Saturday, November 30, 2019

जानिए, क्या है ब्रह्मास्त्र और इसकी मारक क्षमता

संभवत: दुनिया का पहला परमाणु बम छोड़ा था अश्वत्थामा ने। आधुनिक काल में जे. रॉबर्ट ओपनहाइमर ने गीता और महाभारत का गहन अध्ययन किया। उन्होंने महाभारत में बताए गए ब्रह्मास्त्र की संहारक क्षमता पर शोध किया और अपने मिशन को नाम दिया ट्रिनिटी (त्रिदेव)। रॉबर्ट के नेतृत्व में 1939 से 1945 का बीच वैज्ञानिकों की एक टीम ने यह कार्य किया। 16 जुलाई 1945 को इसका पहला परीक्षण किया गया।
शोधकार्य के बाद विदेशी वैज्ञानिक मानते हैं कि वास्तव में महाभारत में परमाणु बम का प्रयोग हुआ था। 42 वर्ष पहले पुणे के डॉक्टर व लेखक पद्माकर विष्णु वर्तक ने अपने शोधकार्य के आधार पर कहा था कि महाभारत के समय जो ब्रह्मास्त्र इस्तेमाल किया गया था वह परमाणु बम के समान ही था। डॉ. वर्तक ने 1969-70 में एक किताब लिखी ‘स्वयंभू’। इसमें इसका उल्लेख मिलता है। 
प्राचीन भारत में कहीं-कहीं ब्रह्मास्त्र के प्रयोग किए जाने का वर्णन मिलता है। रामायण में भी मेघनाद से युद्ध हेतु लक्ष्मण ने जब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना चाहा तब श्रीराम ने उन्हें यह कहकर रोक दिया क‍ि अभी इसका प्रयोग उचित नहीं, क्योंकि इससे पूरी लंका साफ हो जाएगी।

क्या है ब्रह्मास्त्र...
ब्रह्मास्त्र एक परमाणु हथियार है जिसे दैवीय हथियार कहा गया है। माना जाता है कि यह अचूक और सबसे भयंकर अस्त्र है। जो व्यक्ति इस अस्त्र को छोड़ता था वह इसे वापस लेने की क्षमता भी रखता था लेकिन अश्वत्थामा को वापस लेने का तरीका नहीं याद था जिसके परिणामस्वरूप लाखों लोग मारे गए थे। रामायण और महाभारतकाल में ये अस्त्र गिने-चुने योद्धाओं के पास था।

रामायणकाल में जहां यह विभीषण और लक्ष्मण के पास यह अस्त्र था वहीं महाभारतकाल में यह द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृष्ण, कुवलाश्व, युधिष्ठिर, कर्ण, प्रद्युम्न और अर्जुन के पास था। अर्जुन ने इसे द्रोण से पाया था। द्रोणाचार्य को इसकी प्राप्ति राम जामदग्नेय से हुई थी। ऐसा भी कहा गया है कि अर्जुन को यह अस्त्र इंद्र ने भेंट किया था।

ब्रह्मास्त्र कई प्रकार के होते थे। छोटे-बड़े और व्यापक रूप से संहारक। इच्छित, रासायनिक, दिव्य तथा मांत्रिक-अस्त्र आदि। माना जाता है कि दो ब्रह्मास्त्रों के आपस में टकराने से प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे समस्त पृथ्वी के समाप्त होने का भय रहता है। महाभारत में सौप्तिक पर्व के अध्याय 13 से 15 तक ब्रह्मास्त्र के परिणाम दिए गए हैं।

किसने बनाया 'ब्रह्मास्त्र'
वेद-पुराणों आदि में वर्णन मिलता है जगतपिता भगवान ब्रह्मा ने दैत्यों के नाश हेतु ब्रह्मास्त्र की उत्पति की। ब्रह्मास्त्र का अर्थ होता है ब्रह्म (ईश्वर) का अस्त्र। प्राचीनकाल में शस्त्रों से ज्यादा संहारक होते थे अस्त्र। शस्त्र तो धातुओं से निर्मित होते थे लेकिन अस्त्र को निर्मित करने की विद्या अलग ही थी।

प्रारंभ में ब्रह्मास्त्र देवी और देवताओं के पास ही हुआ करता था। प्रत्येक देवी-देवताओं के पास उनकी विशेषता अनुसार अस्त्र होता था। देवताओं ने सबसे पहले गंधर्वों को इस अस्त्र को प्रदान किया। बाद में यह इंसानों ने हासिल किया।

प्रत्येक शस्त्र पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मंत्र, तंत्र और यंत्र के द्वारा उसका संचालन होता है। ब्रह्मास्त्र अचूक अस्त्र है, जो शत्रु का नाश करके ही छोड़ता है। इसका प्रतिकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं।

ब्रह्मास्त्र को छोड़े जाने का परिणाम...

महर्षि वेदव्यास लिखते हैं कि जहां ब्रह्मास्त्र छोड़ा जाता है वहां 12 वर्षों तक पर्जन्य वृष्टि (जीव-जंतु, पेड़-पौधे आदि की उत्पत्ति) नहीं हो पाती।' महाभारत में उल्लेख मिलता है कि ब्रह्मास्त्र के कारण गांव में रहने वाली स्त्रियों के गर्भ मारे गए।


गौरतलब है कि हिरोशिमा में रेडिएशन फॉल आउट होने के कारण गर्भ मारे गए थे और उस इलाके में 12 वर्ष तक अकाल रहा।

ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के प्राचीन प्रमाण...
* सिन्धु घाटी सभ्यता (मोहन जोदड़ो, हड़प्पा आदि) में हुए अनुसंधान से ऐसे कई नगर मिले हैं, जो लगभग 5000 से 7000 ईसापूर्व अस्तित्व में थे। इन नगरों में मिले नरकंकालों की स्थिति से ज्ञात होता है कि मानो इन्हें किसी अकस्मात प्रहार से मारा गया है। इसके भी सबूत मिले हैं कि यहां किसी काल में भयंकर ऊष्मा उत्पन्न हुई थी। इन नरकंकालों का अध्ययन करन से पता चला कि इन पर रेशिएशन का असर भी था।

* दूसरी ओर शोधकर्ताओं के अनुसार राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग 10 मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है, जहां पर रेडियो एक्टिविटी की राख की मोटी परत जमी है। इस परत को देखकर उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला गया जिसके समस्त भवन और लगभग 5 लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।

* मुंबई से उत्तर दिशा में लगभग 400 किमी दूरी पर स्थित लगभग 2154 मीटर की परिधि वाला एक विशालकाय गड्ढा मिला है। शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी आयु लगभग 50,000 वर्ष है। इस गड्ढे के शोध के पता चलता है कि प्राचीनकाल में भारत में परमाणु युद्ध हुआ था।

महाभारत की सबसे आश्चर्यजनक कहानी कौन सी है?

महाभारत एक धार्मिक एवं पौराणिक ग्रंथ है, जिसकी रचना धर्म के सन्दर्भ को समझाने तथा पुर्नस्थापना के उद्देश्य हेतु की गई थी। इस ग्रंथ में अनेकों पात्र स्थित है जिन्होंने अपने बहुत-से अधर्मी कृत्यों से कुरूक्षेत्र के युद्ध को अवश्यंभावी बनाया लेकिन महाभारत का कोई भी पात्र मर्यादापुरूषोतम नहीं था। लगभग सभी बुरे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति में भी कुछ अच्छाईयां थी और लगभग सभी अच्छे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति में भी कुछ बुराईयां थी । महाभारत के युद्ध के लिए हम सभी दुर्योधन को जिम्मेदार मनाते हैं। दुर्योधन अधार्मिकता तथा अनैतिकता से भरा था इससे कोई इंकार नहीं कर सकता और उसने कई अधार्मिक कार्यों को भी किया लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि दुर्योधन भी कर्तव्यनिष्ठ और धार्मिक योद्धा होने का परिचय दे सकता है —

Thursday, November 28, 2019

अर्जुन की पहली पत्नी का क्या नाम था?

महाभारत में अर्जुन की चार पत्नियों के नाम मिलते हैं।

द्रौपदी स्वयंवर में लक्ष्य वेधन करके उन्होंने द्रौपदी से विवाह किया था यद्यपि पाण्डवों के सामूहिक निर्णय और अन्य प्रमुख लोगों की सहमति से द्रौपदी का विवाह उनके अतिरिक्त अन्य पाण्डवों से भी हुआ था। इसके बाद पाण्डवों ने आपस में यह नियम बनाया कि किसी एक पाण्डव के साथ द्रौपदी के रहने पर अन्य कोई पाण्डव उस कक्ष में नहीं जाएगा और यदि कोई इस नियम का उल्लंघन करेगा तो वह बारह वर्ष तक वनवास करके इसका प्रायश्चित करेगा। किसी समय अर्जुन को अपना धनुष लेने के लिए द्रौपदी के कक्ष में उस समय जाना पड़ा जब युधिष्ठिर उसके साथ थे। इसे नियम का उल्लंघन मानकर अर्जुन युधिष्ठिर के मना करने पर भी वनवास के लिए निकल गये। इस वनवास के दौरान अर्जुन ने पहले नागकन्या उलुपी और इसके बाद मणिपुर की राजकुमारी चित्राङ्गदा से विवाह किया। इसके बाद द्वारका प्रवास के दौरान वह भगवान कृष्ण की बहिन सुभद्रा पर आसक्त हो गये और उनकी सहमति से उन्होंने सुभद्रा का अपहरण कर लिया। कृष्ण के समर्थन के कारण वे इस विवाह के लिए यादवों की सम्मति प्राप्त करने में सफल हुए और विवाह के बाद सुभद्रा के साथ कुछ दिन तक द्वारिका रहने के बाद वे वनवास पूरा करके इन्द्रप्रस्थ आये।

अतः कालक्रम के विचार से द्रौपदी ही अर्जुन की पहली पत्नी सिद्ध होती है। वह सम्भवतः सभी पाण्डवों की पहली पत्नी थी। (यद्यपि भीमसेन का विवाह हिडिम्बा से पहले होने का उल्लेख है पर यह प्रतीत होता है कि राक्षस व मानव समाज की रीतियाँ भिन्न होने के कारण इस विवाह को धार्मिक विवाह नहीं स्वीकार किया गया था। प्राचीन परम्परा के अनुसार बड़े भाई के अविवाहित रहते हुए छोटे भाई का विवाह वर्जित था।) युधिष्ठिर, भीम, नकुल व सहदेव के अन्य विवाहों की चर्चा तो मिलती है पर उनके कालक्रम का कोई उल्लेख नहीं मिलता। द्रौपदी स्वयंवर के दौरान युधिष्ठिर के अपने अविवाहित रहने के बारे में स्पष्ट कथन और उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए यह पूरी सम्भावना है कि ये विवाह बाद में ही हुए होगें।

इंद्र नें कर्ण से उसके कवच और कुंडल क्यों मांगे, जबकि कवच - कुंडल के होते हुए भी कर्ण को भीम और अर्जुन पहले भी हरा चुके थे?

