Saturday, November 16, 2019

क्यों माता सीता ने हिरण के चमड़े की मांग की थी, और राम भगवान उसे मारने भी चले गए, जबकि धर्म तो यह नहीं सिखाता?

कृपया थोड़ी सी बुद्धि एवं विवेक का उपयोग करें और सोचिये :

हिरण का चर्म (चमड़ा) किसी के किस काम आता है?

केवल कुछ शिकारी, अपनी तड़ी मारने के लिए इसे अपने महलों में सजाया करते थे |

जो दंपत्ति अपना राजपाट सब छोड़ कर केवल आदर्शवाद के लिए वनवास कर रहे हैं, उन्हें इसकी क्या ज़रुरत थी?

कभी देखा है, किसी कुटिया में किसी ने शेर/चीते/हिरन की खाल लटकाई हो?

और जहाँ तक पशु चर्म को कपड़े के समान प्रयोग करने का विचार है, ये केवल उन इलाकों में होता था/है जहाँ बर्फ पड़ने जितनी ठण्ड पड़ती हो, भारत में ऐसा वातावरण कहीं नहीं है |


सुनहरी हिरन के बच्चे को देख कर जंगल में अकेलेपन को दूर करने के लिए सीता ने राम से उस बच्चे को पालने की इच्छा जाहिर की थी |

प्रभु राम ने तभी सीता को समझने की कोशिश की कि इतना छोटा बच्चा अपनी माँ के बिना नहीं रह सकता है, इसलिए ये हठ छोड़ दो |

तब सीता बोलीं, ठीक है, जब तक इसकी माँ नहीं आती, तभी तक तो इसे रख सकते हैं |

तब हार कर प्रभु राम उस हिरन को पकड़ने उसके पीछे दौड़ने लगे |

जब दौड़ते हुए वो हिरन एक दम से गायब हो कर कहीं दुसरे स्थान पर प्रकट होने लगा, तो प्रभु ने उस मायावी राक्षस के वध का निर्णय लिया |

बाकी की कथा तो आप जानते ही होंगें |


कथा में कुछ जानने योग्य तथ्य :

  • प्रभु राम विष्णु जी के अवतार थे, इसलिए वे सभी कुछ जानते थे | (विधर्मी लोगों को इस पंक्ति से सबसे अधिक तकलीफ होती है)
  • चूंकि वे लीलावतार थे, इसलिए पहली नज़र में उस मायावी राक्षस को देखने के बाद भी, सामान्य पुरुष की भांति, जब तक उसने अपनी माया नहीं दिखाई, तब तक उसे एक छोटा सा हिरन ही समझते रहे |
  • एक सामान्य पति की भांति अपनी पत्नी के लिए वन में भटकने चले गए |

यदि उन्होंने हिरन को मार कर खाना ही होता, अथवा उसका चर्म चाहिए होता तो सीधे बाण ही न चला देते?

उसके पीछे दौड़ते किसलिए ?

लेकिन दुसरे धर्मों में तो जानवर का केवल एक ही उपयोग होता है, मारो, काटो, खाओ और चमड़े का प्रयोग करो |

इसलिए हमारे धर्म ग्रंथों की कथाएं सुनते हुए उनके मन में भी ऐसे ही प्रश्न आते हैं |

अंग्रेजी संस्करण में तो वे अनेक साक्ष्य दिखते हैं, कि राम मांसाहारी थे, इसलिए हिरन को खाने के उद्देश्य से ही मारने गए थे |

और जहाँ तक धर्म की बात है, जो बाल्यावस्था से ही ऋषि-मुनियों की सेवाओं में लगे हैं, उनमें ऐसे घृणित शौंक होंगें, ये विचार ही स्वयं में थोड़े अटपटे नहीं लगते हैं?

और याद रखिये, दुसरे धर्मों के विचार "सबकुछ हमारे भोगने के लिए ही बनाया गया है" के स्थान पर "ये सृष्टि उस परमपिता द्वारा रचित एक बाग़ है, और हमें माली के समान इसका ध्यान रखना है" की मान्यता रही है |

"पश्य देवस्य काव्यम, न ममार, न जीर्यते..."

अर्थ : "देखो ये परमपिता द्वारा रचित काव्य, ( प्रकृति), जो ना कभी मरता है और ना ही बूढ़ा होता है"


याद रखिये, जिस पुरुष को सदियों से आदर्श पुरुष, मर्यादा पुरुषोत्तम माना जा रहा है, उन्हें ऐसा मानने वालों के मन में भी तो ये प्रश्न उठे होंगें |

इसलिए भले ही गुलामी के अंतरालों में हम सब वो सब मर्यादाएं भूल गए हों, लेकिन अपने पूर्वजों की मान्यताओं को नकारने अथवा धिक्कारने से पहले उनके बारे में निष्पक्ष रूप से मनन अवश्य किया करें |

No comments:

Post a Comment

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...