स जो विविध प्राणियों के जैविक तत्त्वों से निर्माण किए जाते है ये औषधों में होते है। इनका सेवन औषधो की तरह ही किया जाना चाहिए।
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