यह वास्तव में विचारणीय प्रश्न है कि कर्ण के पराजित होने के लिए उसके कवचकुण्डल लेने की इन्द्र को क्या आवश्यकता हो सकती थी। द्रुपद्र पर आक्रमण की घटना, द्रौपदी स्वयंवर के युद्ध और घोषयात्रा के युद्ध की घटना ने भलीभाँति सिद्ध कर दिया था कि कर्ण अर्जुन का मुकाबला नहीं कर सकता। यदि कर्ण का कवचकुण्डल न भी लिया जाता तो भी वह अर्जुन से उसी प्रकार पराजित होता जैसे वह पहले होता आया था। अन्तर केवल इतना होता कि उसे वीरमृत्यु न प्राप्त होती। अश्वत्थामा के समान अमरता की यातना झेलते हुए वह आज भी जीवित होता।

दूसरी बात यह ध्यान देने की है कि इन्द्र का अर्जुन के ऊपर ऐसा प्रेम नहीं दिखायी देता कि हम कहें कि पुत्रप्रेम से प्रेरित होकर उन्होंने ऐसा किया। लाक्षागृह काण्ड के बाद जब पाण्डव दर दर भटक रहे थे तब इन्द्र सान्त्वना देने के लिए भी उनके पास नहीं आये। पहली बार वह अर्जुन से मिले तो रणभूमि में उसके शत्रु के रूप में आये। (खाण्डव वन दहन की घटना के दौरान) इसके बाद वनवास के दौरान अर्जुन की तपस्या के समय ही उससे मिले। उस समय भी उन्होंने कहा कि शिव की आज्ञा होने पर ही वे दिव्यास्त्र दे सकेगें। अर्जुन द्वारा किरात रूप में शिव का दर्शन करने और उनसे वरदान पाने के बाद ही इन्द्र उसे स्वर्ग ले गये और दिव्यास्त्रों की शिक्षा दी। वहाँ उसके निवास करने के दौरान भी इन्द्र ने उससे निवात कवच नाम के दानवों का संहार कराकर अपना ही प्रयोजन सिद्ध किया। यह नहीं लगता कि इसके बाद इन्द्र ने कभी अर्जुन से भेंट की। मतलब यह कि इन्द्र का अर्जुन पर न तो इतना प्राकृतिक प्रेम था न ही ऐसी कोई आवश्यकता थी कि वे कपटवेश धारण करके कर्ण से कवचकुण्डल माँगते।

प्रसङ्गवश यह बताना आवश्यक है कि महाभारत के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि देवता अपने विशेष सम्बन्ध के कारण मानवीय सङ्घर्षों में पक्षपात नहीं करते थे। धर्मदेव युधिष्ठिर के पिता थे पर उन्होंने युधिष्ठिर के धर्म की बार बार परीक्षा लेने के सिवा जीवन के सङ्घर्षों में उनकी मदद नहीं की। न तो पवनदेव की भीम से भेंट की चर्चा आती है न ही अश्विनीकुमारों की नकुल सहदेव से मुलाकात की। इन देवताओं द्वारा अपने पुत्रों को दी गयी किसी मदद की चर्चा नहीं मिलती। सूर्यदेव ने कर्ण को इन्द्र द्वारा उसके कवचकुण्डल के हरण के सम्बन्ध में चेतावनी भले दी हो पर इसके सिवा उन्होंने उसकी कोई मदद नहीं की। फिर हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सूर्य ने दो मौकों पर पाण्डवों की मदद भी की थी। उन्होंने ही युधिष्ठिर को वह अक्षयपात्र दिया था जिससे वह अतिथियों को भोजन कराते थे और जिससे दुर्वासा ऋषि की प्रसिद्ध घटना जुड़ी हुई है। इसके अतिरिक्त उन्होंने युधिष्ठिर के कहने पर अज्ञातवास के दौरान द्रौपदी की रक्षा के लिए एक राक्षस को भेजा था जिसने अदृश्य अवस्था में रहते हुए विराट सभा में कीचक से द्रौपदी की रक्षा की थी। इन बातों से लगता है कि सूर्य ने कर्ण और युधिष्ठिर के सूर्यभक्त होने के कारण उन पर कृपा की थी किसी और कारण से नहीं।

उस समय के समाज की यह मान्यता थी कि देवता पक्षपात से उठे होते हैं और अन्याय नहीं कर सकते। उद्योगपर्व में एक प्रसङ्ग आता है कि दुर्योधन को लोग यह समझाते हैं कि पाण्डवों के साथ तो देवता हैं तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते। इस पर दुर्योधन कहता है कि देवता लोग पक्षपातों से ऊपर उठने के कारण देवता हुए हैं वे किसी का इस तरह से पक्ष नहीं ले सकते। अतः यह मानना ठीक नहीं लगता कि इन्द्र ने छलकपट करके कवचकुण्डल लिये थे।

तीसरी बात यह कि कर्ण में इतनी समझ रही होगी कि वह यह समझ सके कि दान का सुपात्र कौन है। (कपटवेश में इन्द्र दान का सुपात्र तो नहीं हो सकता था।) और वह यह भी जानता होगा कि दान के बदले में कुछ माँगा नहीं जाता। फिर वह ऐसा कैसे कर सकता था? सम्भव है कि उसका चरित्र अधिक ही गिरा हुआ हो पर उसके और इन्द्र के व्यवहार की अधिक युक्तिसङ्गत व्याख्या की जा सकती है जो इस प्रकार है।

ऐसा लगता है कि देवता अपनी दी हुई वस्तुओं को उस व्यक्ति की मृत्यु से पहले किसी समय ले लेते थे जिसके लिए वह वस्तु दी गयी थी। महाप्रस्थानिकपर्व में वर्णन है कि अर्जुन से अग्निदेव ने यह कहकर गाण्डीव माँग लिया कि उसका समय पूरा हो गया है। इसी प्रकार कर्ण के कवच और कुण्डल का समय पूरा हो गया था अतः इन्द्र ने कर्ण से उसको माँग लिया।(कर्ण के बचपन में उसकी सुरक्षा के लिए यह कवच दिया गया था। और इसने काफी दिन तक उसकी रक्षा की थी। अब उसकी मृत्यु का समय निकट आ रहा था। देवता मनुष्यों की आयु से अवगत होते हैं।) देवताओं की दी हुई वस्तु होने के कारण कर्ण इन्हें देने से तो इंकार नहीं कर सकता था पर इसके बदले में वह माँग तो कर ही सकता था। इसमें कोई दोष नहीं था। अतः इस प्रकार से देखने पर न तो कर्ण का व्यवहार अयुक्तियुक्त प्रतीत होता है न ही इन्द्र का।

महाभारत के संरक्षण और संशोधन का काम काफी दिनों तक सूत जाति के लोगों द्वारा किया गया जो कर्ण को अपने समुदाय का समझकर उससे विशेष आत्मीयता अनुभव करते थे। ये लोग महाभारत की मूलकहानी में बदलाव तो नहीं कर सकते थे पर विभिन्न प्रसङ्गों के रूप तो बदल सकते ही थे। (आजकल के सूत भी बदलते हैं। विभिन्न साहित्यिक उपन्यासों और धारावाहिकों की मूल महाभारत से तुलना करके यह जाना जा सकता है।) उन्होंने ही इस प्रसङ्ग में परिवर्तन करके इन्द्र को पक्षपाती देवता और कर्ण को दानवीर के रूप में प्रस्तुत किया।

मेरी दृष्टि में कवचकुण्डल हरण की घटना की सन्तोषजनक व्याख्या यही है।

क्या भगवान श्री कृष्ण ने छल कपट से महाभारत में पांडवों को जितवाया था?

महाभारत में श्रीकृष्ण नें कोई छल नहीं किया। भगवान् कृष्ण नें महाभारत के माध्यम से हमें यह संदेश दिया कि किसी भी अधर्मी को दण्ड मिलना ही चाहिए, चाहे जैसे मिले।

महाभारत के युद्ध में सामान्यत: माना जाता है कि भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन का वध अधर्मपूर्वक किया गया। लेकिन सब घटनाओं का स्पष्टीकरण दिया जा सकता है।

सबसे पहले भीष्म की बात करते हैं - भीष्म कुरुवंश के सबसे प्रबुद्ध और वीर माने जाने वाले व्यक्तियों में से एक थे। लेकिन क्या भीष्म नें अपने जीवन में कोई अपराध नहीं किया?

भीष्म नें अपने भाई विचित्रवीर्य का विवाह कराने के लिए काशी के राजा की तीन पुत्रियों को बलपूर्वक अगवा कर लिया था। उनमें से सबसे बड़ी पुत्री अंबा नें जब न्याय पाने के लिए परशुराम जी की शरण ली, तो भीष्म नें अपने अपराध के दंड से बचने के लिए अपने ही गुरु परशुराम से युद्ध किया।

पांडवों पर बचपन से ही अत्याचार होते रहे, उन्हें मारने की कोशिशें होती रहीं लेकिन भीष्म नें एक बार भी विरोध नहीं किया। वे कौरवों को सिर्फ प्रेमपूर्वक समझाते रहे।

भीष्म अत्यंत शक्तिशाली थे, वे चाहते तो जिस प्रकार उन्होंने काशी की राजकुमारियों के अपहरण के समय बल दिखाया था, उसी प्रकार बल पूर्वक दुर्योधन की साजिशों को भी रोक सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। यहाँ तक कि अति तब हो गई, जब वे अपनी वधू द्रौपदी के वस्त्र हरण को चुपचाप देखते रहे। उन्होंने पाण्डवों के वनगमन का भी विरोध नहीं किया और विराट नगर में हुए युद्ध में भी दुर्योधन का साथ दिया ।

अतः महाभारत युद्ध में उनका वध तो निश्चित ही था। फिर भी उनके वध में अधर्म नहीं हुआ। चलिए सोचते हैं - जब भीष्म के सामने शिखण्डी युद्ध के लिए आया, तो ऐसा नहीं था कि अर्जुन छिपे हुए थे। अर्जुन भीष्म के सामने ही थे, सिर्फ शिखण्डी सबसे आगे चल रहा था।

ऐसा भी नहीं था कि भीष्म नें शिखण्डी को देखकर अपने अस्त्र रख दिए थे। भीष्म लगातार सभी पर बाण छोड़ रहे थे, सिर्फ उन्होंने शिखण्डी पर वार नहीं किया। इससे अर्जुन को थोड़ी मदद मिली और भीष्म का वेग कुछ कम हो गया।

ऐसा भी नहीं था कि भीष्म उस समय अकेले थे। भीष्म की रक्षा में कौरव पक्ष के आठ महारथी भी वहीं युद्ध कर रहे थे। उनके नाम हैं द्रोण, कृतवर्मा, जयद्रथ, भूरिश्रवा, शल, शल्य, भगदत्त और दु:शासन। अर्जुन नें भीष्म पर इन सबको पछाड़कर वार किया था।

जब अर्जुन भीष्म के सामने ही थे और उनके बाणों का प्रहार भी झेल रहे थे, और भीष्म कई महारथियों से रक्षित भी थे, तो इसमें कैसा अधर्म?

