सबसे पहली बात, द्रौपदी का तिरस्कार नहीं, अपमान हुआ था। एक सम्मानित व निर्दोष नारी को ज़बरन उसके केश पकड़कर खींचते हुए पुरुषों की सभा में लेकर जाना, वो भी तब जब वो रजस्वला हो व मात्र एक वस्त्र में लिपटी हुई हो, और उसपर हँसना व उसे अपशब्द कहना, उसके लिए अभद्र शब्दों का प्रयोग करना, उसके वस्त्र हरने की चेष्टा करना… इसे तिरस्कार नहीं अपमान करना व प्रताड़ित करना कहते हैं। और यह सब मात्र इसलिए कि उसके पतियों को उनकी विवशता का एहसास दिलाया जा सके व उनकी असहाय स्त्री के माध्यम से उनके पुरुषत्व को घायल किया जा सके।
अब प्रश्न यह है कि कर्ण द्रौपदी के अपमान के समय चुप क्यों था! इस प्रश्न का आधार ही ग़लत है क्योंकि कर्ण चुप नहीं था, वही तो था जो अपमान कर रहा था! दुर्योधन की आज्ञा से दुशासन द्रौपदी को बलपूर्वक घसीटते हुए सभा में ले आया, व उसे ‘दासी, दासी’ कहकर पांडवों को चिढ़ाने लगा। इसे देखकर कर्ण प्रसन्न हो कर हँसा। फिर द्रौपदी ने सभा के अग्रजों से बात की व अपने दाँव को अनुचित बताया। इस पर विदुर ने उसका समर्थन किया, व कौरवों में से एक, दुर्योधन के एक अनुज विकर्ण ने भी द्रौपदी के कथन से सहमति जताई व सभा में उपस्थित सभी को द्रौपदी के प्रश्नों का उत्तर देने को कहा। इस पर सभा में विकर्ण की भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी। यह देख कर्ण तिलमिला गया व उसने विकर्ण को एक अज्ञानी बालक कहकर चुप करा दिया। फिर उसने द्रौपदी के विषय में अत्यंत अभद्र भाषा का उपयोग करते हुए उसे वेश्या कहा, व दुशासन को आदेश दिया कि वो पांडवों व द्रौपदी के वस्त्र हर ले। दुशासन ने द्रौपदी के चीर हरण की चेष्टा की किन्तु सफल नहीं हो सका। इस पर कर्ण ने द्रौपदी से कहा कि उसके पति समाप्त हो चुके हैं व अब वो एक दासी बनकर कौरवों में से किसी को अपना स्वामी चुन ले। फिर उसने दुशासन को द्रौपदी को घसीटकर दासियों के रहने के स्थान पर ले जाने के लिए कहा जिससे वो उनकी सेवा करना आरम्भ कर दे। इसी बीच अपने मित्र का साथ देने के लिए दुर्योधन ने अपनी जाँघ द्रौपदी को दिखाई।
तो कर्ण चुप नहीं था; चुप रहने वाला तो उसका व्यक्तित्व था ही नहीं। उलटे द्रौपदी का अपमान करने वालों में मुख्य भूमिका उसी की थी। प्रमाण:
स्त्रोत: सभा पर्व, द्यूत पर्व, गीता प्रकाशन गोरखपुर की सम्पूर्ण महाभारत।
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