इसके बाद आचार्य द्रोण की मृत्यु के बारे में कहें, तो द्रोणाचार्य का मरना भी निश्चित ही था। क्योंकि जो जो अपराध भीष्म के थे, वही वही द्रोण के भी थे। द्रोण नें भी किसी भी साजिश का विरोध नहीं किया था और न ही उसे रोकने की कोशिश की थी।

इसके अलावा, द्रोणाचार्य नें अभिमन्यु को धोखे से मारने में भरपूर साथ दिया था। युद्ध के समय उन्होंने पैदल सैनिकों पर ब्रह्मास्त्र चलाया था, जिसे बहुत गलत कार्य माना जाता था।

जिस दिन द्रोण का वध हुआ, उससे पूर्व लगातार दिन रात युद्ध हुआ था और द्रोणाचार्य बहुत थके हुए थे। उनका युद्ध धृष्टद्युम्न से चल रहा था। जब अश्वत्थामा के मरने की झूठी खबर दी गई, उस समय द्रोणाचार्य नें तुरंत अपने शस्त्रों का त्याग नहीं किया था, वे बिना रुके धृष्टद्युम्न से लड़ रहे थे। इसके बाद उन्हें दिव्य ऋषियों नें उनके पापों का स्मरण कराया, उसके बाद द्रोण नें हथियार रखे थे।

हाँलाकि अपने पुत्र की मृत्य की खबर सुनकर वे बहुत ज़्यादा द्रवित हो चुके थे।

साथ ही साथ जब धृष्टद्युम्न नें उनका सर काटा, उस समय कदाचित् द्रोणाचार्य योग विधि द्वारा पहले ही परम धाम जा चुके थे।

द्रोणवध पर्व, द्रोण पर्व, महाभारत

उसके बाद धृष्टद्युम्न नें उनका सर काट लिया।

इसके बाद कर्ण -

कर्ण तो दुर्योधन के सहायकों में से सबसे प्रमुख ही था। उसने वारणावत की साजिश, जुए की साजिश, द्रौपदी के चीर हरण, घोष यात्रा की साजिश, विराट नगर के युद्ध से लेकर अभिमन्यु के वध तक हर गलत कार्य में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था।

लोग कहते हैं कि घटोत्कच के ऊपर कर्ण की शक्ति चलवाना गलत था। यह गलत कैसे था? भीम के पुत्र नें कर्ण को इतना ज़्यादा परेशान और भयभीत कर दिया था कि कर्ण को विवश होकर वह शक्ति चलानी पड़ी। इसमें कोई अधर्म नहीं था।

जब कर्ण नें अर्जुन पर सर्पबाण चलाया, तो वह कोई साधारण बाण नहीं था। उसमें अश्वसेन नाम का जीवित सर्प बैठा हुआ था जिसके बारे में अर्जुन को पता नहीं था। और सारथी का तो कर्तव्य ही होता है कि वो अपने रथी के प्राण बचाए। ऐसे में श्रीकृष्ण नें रथ को दबा दिया तो इसमें कौन सा अधर्म? बाद में जब अर्जुन को उस बाण की सच्चाई पता चली, तो उन्होंने बड़ी आसानी से उस सर्प का वध कर दिया था।

युद्ध के सत्रहवें दिन, जब कर्ण को मारा गया, तो पहले के प्राप्त श्राप के कारण उसके रथ का पहिया जमीन में धंस गया था। इसमें कर्ण की ही गलती थी। महाभारत युद्ध में अनेकों बार वर्णन है कि जब रथ नष्ट हो जाता, था, तो योद्धा जमीन पर से युद्ध करते थे।

जब भीम का रथ नष्ट हुआ, तो उन्होंने युद्ध किया था। जब अभिमन्यु का रथ नष्ट हुआ, तो उसने जमीन पर खड़े रह कर ही सभी के छक्के छुड़ा दिए थे। यहाँ तक कि रथ नष्ट हो जाने पर भी उसने ऐसा युद्ध किया कि कौरवों को उसे मारने के लिए धोखे का सहारा लेना पड़ा।

लेकिन कर्ण ने क्या किया… जब रथ नष्टप्राय हो गया तो वो धर्म की दुहाई देने लगा। बीच युद्ध में ऐसा कौन करता है?? यहां तक कि कर्ण के हाथ में धनुष था और उसने अर्जुन से युद्ध करने की कोशिश भी की थी। कर्ण को भार्गवास्त्र के अलावा अन्य सभी अस्त्र भी याद थे। महाभारत के कर्ण पर्व में साफ लिखा है कि कर्ण नें अर्जुन पर वरुणास्त्र चलाया था।

यहाँ तक कि अर्जुन नें कर्ण को मारने से पहले उसे चेतावनी देते हुए उसके ध्वज को काटा था।

शायद श्रीकृष्ण नें कर्ण को मारने की जल्दी इसलिए की, जिससे कि कहीं वो अर्जुन के भाई होने का रहस्य न खोल दे।

कर्ण की सबसे ज़्यादा तारीफ शान्ति पर्व में युधिष्ठिर नें की है। लेकिन पूरी महाभारत पढ़ने पर हमें साफ पता चलता है कि युधिष्ठिर बहुत भावुक व्यक्ति थे। ऐसे में जब उन्हें पता चला कि कर्ण उनका भाई था, तो उन्होंने भावना में बहकर उसकी तारीफ की हो, ऐसा सम्भव प्रतीत होता है।

दुर्योधन के वध के सन्दर्भ में कहा जाए, तो दुर्योधन इतना बड़ा पापी था, कि उसे भगवान् कृष्ण चाहे जैसे दंड देते, वो ठीक ही था।

गदायुद्ध के समय उसने भीम को पछाड़ दिया था ये बात ठीक है। लेकिन महाभारत के सभा पर्व में लिखा है कि जब द्रौपदी का चीर हरण हुआ था, तो उस समय दुर्योधन नें द्रौपदी को अपमानित करने के लिए उन्हें अपनी जांघ दिखाई थी। इसके बाद भीम नें प्रतिज्ञा की थी कि वे दुर्योधन की जांघों को तोड़ डालेंगे। ऐसे में धर्म हो या अधर्म, भीम को दुर्योधन की जांघें तो तोड़नी ही थी।

ऐसा नहीं था कि श्रीकृष्ण या युधिष्ठिर नें युद्ध रोकने की कोशिश नहीं की, भगवान् खुद शांति का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर गए थे, लेकिन उन लोगों नें उल्टा उन्हें ही कैद करने की कोशिश की।

यदि दुर्योधन युधिष्ठिर को उनके सम्पूर्ण राज्य के बजाय सिर्फ पांच गांव ही दे देता, तो युद्ध न होता। लेकिन वो अपने लालच में इतना अंधा था कि कुछ समझ ही न सका।

अतः भगवान् कृष्ण पूर्णत: निर्दोष और धर्म पूर्ण थे। और उन्होंने इसके माध्यम से यह संदेश भी दिया कि सभी को उनके कर्मों का फल अवश्य मिलेगा, चाहे जैसे मिले।

महाभारत के बारे में अज्ञात तथ्य।

कहने को महाभारत हमारी संस्कृति का भाग है और हम सब इसकी कथा को भली प्रकार से जानते हैं, परंतु इस महाकाव्य से इतनी दंतकथायें जुड़ी हैं, और इसमें इतना बदलाव किया गया है की हम जिसे बचपन से सत्य मानते आए थे, कई बार वह केवल मिथ्या होती है।

  • द्रौपदी अपने इस कथन के लिए प्रसिद्ध है कि वो दुर्योधन के पानी में गिर जाने पर हँसी थी और उसने उसे ‘अंधे का पुत्र अंधा’ कहा था। सत्य यह है कि यह वाक्य पूरी महाभारत में कहीं भी, किसी ने भी नहीं कहा। जब दुर्योधन गिरा तो भीम और उसके अनुज दुर्योधन पर हँसे थे, किन्तु द्रौपदी वहाँ थी ही नहीं। और यह वाक्य किसी ने नहीं कहा। दुर्योधन ने जब इस प्रकरण की शिकायत धृतराष्ट्र से की तो उसने द्रौपदी, उसकी दासियों और कृष्ण के उस पर हँसने की बात कही, किन्तु उस समय वहाँ पर ना द्रौपदी थी ना कृष्ण। और ये झूठ तो दुर्योधन ने भी नहीं कहा कि उसे अंधे का पुत्र कहा गया।
  • यह भी बहुत प्रसिद्ध है कि द्रौपदी ने कर्ण को अपने स्वयमवर में भाग लेने से रोक दिया था। कई लोग ये भी मानते है कि उसने कर्ण को नीच जाति का कहकर अपमान किया था। किन्तु सत्य यह है की ना ही कर्ण नीच जाति का था, ना ही द्रौपदी ने उसे रोका और ना उसका अपमान किया। यह प्रकरण कथा को और रोचक बनाने के लिए बाद में जोड़ा गया था। कर्ण सूत था, शूद्र नहीं। सूत एक मिश्रित जाति है जो एक ब्राह्मण स्त्री के एक क्षत्रिय पुरुष से विवाह करने से बनती है। महाभारत की क़रीब १२००+ प्राचीन लिपियाँ हैं, जिन्मे से केवल ४-५ में कहा गया है कि द्रौपदी ने कर्ण को रोका। अधिकतर मेंकहा गया है कि वो बाक़ी योद्धाओं की तरह स्वयमवर की परीक्षा में हार गया था।
  • अधिकतर लोग समझते है कि गुरु द्रोण ने कर्ण को उसकी जाति के कारण उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया था। किंतु सत्य यह है कि कर्ण भी गुरु द्रोण का शिष्य था। वह भी राजकुमारों के साथ शिक्षा ग्रहण कर रहा था क्योंकि उसके पिता अधिरथ धृतराष्ट्र के मित्र थे। द्रोण ने उसे केवल ब्रहमास्त्र देने से इंकार किया था, क्योंकि उसने कहा कि उसे वह अस्त्र अर्जुन को परास्त करने के लिए चाहिए। द्रोण को उसकी मंशा और तेवर ठीक नहीं लगे और उन्होंने उसे मना कर दिया। उसके बाद कर्ण परशुराम के पास गया और उनसे असत्य कहा की वो एक भार्गव ब्राह्मण है।
  • अधिकतर लोग द्रौपदी को युद्ध का कारण मानते हैं। परंतु सत्य यह है की युद्ध के ज़िम्मेवार दुर्योधन, युधिष्ठिर और कर्ण थे। दुर्योधन को किसी भी हाल में राज्य चाहिए था। युधिष्ठिर स्वयं अपना राज्य द्यूत में हार गए, जिसको पुनः प्राप्त करने के लिए उन्हें लड़ना पड़ा। कर्ण को किसी भी हाल में अर्जुन से युद्ध करके स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित करना था, इसलिए वह दुर्योधन को सदा युद्ध के लिए उकसाता रहा और उसने कभी शांति स्थापित नहीं होने दी। द्रौपदी से बुरा व्यवहार केवल पांडवो को लज्जित करने के लिए और उन्हें तोड़ने के लिए किया गया था। वह युद्ध का कारण नही थी।
  • कर्ण अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध है। कहते है कि इंद्र ने छल से उससे उसका कवच और कुंडल माँग लिए थे। किन्तु सत्य यह है की सूर्यदेव को इंद्र की योजना पता थी और उन्होंने कर्ण को उसके स्वप्न में बता दिया था। उन्होंने कर्ण से कहा की वो इंकार कर दे। कर्ण ने ऐसा करने से मना किया तो उन्होंने कर्ण को इंद्र से उनकी शक्ति लेने को कहा। जब इंद्र आए तो कर्ण ने उन्हें पहचान लिया, और उनसे अपने कवच-कुंडल के बदले में दो वरदान माँगे। प्रथम उनका सबसे शक्तिशालीअस्त्र और दूसरा की कवच काटने से उसके शरीर पर कोई घाव ना बने। तब इंद्र ने कहा की उनका सबसे शक्तिशाली अस्त्र, वज्र, वो अर्जुन को दे चुके हैं। उन्होंने कर्ण को अपना दूसरा सबसे शक्तिशाली अस्त्र, वसवी शक्ति, देने का वचन दिया, और यह भी कहा की कर्ण का शरीर कवच कटने के बाद भी पूर्वव्रत रहेगा। उसके बाद कर्ण ने उन्हें अपने कवच-कुंडल दे दिए। अतः यह दान नहीं था। क्योंकि दान के बदले कुछ ना माँगा जाता है ना लिया जाता है।
  • अर्जुन श्वेतवाहन व कपिध्वज के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। क्योंकि विश्वकर्मा द्वारा निर्मित उनके रथ में श्वेत गंधर्व अश्व लगे थे, जो ना साधारण अश्वों की भाँति जल्दी थकते थे और ना युद्ध में किसी के भी द्वारा मारे गए, जो बाक़ी योद्धाओं के साथ कई बार हुआ। 

द्रौपदी के बारे में कुछ रोचक तथ्य।

महाकाव्य महाभारत की नायिका द्रौपदी के विषय में भारतवर्ष में ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जो नहीं जानते होंगे। किन्तु फिर भी, जिस द्रौपदी को हम जानते हुए बड़े हुए हैं, जिसके रूप को TV पर देखा है या उपन्यासों में पढ़ा है, जिसके विषय में इतनी कथायें सुन रखी हैं, उसमें व व्यास रचित महाकाव्य की द्रौपदी में काफ़ी अंतर है।

  • जब द्रुपद ने द्रोण को मार सके ऐसे पुत्र की कामना से यज्ञ किया था, तब उस यज्ञ की वेदी से द्रौपदी भी उत्पन्न हुई थी। द्रुपद ने द्रौपदी को मन से अपनाया था; द्रुपद का द्रौपदी को दुखी जीवन का श्राप देना एक मूर्खतापूर्ण मनगढ़ंत कथा है।
  • द्रौपदी अत्यधिक श्याम वर्णा थी, और इसलिए उसका नाम कृष्णा रखा गया था। उसे द्रुपद-पुत्री होने के कारण द्रौपदी, पाँचाल-कुमारी होने के कारण पाँचाली, व द्रुपद के एक अन्य नाम यज्ञसेन के कारण यज्ञसेनी भी कहते हैं।
  • कहते हैं द्रौपदी श्री का अवतार थी। उनके जैसी सुंदर स्त्री उस समय अन्य कोई नहीं थी।
  • द्रौपदी को पुत्री के रूप में पाने के पश्चात से द्रुपद के मन में उसके लिए एक ही वर की इच्छा थी: अर्जुन। किन्तु यह इच्छा उन्होंने कभी प्रकट नहीं की थी।
  • द्रौपदी ने अपने स्वयंवर में भाग लेने से कर्ण या किसी और को कभी नहीं रोका। क्योंकि ऐसा करने का उनके पास अधिकार ही नहीं था। उनके पिता ने प्रतिज्ञा की थी कि वो स्वयंवर की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले से अपनी पुत्री का विवाह करेंगे। अर्थात द्रौपदी वीर्यशुल्क (prize money for winning the competition by showing valor)थीं, और अपने पिता के वचन से बंधी थी। कर्ण को ना कहने की कथा असत्य है व बहुत बाद में जोड़ी गयी है।
  • द्रौपदी अत्यंत बुद्धिमान, शालीन, कर्तव्यपरायण व परिश्रमी भी थी। इंद्र्प्रस्थ में उनका स्थान महारानी होने के साथ वित्त मंत्री का भी था। द्रौपदी सत्यभामा को बताती हैं कि वो सवेरे सबसे पहले उठती थी व रात्रि में सबसे अंत में सोती थी। उनकी दिनचर्या में सहस्त्रों ब्राह्मणों व स्नातकों को भोजन करवाना, महल के दास-दासियों के काम देखना व उनका ध्यान रखना, राजस्व का ध्यान रखना, लोगों की समस्याएँ सुनना इत्यादि शामिल था। इसके अलावा वे कुंती का व अपने पतियों व बच्चों का ध्यान भी रखती थी, व अपने राज्य के सबसे दीन व विकलांग लोगों को भोजन दिए बिना स्वयं नहीं खाती थी। उनकी कर्तव्यपरायणता का तो दुर्योधन भी क़ायल था।
  • द्रौपदी को अन्य पुरुषों के सामने जाना या अपने महल को छोड़ना पसंद नहीं था। जब उन्हें द्यूत सभा में ज़बरन खींच कर लाया गया, तो उन्होंने कहा कि यह उनके जीवन में दूसरी बार है कि एक भरी सभा में पुरुष उन्हें देख रहे हैं। पहली बार उनके स्वयंवर के समय ऐसा हुआ था।
  • द्रौपदी का दुर्योधन के ऊपर हँसना व उसे ‘अंधे का पुत्र अंधा’ कहना बड़ा प्रसिद्ध क़िस्सा है। किन्तु यह भी सरासर असत्य है। जब दुर्योधन गिरा तो उस समय भीम व उसके अनुज दुर्योधन पर हँसे थे, द्रौपदी वहाँ थी ही नहीं। और यह वाक्य सम्पूर्ण महाभारत में किसी ने कभी नहीं कहा।दानव मय द्वारा केवल उनकी सभा का निर्माण हुआ था, सम्पूर्ण महल का नहीं, और द्रौपदी सभा में नहीं जातीं थीं। दुर्योधन माया सभा में ही घूम रहा था जब उसके साथ दुर्घटनाएँ घटीं।
  • द्रौपदी के विषय में यह भी कहा जाता है कि राजसूय यज्ञ के समय उन्होंने दुर्योधन, कर्ण आदि से उनके शस्त्र रखने को कहा था। यह भी पूर्णतः असत्य है। द्रौपदी अन्य पुरुषों से बातें नहीं करतीं थीं, और पुरुषों की सार्वजनिक सभा में नहीं जातीं थीं। राजसूय के समय भी वो मात्र यज्ञ में युधिष्ठिर के साथ बैठी थीं। अन्य सभी कार्य युधिष्ठिर ने अलग व द्रौपदी ने अलग पूर्ण किए थे। यह भी कहा जाता है कि इस अवसर पर हिडिंबा से उनका विवाद हो गया था व दोनों ने एक दूसरे के पुत्रों को शीघ्र मर जाने का श्राप दिया था। यह भी असत्य है। भीम ने हिडिंबा को पत्नी का स्थान कभी नहीं दिया, व कभी भी हिडिंबा इंद्र्प्रस्थ या हस्तिनापुर नहीं गयीं। द्रौपदी ने कभी घटोत्कच को श्राप नहीं दिया; उलटे, घटोत्कच ने तो अपनी माता द्रौपदी को अपने कंधे पर बैठाकर घने वन पार कराए थे वनवास में एक बार, और द्रौपदी ने उसे आशीर्वाद दिया था।
  • द्यूत सभा में अपने ऋतुमास के समय, एक वस्त्र में अपने केशों द्वारा खींच कर ज़बरन लाए जाने पर भी द्रौपदी ने अपना धैर्य नहीं खोया व तर्क-वितर्क से अपनी बात रखी। जब उनके प्रश्नों से कौरव घबरा गए तो उन्होंने द्रौपदी की अस्मिता को निशाना बनाया उन्हें चुप कराने के लिए। एक पतिव्रता नारी को वेश्या कहा, उसके चीर हरण की चेष्टा की, उसे कहा कि उसके पति समाप्त हो गए हैं, अब वो एक दासी है और कौरवों में से किसी को नया पति चुन ले। इन सबके बावजूद, जब धृतराष्ट्र ने द्रौपदी से वर माँगने को कहा, तो द्रौपदी ने मात्र अपने पतियों को उनके आयुधों के साथ मुक्त करने की माँग की। बहुत कहने पर भी अन्य कुछ नहीं माँगा।
  • द्रौपदी पूरे वनवास में अपने केश खोल के घूमती रहीं, व दुशासन के रक्त से उन्हें धोकर ही उन्होंने अपने केश बांधे, यह असत्य है। युद्ध के समय द्रौपदी कुरुक्षेत्र में थी ही नहीं, वो विराट के एक नगर उपप्लवय में थी अन्य स्त्रियों के साथ। ना उन्होंने केश खोल रखे थे, ना दुशासन के रक्त से उन्हें धोया। यह कथा मात्र पद्मपुराण में है, किन्तु महाभारत के किसी भी संस्करण से इसके तथ्य मेल नहीं खाते। विराट पर्व में द्रौपदी की घनी, लम्बी चोटी का उल्लेख है।
  • उनके अलावा पांडवों की अन्य कोई पत्नी इंद्र्प्रस्थ में नहीं रह सकती, ऐसी कोई माँग द्रौपदी ने नहीं की थी। पांडवों की अन्य स्त्रियाँ या तो इंद्रप्रस्थ में रहती थी या आती-जाती रहती थीं।
  • द्रौपदी कुंती को बहुत मान देती थीं, व कुंती को द्रौपदी अत्यंत प्रिय थी। इंद्रप्रस्थ की महारानी होने के पश्चात भी द्रौपदी कुंती के लेप के लिए चंदन स्वयं कूटती थीं।द्रौपदी के अपमान से कुंती बहुत द्रवित हुई थीं व उन्होंने कृष्ण के हाथों पांडवों को संदेश भिजवाया था कि वे द्रौपदी के अपमान का प्रतिशोध लें, शांति की ना सोचें।
  • द्रौपदी अपने सभी पतियों को व उनकी विशेषताओं को पहचानती थीं। हर एक की ताक़त व कमज़ोरी का सही अंदाज़ा था उन्हें, और उनका आचरण भी उसी प्रकार से होता था। किस पति से कैसे काम निकालना है, एक कुशल पत्नी की तरह ये वो जानती थी।
  • द्रौपदी अपने सभी पतियों से प्रेम करती थी व उन्होंने सभी के प्रति अपने सारे कर्तव्य निभाए, किन्तु सबसे अधिक प्रेम वो अर्जुन से करती थी। अर्जुन के इंद्रलोक जाने के पश्चात उन्होंने कहा, कि इतना दुःख उन्हें द्यूतसभा में अपने अपमान पर भी नहीं हुआ जितना अर्जुन के वियोग में हो रहा है।अर्जुन जब स्वर्गलोक से वापस आनेवाले थे, तब सब उन्हें लेने गन्धमादन पर्वत पर जा रहे थे। रास्ता अत्यधिक कठिन व भयानक था, अतः युधिष्ठिर का सुझाव था कि द्रौपदी वहाँ ना जाए। किन्तु द्रौपदी ने किसी की ना सुनी, चाहे रास्ते में बेहोश हुईं, किन्तु अर्जुन को लेने सबके साथ गयीं। अर्जुन पर उनको बहुत गर्व था, वो उनका अभिमान थे।उन्हें बृहनल्ला बने देख द्रौपदी अत्यंत दुखी होतीं थीं। युधिष्ठिर के अनुसार, अर्जुन की अनुपस्थिति में उन्हें द्रौपदी का अधिक ध्यान रखना पड़ता था, क्योंकि अर्जुन की उपस्थिति में द्रौपदी को कभी किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं होती थी! किन्तु सबसे अधिक फ़ायदा उन्हें युधिष्ठिर की पत्नी होने से था, क्योंकि उनका महारानी होना, उनका मान-सम्मान व वर्चस्व, सब युधिष्ठिर के कारण था। अतः सबसे अधिक सम्मान वे युधिष्ठिर को देती थी।
  • द्रौपदी ने सुभद्रा को अपनी छोटी बहन बना के रखा, व उनके पुत्र अभिमन्यु से विशेष स्नेह था उन्हें। सुभद्रा ने भी द्रौपदी को बहुत मान दिया, व उनके पुत्रों को स्नेह। युद्ध के दौरान द्रौपदी कड़े व्रत का पालन कर रहीं थीं, व सुभद्रा उस समय एक दासी की तरह उनकी सेवा कर रही थी। यह बात दुर्योधन भी जानता था कि द्रौपदी का वो व्रत उसके पतन के लिए है।
  • द्रौपदी बहुत बुद्धिमान थीं। धर्मराज युधिष्ठिर से धर्म-अधर्म व राजा के कर्तव्यों पर उनकी चर्चा पढ़ने योग्य है। यह एक ऐसा प्रसंग है जो आपको सोचने पर विवश कर देगा कि दोनों ही अपने स्थान पर सही हैं।
  • वनवास के दौरान सिंधु नरेश जयद्रथ ने द्रौपदी का हरण करने की चेष्टा की थी। किन्तु दुशला का पति होने के कारण युधिष्ठिर ने उसे क्षमा कर दिया, व द्रौपदी उनसे सहमत थीं।
  • जब पांडव अपने अज्ञातवास के दौरान राजा विराट के महल में दास बनकर रह रहे थे, तब कीचक की कुदृष्टि द्रौपदी पर पड़ी। वो रानी का भाई था, मत्स्य का सेनापति भी व अत्यंत कुशल योद्धा भी। किन्तु द्रौपदी ने उसे अपनी स्थिति का फ़ायदा नहीं उठाने दिया। हालाँकि दासों के पास कोई अधिकार नहीं होते थे, किन्तु द्रौपदी जब इंद्रप्रस्थ की महारानी थीं तब सभी दास-दासियों को व उनकी समस्याओं को वही देखती थीं, और जब उन्होंने स्वयं कभी किसी दास पर अत्याचार नहीं होने दिया तो स्वयं पर क्यों होने देतीं! अतः अपनी रक्षा के लिए वो विराट की सभा में पहुँची व उन्होंने सीधे राजा से अपनी रक्षा की गुहार लगायी। किन्तु ना हर राजा युधिष्ठिर जैसा था व ना हर रानी द्रौपदी जैसी, और विराट ने अपने सेनापति के विरुद्ध कोई क़दम नहीं उठाया। इसे आप sexual harassment in workplace by a superior का एक उदाहरण ही समझिए, जिसपर कोई कार्यवाई नहीं की गयी। सभा में युधिष्ठिर व भीम भी उपस्थित थे, जब कीचक ने द्रौपदी को उसकी असहाय स्थिति का आभास दिलाने के लिए लात मारी। द्रौपदी ने विराट को उसके राजा होने का कर्तव्य याद दिलाया, किन्तु एक शक्तिशाली सेनापति का पलड़ा एक साधारण दासी से भारी लगा विराट को, और उनके मौन ने कीचक को स्वीकृति दे दी। युधिष्ठिर ने द्रौपदी को वहाँ से जाने को कहा, क्योंकि अज्ञातवास के बस कुछ दिन ही शेष बचे थे। युधिष्ठिर का निर्णय व्यावहारिक दृष्टि से उचित हो, किन्तु एक नारी व एक परवश के प्रति यह अन्याय था, व जब द्रौपदी ने कभी अन्याय किया नहीं तो वो उसे सहती क्यों! अतः भीम के हाथों उन्होंने कीचक का वध करवा दिया।
  • अपने पुत्रों, भाइयों, चाचाओं, भांजों समेत पूरे पाँचाल खेमे को समाप्त करने वाले अश्वत्थामा को द्रौपदी ने उसका माथे का मणि लेकर क्षमा कर दिया, क्योंकि वह गुरुपुत्र था और गुरु के प्रति अर्जुन के प्रेम को वो जानती थीं। उस मणि को उन्होंने युधिष्ठिर को दे दिया।
  • द्रौपदी श्रीकृष्ण की सखी थीं। द्रौपदी, अर्जुन, कृष्ण व सत्यभामा बहुत अच्छे मित्र थे व जब वे मिलकर बैठते थे तो नकुल, सहदेव व पुत्रों का प्रवेश वर्जित होता था।
  • अपने पतियों की प्रिय पत्नी थी द्रौपदी। वो उनकी सेवा भी करतीं थी व उनपे राज भी। सत्य तो यह है की एक युधिष्ठिर को छोड़ अन्य सभी उनके कहने में थे, और जब अज्ञातवास के पश्चात उन्होंने देखा कि एक सहदेव को छोड़ उनके अन्य सभी पति युधिष्ठिर के समान शांति चाहते हैं, तो उनके अविश्वास व क्रोध का पारावार ना रहा, और उन्होंने भरी सभा में हुआ उनका अपमान सबको स्मरण कराया व अर्जुन व कृष्ण से वचन लिया की वो उन्हें न्याय दिलाएँगे।
  • युधिष्ठिर के द्रौपदी को दाँव पर लगाने से लोगों को लगता है कि वो द्रौपदी को तुच्छ समझते थे, किन्तु ऐसा नहीं है। युधिष्ठिर ने विवाह के उपरांत अपने भाइयों से कहा था कि हमें अपनी पत्नी का एक माता के समान सम्मान करना चाहिए व एक बहन के समान ध्यान रखना चाहिए। द्यूत के समय भी पहले उन्होंने अपने भाइयों व फिर स्वयं को दाँव पर लगाया था, व स्वयं दास बन जाने के उपरांत अपने स्वामी ( शकुनि व दुर्योधन) के आदेश पर द्रौपदी को लगाने के लिए विवश हुए थे। वनवास में द्रौपदी की दशा देखकर वो बहुत दुखी होते थे। द्रौपदी अपने पतियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण थीं, और यही कारण था उनका अपमान करने का।
  • द्रौपदी की महत्ता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है, कि कर्ण का वध करने के लिए जब कृष्ण ने अर्जुन को उकसाया, तो कर्ण के सभी पाप स्मरण कराए। उनमें सबसे प्रमुख था कर्ण का द्यूत सभा में द्रौपदी के प्रति आचरण। कृष्ण ने इसको कई बार दोहराया अर्जुन को रोषित करने हेतु। कर्ण के वध के तुरंत बाद कृष्ण रथ लेकर युधिष्ठिर के पास गए व उनसे कहा कि अर्जुन ने द्रौपदी का अनादर करने वाले अधर्मी का वध कर दिया है।

द्रौपदी एक अत्यंत समझदार, बुद्धिमान, कर्तव्यपरायण व महत्वकांगशी महिला थीं। युधिष्ठिर के कारण उनके हाथ में सत्ता व शक्ति थी, जिसका सही उपयोग करना वो जानती थीं। यदि वो युग स्त्रियों का होता, तो द्रौपदी का निश्चय ही सत्ता में और भी अधिक योगदान व हस्तक्षेप होता। लोग उन्हें या तो एक बिना सोचे-समझे मुख से आग निकालती एक बेवक़ूफ़ नारी के रूप में देखते हैं जो युद्ध का कारण बनी, या एक अबला के रूप में जो पाँच भाइयों में बाँट दी गयी व सारी उम्र दुखी रही। ये दोनो ही असत्य हैं। द्रौपदी की शक्ति ही अपने पाँच पतियों से थी। दुःख उन्होंने मात्र १३ वर्ष झेले, बाक़ी का सारा जीवन उन्होंने एक महारानी व साम्राज्ञी के रूप में बिताया। चाहे द्यूत में जो हुआ हो, ना उन्होंने किसी और के समक्ष अपने पतियों को दोष दिया, ना कभी उनका साथ छोड़ने के विषय में सोचा, बल्कि जीवन की अंतिम साँस तक उनके साथ रही। यह उनका पतिव्रत धर्मपालन भी था व राजनैतिक ज़रूरत भी। बहुत कम नारियाँ होती हैं जो पत्नी व रानी पहले होती हैं व माँ बाद में, और द्रौपदी एक ऐसी ही स्त्री थी। ना वो देवी थी ना खलनायिका, बस हर मनुष्य की भाँति अच्छी व बुरी दोनों का मिश्रित रूप थी। किन्तु जिस युग की वो स्त्री थी, उस समय इतना वर्चस्व रखना अपने आप में एक अनोखी बात थी। बिना सोचे समझे बोलना द्रौपदी जानती ही नहीं थी, क्योंकि वो अत्यंत बुद्धिमान थीं। अपनी सभी बातें तर्क-वितर्क करके रखतीं थीं, व सदा न्याय व धर्म का साथ देती थीं। युद्ध उनके लिए प्रतिशोध नहीं, न्याय था। और युद्ध का कारण वो नहीं थीं; यदि दुर्योधन संधि के लिए मान जाता तो द्रौपदी को अपनी स्थिति से समझौता करना पड़ता। युद्ध हुआ युधिष्ठिर को उनका राज्य वापिस दिलाने के लिए।

युधिष्ठिर ने पत्नी को एक मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र बताया है, यानी वो द्रौपदी को अपनी निकटतम मित्र मानते थे। भीम उनके रक्षक थे व अर्जुन की वो प्रेयसी थी। उनके ५ स्वामी थे व वे पाँच वीरों की स्वामिनी थीं।

क्या ये जातिवाद का उदाहरण नहीं हैं कि परशुराम ने कर्ण को सिर्फ इस लिऐ श्राप दिया क्योंकि वह उच्च जाती का नहीं था?

परशुराम जी ने कर्ण को इसलिए श्राप दिया था कि वह एक निम्न जाति का था यह एक भ्रांति है अधिकतर लोग ये भी जानते नहीं कि वास्तव में महाभारत किस प्रकार हमें अपनी छोटी-छोटी दैनिक जीवन में शिक्षा देता है

मैं यहां यह बताने का प्रयास करूंगा कि वास्तव में परशुराम के शब्दों का क्या अर्थ था और क्यों वह शब्द कर्ण को कहे गए थे 

परशुराम जी के आश्रम में केवल ब्राह्मणों को शिक्षा दी जाती थी क्षत्रियों को या किसी अन्य जातियों को नहीं, इसका कारण यह था कि परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि की हत्या एक क्षत्रिय राजा कार्ति वीर अर्जुन ने की थी इसकी प्रतिशोध लेने के लिए परशुराम ने इस धरातल पर उपलब्ध सभी दुष्ट क्षत्रिय राजाओं का वध कर दिया था और इसी कारण क्षत्रियों को कोई भी शिक्षा नहीं देते थे यह इनके आश्रम का एक नियम था जिस प्रकार आज विभिन्न संस्थाओं में प्रवेश लेने के लिए विभिन्न नियमों का पालन करना पड़ता हैं ठीक उस समय भी परशुराम जी ने अपने आश्रम के लिए यह नियम निर्धारित किए थे कर्ण ने परशुराम जी से धनुर्विद्या सीखने के लिए परशुराम जी को झूठ कहा कि वह एक ब्राह्मण है, जिस समय परशुराम को ज्ञात हुआ की कर्ण ब्राह्मण नहीं बल्कि क्षत्रिय कुल से है तो उन्होंने कर्ण को कुछ बातें कही थी जो निम्न है

परशुराम ने कर्ण को कहा

अगर तुम कोई भी विद्या समाज के भला करने के वजह से नहीं सीखते बल्कि अपना किसी कार्य को सिद्ध करने के लिए सीखते हो या फिर अपने आपको औरों से बड़ा और अच्छा साबित करने के लिए कोई विद्या सीखते हो तो तुम उस काम को अपनी सच्चे मन से नहीं कर पाते और जो भी काम सच्चे मन से नहीं होता वह कभी भी स्थाई नहीं है

जैसे अगर तुमने यह धनुर्विद्या अर्जुन को छोटा दिखाने के लिए सीखी है तो याद रखना तुम कभी भी इस पूरी विद्या को इस्तेमाल नहीं कर पाओगे क्योंकि कोई ना कोई भाग ऐसा जरूर होगा जो तुम उस समय भूल जाओगे.

हर व्यक्ति के साथ जो भी किसी छोटे उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई भी विद्या सीखता है वह कभी भी अपनी कार्य में सफल नहीं हो पाता पूरी तरह से, इसलिए कर्ण तुम भी कभी इस विद्या का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाओगे.

परशुराम जी ने कर्ण को जो भी विद्या सिखाई थी उसमें सबसे मुश्किल विद्या वही थी जो कर्ण महाभारत के युद्ध के दौरान अर्जुन के सामने भूल गया था श्री परशुराम का श्राप नहीं था और ना ही कर्ण की छोटी जाति होने के कारण यह बातें परशुराम ने कर्ण को बोली थी बल्कि यह एक प्राकृतिक सत्य था और ये बाते आज भी ठीक उसी तरीके से लागू है

अगर आज भी आप कोई काम सिर्फ इसलिए करें कि आपको किसी से आगे जाना है या किसी से अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना है तो आप पूरी तरह से वह कार्य नहीं सीख पाते इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि आज के जितने भी बड़े सॉफ्टवेयर कंपनियां है उन सब के मालिक कॉलेज ड्रॉपआउट है उनमें किसी से श्रेष्ट बनने की किसी के सामने अपने आप को साबित करने की किसी से ज्यादा नंबर लाने की प्रतिस्पर्धा नहीं थी बल्कि केवल अपने ज्ञान वर्धन के लिए वह काम कर रहे थे और आज वह शिखर पर है वही जो बच्चे अच्छे नंबर और अच्छे ग्रेड के लिए पढ़ते हैं वे सब आज इन कंपनियों में कर्मचारी भर हैं इससे बड़ा और प्रत्यक्ष उदाहरण आपको और क्या देखने को मिलेगा।

Wednesday, November 27, 2019

जब द्रौपदी का तिरस्कार हो रहा था तो कर्ण चुप क्यों थे?

सबसे पहली बात, द्रौपदी का तिरस्कार नहीं, अपमान हुआ था। एक सम्मानित व निर्दोष नारी को ज़बरन उसके केश पकड़कर खींचते हुए पुरुषों की सभा में लेकर जाना, वो भी तब जब वो रजस्वला हो व मात्र एक वस्त्र में लिपटी हुई हो, और उसपर हँसना व उसे अपशब्द कहना, उसके लिए अभद्र शब्दों का प्रयोग करना, उसके वस्त्र हरने की चेष्टा करना… इसे तिरस्कार नहीं अपमान करना व प्रताड़ित करना कहते हैं। और यह सब मात्र इसलिए कि उसके पतियों को उनकी विवशता का एहसास दिलाया जा सके व उनकी असहाय स्त्री के माध्यम से उनके पुरुषत्व को घायल किया जा सके।

अब प्रश्न यह है कि कर्ण द्रौपदी के अपमान के समय चुप क्यों था! इस प्रश्न का आधार ही ग़लत है क्योंकि कर्ण चुप नहीं था, वही तो था जो अपमान कर रहा था! दुर्योधन की आज्ञा से दुशासन द्रौपदी को बलपूर्वक घसीटते हुए सभा में ले आया, व उसे ‘दासी, दासी’ कहकर पांडवों को चिढ़ाने लगा। इसे देखकर कर्ण प्रसन्न हो कर हँसा। फिर द्रौपदी ने सभा के अग्रजों से बात की व अपने दाँव को अनुचित बताया। इस पर विदुर ने उसका समर्थन किया, व कौरवों में से एक, दुर्योधन के एक अनुज विकर्ण ने भी द्रौपदी के कथन से सहमति जताई व सभा में उपस्थित सभी को द्रौपदी के प्रश्नों का उत्तर देने को कहा। इस पर सभा में विकर्ण की भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी। यह देख कर्ण तिलमिला गया व उसने विकर्ण को एक अज्ञानी बालक कहकर चुप करा दिया। फिर उसने द्रौपदी के विषय में अत्यंत अभद्र भाषा का उपयोग करते हुए उसे वेश्या कहा, व दुशासन को आदेश दिया कि वो पांडवों व द्रौपदी के वस्त्र हर ले। दुशासन ने द्रौपदी के चीर हरण की चेष्टा की किन्तु सफल नहीं हो सका। इस पर कर्ण ने द्रौपदी से कहा कि उसके पति समाप्त हो चुके हैं व अब वो एक दासी बनकर कौरवों में से किसी को अपना स्वामी चुन ले। फिर उसने दुशासन को द्रौपदी को घसीटकर दासियों के रहने के स्थान पर ले जाने के लिए कहा जिससे वो उनकी सेवा करना आरम्भ कर दे। इसी बीच अपने मित्र का साथ देने के लिए दुर्योधन ने अपनी जाँघ द्रौपदी को दिखाई।

तो कर्ण चुप नहीं था; चुप रहने वाला तो उसका व्यक्तित्व था ही नहीं। उलटे द्रौपदी का अपमान करने वालों में मुख्य भूमिका उसी की थी। प्रमाण:

स्त्रोत: सभा पर्व, द्यूत पर्व, गीता प्रकाशन गोरखपुर की सम्पूर्ण महाभारत।

Tuesday, November 26, 2019

एक बुद्धिमान व्यक्ति की पहचान कैसे की जा सकती है?

  • बोलते कम है,सुनते ज्यादा है।
  • राय सब की लेना पसन्द करते है बाद मे करते अपनी है।
  • अपने अधिकतर काम गुप्त रूप से करते है।
  • किसी भी काम के पूर्ण हो जाने पर ही किसी को सूचना देते है।
  • सार्वजनिक जगहों पर कम उपस्थित होते है।
  • जीवन को अपनी शर्तों पर जीते है।
  • अपने अंदर क्या चल रहा है ,किसी को खबर नही होने देते।
  • इनके लिए निर्णय लेना कठिन नही होता क्योंकि ये कन्फ्यूज नही होते।
  • ये लोकप्रिय होते है क्योंकि इनके चेहरे पर एक स्माइल जरूर होती है जो आकर्षित करती है।
  • ये किस्मत और मेहनत के सन्तुलन को जानते है।
  • ये किसी से नही उलझते बल्कि किनारे से निकलना पसन्द करते है।
  • इनको पता होता है कि किससे कब और कितना बोलना है।
  • इनके अंदर अहंकार होता है,जो इनके चेहरे से साफ दिखाई देता है।
  • ये समय पर झुकना और समय पर अकड़ने में माहिर होते है।
  • ये खुद के ओर दुसरो के जीवन को जैसे चाहे मोड़ सकते है।
  • ये बहुत मीठा और बहुत कड़वा बोलने में भी माहिर होते है।
  • ये अच्छे राजनीतिज्ञ होते है।

श्री रामचरितमानस से जुड़े कुछ रोचक तथ्य।

🏹 श्री रामचरित मानस के कुछ रोचक तथ्य🏹

1:~लंका में राम जी = 111 दिन रहे।

2:~लंका में सीताजी = 435 दिन रहीं।

3:~मानस में श्लोक संख्या = 27 है।

4:~मानस में चोपाई संख्या = 4608 है।

5:~मानस में दोहा संख्या = 1074 है।

6:~मानस में सोरठा संख्या = 207 है।

7:~मानस में छन्द संख्या = 86 है।

8:~सुग्रीव में बल था = 10000 हाथियों का।

9:~सीता जी रानी बनीं = 33वर्ष की उम्र में।

10:~मानस रचना के समय पूजनीय तुलसीदास जी की उम्र = 77 वर्ष थी।

11:~पुष्पक विमान की चाल = 400 मील/घण्टा थी।

12:~रामादल व रावण दल का युद्ध = 87 दिन चला।

13:~राम रावण युद्ध = 32 दिन चला।

14:~सेतु निर्माण = 5 दिन में हुआ।

15:~नलनील के पिता = विश्वकर्मा जी हैं।

16:~त्रिजटा के पिता = विभीषण हैं।

17:~विश्वामित्र राम जी को ले गए =10 दिन के लिए।

18:~राम जी ने रावण को सबसे पहले मारा था = 6 वर्ष की उम्र में।

19:~रावण को जिन्दा किया = सुखेन बेद ने नाभि में अमृत रखकर।

श्री राम के दादा परदादा का नाम क्या था?

नहीं तो जानिये-

1 - ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,

2 - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,

3 - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,

4 - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,

5 - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की |

6 - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,

7 - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,

8 - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,

9 - बाण के पुत्र अनरण्य हुए,

10- अनरण्य से पृथु हुए,

11- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,

12- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,

13- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,

14- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,

15- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,

16- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,

17- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,

18- भरत के पुत्र असित हुए,

19- असित के पुत्र सगर हुए,

20- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,

21- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,

22- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,

23- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |

24- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है |

25- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,

26- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,

27- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,

28- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,

29- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,

30- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,

31- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,

32- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,

33- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,

34- नहुष के पुत्र ययाति हुए,

35- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,

36- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,

37- अज के पुत्र दशरथ हुए,

38- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए |

इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ | शेयर करे ताकि हर हिंदू इस जानकारी को जाने..।

यह जानकारी महीनों के परिश्रम के बाद आपके सम्मुख प्रस्तुत है

जय श्री राम।

Friday, November 22, 2019

भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों किया था कर्ण का अंतिम संस्कार?

कर्ण से जुडी बेहतरीन बातें हैं जो सबलोग जानते हैं बस व्यास और महाभारत नहीं जानता | क्यूकि ये बकवास TV सीरियलो और ढपोरशंखो से सुनने-सुनाने को मिलती है

बुरा ये है की एक आम हिंदू पढ़ने कि जगह सुनने पे ज्यादा महत्व देने लगा है जोकि सचमुच गंभीर बात है

पहली बकवास कि कर्ण कवच कुण्डल के साथ पैदा हुआ था

महाभारत के अनुसार

उसने(कुंती ने) उसे(कर्ण को) दिव्य कुण्डल जो काफी तपस्या के बाद मिला था सहज ही दे दिया सहज ही उसे कवच पहना दिया जो देवताओ को भी मोहित करने वाला था ||9|| 

उसने(कुंती ने) उसे(कर्ण को) तब सोने के चमकदार कवच और कुण्डल सही से बांध दिया जो देखने में सूर्य के सामान चमक रहे थे (जो कि उसके पिता थे )|| 5|| 

दिव्य अमृत से सना कुण्डल उसने अपने बच्चे के पास रख दिए

विदा करने से पहले कुंती ने उसे कुण्डल और कवच पहनाया कुण्डल ऐसा यन्त्र था जिसमे दिव्य अमृत था, और वो कवच और कुण्डल उसके पिता कि तरह सुनहले थे वो कवच और कुण्डल बालक को सहज ही आ गये जो देवताओ को भी आकर्षित करते थे

दूसरी बकवास गुरु द्रोण ने कर्ण को शिक्षा नहीं दी

महाभारत के अनुसार कर्ण के पहले गुरु द्रोणाचार्य ही थे मगर उसकी बदतमीज़ी असह्य थी जिसमे हमेशा अश्वथामा और दुर्योधन का सहयोग रहता था और

और सिखने कि बात पे कर्ण गुरु आश्रम छोड़ के चला गया

तीसरा बकवास गुरु द्रोण ने कर्ण को सीखाने से मना कर दिया

महाभारत के अनुसार कर्ण अर्जुन कि तुलना में धीमा था (और गुरु द्रोण भी अर्जुन से ज्यादा आकृष्ट थे,) सो सहज ही कर्ण ने द्रोण से ब्रह्मास्त्र कि मांग कर दी जो गुरु ने कर्ण के ब्राह्मण बनने से पहले देने से मन कर दिया

(ध्यान देने लायक बात ये है कि महाभारत जन्मप्रदत्त वर्णव्यवस्था को नहीं मानता लेकिन यह मानता है कि सारे विद्यार्थी को शूद्र होने चाहिए जिनको हमेशा शिक्षा कि भूख हो, फिर उनके शिक्षा, शौक, जागृति, आकर्षण, विशिष्ठता और व्ययसाय के अनुसार वर्ण दे दिया जाता है जैसे कि भीष्म:तपस्वी क्षत्रिय, ब्रह्मचारी ब्राह्मण द्रोण:वैश्य और अश्वथामा शूद्र बन गया)

बकवास : कर्ण को द्रोण ने अपना पराक्रम दिखाने से रोका था

बकवास : कृपाचार्य ने कर्ण की जाति पूछी

राजधर्म का पहला नियम यह है कि हमेशा अपने बराबरी वाले से लड़ो, द्रोण ये बात कई बार दुर्योधन को सिखाते है कि पदाति पदाति से, घुड़सवार घुसवार से, गज गज से, रथी रथी से और महारथी महारथी से लड़े, बेमेल युद्ध कि कभी अनुमति नहीं दी जाती, क्यों कि हर बार दुर्योधन गदा लेके पदातियों को मारने लगता था और बिपक्ष के सेनापति के सामने खुला छूट जाता था

अर्जुन के पास मंत्र-आमंत्रित(बिना धनुष पे रखे चलाये जाने वाला) ब्रह्मशीर अस्त्र था (लघु ब्रह्मास्त्र, जो धारक को हर संभव खतरे से बचता भी है और किंकर्तव्य स्थिति ने स्वम्स्फुरित हो जाता है, जिसका प्रयोग मनुष्यो पे जायज था और बचाव मंत्र-आमंत्रित ब्रह्मशीर या मंत्र-अभिमंत्रित-आमंत्रित(बिना धनुष के चलाया जा सकने वाला और लौटाया जा सकने वाला) ब्रह्मास्त्र था, और द्रोण ने ब्रह्मशीर अपने बेटे को भी नहीं दिया था) अर्जुन पे आक्रमण का मतलब ही आत्महत्या थी तो किसी को भी यू मरने नहीं दिया जा सकता था

अब ये पृथा का छोटा लड़का, पाण्डु का पुत्र है, कौरव वंश में पैदा हुआ ये बालक से तुम लड़ना चाहते हो, हे महायोद्धा, अपने माता पिता, कुल का परिचय दो किस राजा के तुम पुत्र हो,(ताकि बराबरी की प्रतियोगिता हो )

ये देख सुन के वो संकुचित हो गया कि अब प्रतियोगिता न हो क्यों की राजकुमार से राजकुमार की तुलना की जाती है

बकवास : कर्ण को दुर्योधन ने अंग देश का राजा बना के उसकी दोस्ती मोल ली

"अंग" कभी हस्तिनापुर का हिस्सा था ही नहीं, ये जरासंध की चम्पानगरी थी जिसकी राजधानी मालिनी थी |

जो कि जरासंध ने उसे हारने पे दिया था, चुकि अभी तक कर्ण दुर्योधन के अधीन था वो चम्पानगरी या अंगदेश का राजा नहीं बन सकता था लेकिन जरासंध और हस्तिनापुर की कभी मित्रता नहीं हो पायी थी सो दुर्योधन कि अनुमति से कर्ण जरासध के मगध और कौरवो के हस्तिनापुर के बीच के गांव का राजा बन गया

बकवास : कर्ण ने कृष्ण से अपना अंतिम संस्कार पापहीन धरती पे करने को बोलै था

वास्तव में : कर्ण ने कहीं भी कृष्ण को संस्कार के लिए नहीं कहा, क्युकि कर्ण ये समझता था कि कृष्णा के भी बहुत से दुश्मन युद्ध में शामिल है सो किसी का बचना अवश्यम्भावी नहीं है.

बकवास लाशे उसी दिन जला दी जाती थी जिस दिन वीर मारे जाते थे

महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र बहुत बड़ा मैदान था, 18 दिन की लड़ाई 18 अलग अलग क्षेत्रो में हुई और लाशो के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाती थी

बकवास, गुरु और राजाओ को विशेष सम्मान से जलाया जाता था

बकवास: राजपुत्रो कि लाशो को उसी दिन जला दिया जाता था

बकवास: अर्जुन ने अभिमन्यु कि चिता की कसम खाई

बकवास: विराट कुमार, विराट नरेश और पांचाल नरेश की चिता

बकवास: गुरु द्रोण का अंतिम संस्कार

अगर दुरु द्रोण की लाश को गीदड़ और कुत्ते घसीट रहे है तो बाकि की क्या औकात

और सबसे ज्यादा ढपोर शंख: कर्ण का अंतिम संस्कार

कर्ण की लाश को कीड़े गीदड़ और कुत्ते खा खा कर लगभग खत्म कर चुके थे, थोड़ी बहुत बची लाश काली पड़ गयी थी जो घिनौनी लग रही थी, कटा सर कर्ण की पत्नी के पास था

(अब जिस-जिसने युधिष्ठिर और दुर्योधन को कर्ण की लाश जलाने के लिए लड़ते देखा था वो अपने नौटकीबाजो की टोलियो से पूछे कि उन्होंने नई महाभारत कब लिख डाली

अभी आधे समुदाय ये भी खोजे कि कृष्ण इन लाशो के ढेर से कर्ण कि लाश कैसे निकल कर लेगए

हाँ ये मानने लायक यही कि कर्ण कि लाश हाथ पे जलाई जा सकती थी क्योंकि इतने दिन में कुत्ते सियार गीदड़ गिद्ध और कीड़े सिर्फ बाल छोड़ते बाकि तो सब खा ही चुके थे )

अब असल में लाशो को जला कौन रहा था

राजाओ की रनिया और बहुएं लाशो के हाथ पैर और सर उठा उठा के लाती थी और वे ही अपने पहचान वालो कि चिता को जला के चली गई

(अब कृपया ये कोई तमाशा न करे कि ब्राह्मण वैश्य और क्षत्रियो कि औरते मरघट नहीं जा सकती क्यों कि किसी के भाई के दोस्त के पापा ने किसी वेद में पढ़ लिया है, या किसी के मुँह से सुन लिया या किसी TV सीरियल ने देख लिया )

लेकिन औरतें दूसरी लाशो को नहीं जला रही थी सो बाकि लाशे जला कौन रहा था

बिदुर संजय सुधर्मा इन्द्रसेन और धौम्य ने रथ की लकड़ियों का ढेर लगाया सारे हथियार वहा लगाए लोगो की मदद से लकडिया मंगवाई और पहले बड़े देश के राजा से ले के छोटे देश के राजा की तरह से उन्हें आग में डाल दिया

दुर्योधन का भाई पहले दिन लड़ाई में मरा था, उसकी लाश 18 दिन तक सड़ती रही थी, अभिमन्यु की लाश सृंजय की लाश सबको घी की धार डाल के जला दिया गया

और अंत में हजारो सामूहिक चिताएं बनायी गई और लाशो का ढेर लगा के तेल घी और लकड़िया मिला के बिदुर ने राजा की आज्ञा से जलवा दिया (किसी को किसी के लिए छोड़ नहीं दिया)

महाभारत के शुक्राचार्य से जुड़े कुछ रोचक तथ्य क्या हैं?

प्रश्न के लिए आपका धन्यवाद।

महाभारत में शुक्राचार्य के विषय में अधिक नहीं लिखा है। इनकी पूर्ण कथा अलग अलग पुराणों में है। महाभारत के अनुसार:

  • शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे व उस समय असुर राज वृषपर्वन के राज्य में रहते थे।
  • उनकी पुत्री का नाम देवयानी था जो उन्हें बहुत प्रिय थी।
  • उन्हें मृत-संजीवनी विद्या का ज्ञान था जो देवताओं के गुरु बृहस्पति के पास भी नहीं थी। इस विद्या से शुक्राचार्य देवासुर संग्राम में मारे गए असुरों को पुनः जीवित कर देते थे।
  • बृहस्पति ने यह विद्या सीखने के लिए अपने पुत्र कच को शुक्राचार्य के पास भेजा। शुक्राचार्य ने सब कुछ समझते हुए भी कच को शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया।
  • असुरों ने कच को मारने के कई प्रयास किए, किन्तु हर बार देवयानी के कहने पर शुक्र कच को अपनी विद्या से पुनः जीवित कर देते थे। अंत में असुरों ने कच को मारकर उसके शरीर को जला दिया, व उसकी अस्थियों का चूर्ण बनाकर शुक्र को मदिरा में घोल कर दे दिया। इस बार देवयानी के कहने पर शुक्र ने कच को पुकारा तो उसकी आवाज़ उनके उदर से आई। सत्य जान शुक्र को बहुत दुःख भी हुआ व क्रोध भी आया। उन्होंने तब से ब्राह्मणों के लिए मदिरा वर्जित कर दी। उन्होंने कच को मृत-संजीवनी विद्या सिखाई व उसे पुकारा, जिससे वो उनके उदर को चीरता हुआ निकला। इसके पश्चात उसने अपनी विद्या से अपने गुरु को पुनर्जीवित किया। इसके पश्चात कच देवलोक लौट गया।
  • शुक्र की पुत्री देवयानी का विवाह कुरूकुल के पूर्वज राजा ययाति से हुआ था। शुक्र ने ययाति को उनका तेज़, बल व यौवन समाप्त हो तत्काल वृद्धावस्था को प्राप्त होने का श्राप दिया था। देवयानी की याचना पर इसमें यह बदलाव किया की यदि कोई स्वतः ययाति की वृद्धावस्था उनसे लेना चाहे तो ययाति उससे उसका यौवन प्राप्त कर सकते हैं।

इस कथा के विषय में कुछ अन्य जानना हो तो यह पढ़ें:

इस कथा का महाभारत में भी उल्लेख है, क्योंकि यह कथा कुरुकुल के पूर्वजों से जुड़ी है। यद्यपि कच व देवयानी में से कोई भी कुरुओं के पूर्वज नहीं थे।

बात देवासुर संग्राम के समय की है। देवताओं के गुरु थे बृहस्पति व असुरों के गुरु थे शुक्राचार्य। शुक्र को संजीवनी विद्या आती थी जिससे वो युद्ध में मारे गए असुरों को पुनः जीवित कर देते थे। इस कारण देवता असुरों को पराजित नहीं कर पाते थे। देवताओं ने बृहस्पति के साथ मिलकर योजना बनाई यह विद्या सीखने की, और बृहस्पति के पुत्र कच को शुक्र के पास यह विद्या सीखने के लिए भेजा।

शुक्र ने सत्य जानते हुए भी कच को शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया व उसे अपने पास रख लिया। शुक्र की लाड़ली पुत्री थी देवयानी, जो रूप व गुणों से सम्पन्न थी व शुक्र को अत्यंत प्रिय भी। इस कारण वो थोड़ी ज़िद्दी भी थी। देवताओं ने कच से कहा था कि वो देवयानी को प्रसन्न कर लेगा तो शुक्र को प्रसन्न करना आसान हो जाएगा। अतः कच ने देवयानी से बहुत विनम्र व्यवहार किया व उसका ध्यान रखने लगा। इस बात से देवयानी उस पर आसक्त हो गई। किन्तु कच ने ब्रह्मचर्य व्रत ले रखा था, अतः देवयानी ने उस समय के लिए अपने प्रेम को मित्रता तक ही सीमित रखा।

जब असुरों को यह बात पता चली कि बृहस्पति का पुत्र उनके गुरु के आश्रम में संजीवनी विद्या सीखने के आशय से रह रहा है, तो वे क्रोध में आ गए। एक बार कच गाय चराने वन में गया तो उन्होंने उसका वध कर दिया। जब कच नहीं लौटा तो देवयानी चिंतित हो गई। उसे लगा कि अवश्य ही असुरों ने उसे मार डाला है। उसने अपने पिता से कच को जीवित करने के लिए कहा। अपनी पुत्री के अश्रुओं को देख शुक्र ने कच को पुकारा, जिससे वो पुनः जीवित हो कर आ गया, व पूछने पर उसने पूर्ण वृत्तांत कह सुनाया।

इस प्रकार असुरों ने कई बार कच को मारने का प्रयास किया। हर बार वो उसका वध करते, व हर बार देवयानी अपने पिता से अनुरोध करती, व हर बार शुक्र उसे जीवित कर देते। अंततः असुरों ने कच को मारकर उसका शरीर जला दिया, उसकी अस्थियों का चूर्ण बना दिया, व उसकी भस्म व अस्थि चूर्ण मदिरा में डालकर शुक्र को पिला दिया। अबकी बार जब देवयानी के कहने से शुक्र ने कच को पुकारा, तो कच की आवाज़ उनके उदर से आई। उसने जब शुक्र को सत्य बताया तो शुक्र को क्रोध भी आया व दुःख भी हुआ। एक ओर उन्होंने असुरों पर बहुत क्रोध किया, व दूसरी ओर यह घोषणा भी की कि अब से ब्राह्मणों के लिए मदिरापान वर्जित होगा, क्योंकि मदिरा के नशे में वो इतने ज्ञानी होते हुए भी अपने शिष्य के अवशेष पी गए थे। उधर देवयानी भी कच को लेकर विलाप कर रही थी। तब शुक्र ने कच को संजीवनी विद्या का मंत्र सिखाया, व उसे पुकारा। कच उनके उदर को भेद कर निकल आया, जीवित, किन्तु शुक्र की मृत्यु हो गई। फिर कच ने उसी विद्या से शुक्र को पुनर्जीवित किया।

विद्या समाप्ति के पश्चात कच शुक्र की आज्ञा लेकर जाने लगा, तब देवयानी ने उससे प्रणय निवेदन किया। कच ने कहा कि एक तो वो गुरु पुत्री होने के कारण सम्मान के योग्य है, दूसरे उसके पिता के उदर से जन्म लेने के कारण अब वो कच की बहन समान हो गई है। अतः इस प्रकार की बातें वो उसके विषय में सोच ही नहीं सकता। इस पर अपनी बात मनवाने की आदि देवयानी को क्रोध आ गया। उसने कच को श्राप दिया कि शुक्र द्वारा सिखाई विद्या से वो किसी को जीवित नहीं कर पाएगा। कच ने कहा कि बिना किसी कारण का श्राप देने के कारण वो भी देवयानी को श्राप देता है कि उसका विवाह किसी ब्राह्मण से नहीं हो सकेगा व उसे प्रतिलोम विवाह करना पड़ेगा।

इसके पश्चात कच ने स्वर्ग पहुँचकर वो विद्या बृहस्पति को सिखा दी, किन्तु स्वयं उसका उपयोग नहीं किया। आगे चलकर देवयानी का विवाह कौरवों के पूर्वज राजा ययाति से हुआ

इसके अतिरिक्त, कई पुराणों में शुक्राचार्य के जीवन के विषय में काफ़ी जानकारी है। मत्स्य पुराण, देवी भागवत पुराण इत्यादि के अनुसार, शुक्र महान ऋषि भृगु के पुत्र थे इनकी माता का नाम काव्यमाता था। अन्य पुराणों में इनकी माता का नाम ख्याति है। ब्रह्मा के पुत्र थे ऋषि भृगु, जिससे शुक्र ब्रह्मा के पौत्र हुए। शुक्र व बृहस्पति दोनों अंगिरस के शिष्य थे। अंगिरस बृहस्पति के पिता थे व अपने पुत्र के साथ पक्षपात करते थे, जिससे खिन्न होकर शुक्र ने अपनी शिक्षा ऋषि गौतम के आश्रम में पूर्ण की। शुक्र बृहस्पति से अधिक मेधावी थे, किन्तु इंद्र ने बृहस्पति को अपना गुरु चुना। इस कारण शुक्र नाराज़ हो गए व उन्होंने असुरों का साथ चुन लिया व सदैव देवताओं को परास्त करने के लिए असुरों का मार्गदर्शन करने में लगे रहते थे। एक बार देवासुर संग्राम के समय शुक्र ने शिवजी को प्रसन्न कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त करने की सोची। जाने से पहले वे असुरों को अपने माता व पिता के संरक्षण में छोड़ गए। शुक्र की अनुपस्थिति का लाभ उठा देवताओं ने आक्रमण कर दिया। असुर भृगु के आश्रम में पहुँचे। उस समय वे तो नहीं थे, किन्तु शुक्र की माता ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया। इंद्र जब वहाँ पहुँचे तो काव्यमाता ने इंद्र को अपने तपोबल से वही जड़ कर दिया। देवता विष्णु की शरण में गए। प्रारब्ध व जान कल्याण से बँधे विष्णु आश्रम में पहुँचे व उन्होंने काव्यमाता से असुरों को देवताओं को सौंपने व इंद्र को छोड़ने को कहा। काव्यमाता ने बात नहीं मानी, व विष्णु ने काव्यमाता का शीश सुदर्शन चक्र से काट दिया व इंद्र को मुक्त कर दिया। इस पर भृगु को बहुत क्रोध आया व उन्होंने विष्णु को श्राप दिया कि उन्हें भी मृत्युलोक में बार बार अवतरित हो कर जीवन-मरण के चक्र से गुज़रना होगा। इसी श्राप के कारण श्रीराम व श्रीकृष्ण इस धरती पर आए। ऋषि भृगु ने अपनी पत्नी को पुनः जीवित कर दिया, व शुक्र भी शिव से मृत संजीवनी विद्या लेकर लौट आए। इस प्रकरण के बाद से शुक्र विष्णु से भी द्वेष रखने लगे।

महाभारत के शांति पर्व की एक अन्य कथा के अनुसार शुक्र का नाम उषाँस था। अपनी माता के नाम के कारण उन्हें कवि भी कहा जाता था। उनका नाम शुक्र कैसे पड़ा इसकी भी एक कथा है। उषाँस ने एक बार कुबेर से उनका राज्य व समृद्धि छीन ली। कुबेर महादेव के पास गए। शिव अपना भाला लेकर उषाँस को खोजने निकले। शिव को सामने देख उषाँस भयभीत हो गए व सूक्ष्म रूप लेकर भाले की नोक पर बैठ गए। शिव ने अपने हाथ से भाले को मोड़ दिया, जिससे उषाँस उनकी हथेली पर आ गिरे, व फिर उन्हें निगल लिया। उषाँस अपने तपोबल व शिव की इच्छा से उनके उदर में रहने लगे। उन्होंने शिव की बहुत आराधना की व बहुत याचना की, तब शिव ने उन्हें अपने शुक्राणु के रूप में अपने शरीर से निकाला। वो उन्हें भस्म करने वाले थे, किन्तु पार्वती ने उन्हें रोक दिया, व शिव ने उन्हें क्षमा कर दिया। शिव के शुक्राणु के रूप में निकलने से उषाँस का नाम शुक्र पड़ा। शिव के भाले को हाथ से मोड़ने से वो धनुष बन गया, जिसका नाम पिनाक पड़ा।

शुक्र की पत्नी का नाम ऊरज्जस्वति था व उनसे उनके पाँच पुत्र व एक कन्या थी। उनके दो पुत्र, अमर्क व शंड- हिरण्यकशिपु के सलाहकार थे। उनकी दूसरी पत्नी इंद्र की पुत्री जयंती से उन्हें पुत्री देवयानी की प्राप्ति हुई। एक कथा के अनुसार अयोध्या के राजा इक्ष्वाकु का सबसे उद्दंड पुत्र दंड शुक्र का शिष्य था, व उसने शुक्र की पुत्री के साथ बलात्कार किया था, जिससे शुक्र ने उसे शापित किया व दंड का राज्य सदा के लिए दंडकारण्य वन में बदल गया।

शुक्राचार्य के कुछ प्रसिद्ध शिष्यों के नाम:

  • बृहस्पति-पुत्र कच
  • असुर-राज वृषपर्वन
  • विष्णु-भक्त प्रह्लाद
  • प्रह्लाद के पौत्र राजा बाली
  • इक्ष्वाकु-पुत्र दंड
  • राजा पृथु
  • गंगा-पुत्र देवव्रत

शुक्र ने एक धर्मसंहिता की भी रचना की थी।

Thursday, November 21, 2019

भगवान शिव के माता-पिता कौन थे?

पौराणिक मान्यता के अनुसार

एक पौराणिक मान्यता के अनुसार शिव के माता-पिता से जुड़े रहस्य को जानने के लिए ऋषियों ने एक बार उनसे सवाल किया और पूछा कि हे महादेव आपको किसने जन्म दिया है?

शिव के माता-पिता से जुड़े सवाल का जवाब देते हुए भगवान शिव ने ऋषियों की इस जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा कि मुझे इस सृष्टि को निर्माण करनेवाले भगवान ब्रह्मा ने जन्म दिया है.

ऋषियों की जिज्ञासा इतने पर शांत नहीं हुई तो उन्होंने फिर एक सवाल करते हुए भगवान शिव से पूछा कि अगर ब्रह्मा आपके पिता हैं, तो फिर आपके दादाजी कौन हैं ?

भगवान शिव ने जवाब देते हुए कहा कि इस सृष्टि का पालन करनेवाले भगवान विष्णु ही मेरे दादाजी हैं.

भगवान की इस लीला से अंजान ऋषियों ने फिर से सवाल किया कि अगर आपके पिता ब्रह्मा है और दादाजी विष्णु हैं तो फिर आपके परदादा कौन हैं ?

ऋषियों के इस सवाल को सुन भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए कहा कि खुद भगवान शिव ही हैं मेरे परदादा.

श्रीमद् देवी महापुराण के मुताबिक

श्रीमद् देवी महापुराण के मुताबिक कहा जाता है कि एक बार नारद ने अपने पिता ब्रह्मा से सवाल किया कि इस सृष्टि का निर्माण किसने किया है? आपने, विष्णु भगवान ने, या फिर स्वयं भगवान शिव ने ?

आप तीनों को किसने जन्म दिया है अर्थात आपके माता-पिता कौन हैं ?

तब परमपिता ब्रह्मा ने त्रिदेवों के जन्म की गाथा का वर्णन करते हुए कहा कि प्रकृति स्वरुप दुर्गा और काल-सदाशिव स्वरुप ब्रह्म के योग से ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई है.

अर्थात प्रकृति स्वरुप दुर्गा ही माता हैं और ब्रह्म यानि काल-सदाशिव पिता हैं.

बहरहाल पुराणों में भगवान शिव और आदिशक्ति की महिमाओं के अलग-अलग उल्लेख मिलते हैं.

लेकिन ईश्वर की लीला तो वही जानें, उनकी लीलाओं को समझना हम इंसानों के बस की बात नहीं है क्योंकि भगवान शिव तो देवों के भी देव हैं वहीं आदि हैं वही अंत भी हैं।

महाभारत का सर्वश्रेष्ठ धनुरधारी कौन था?

मै आप को महाभारत नहीं बल्कि प्राचीन भारत में शुरू से लास्ट तक में कौन सबसे श्रेष्ठ धनुर्धर था और सबसे श्रेष्ठ धनुर्धर में से भी था सब बता दे रहा हूं, धनुर्धर तो बहुत हुए हैं, लेकिन एक ऐसा भी धनुर्धर था, जिसकी विद्या से भगवान कृष्ण भी सतर्क हो गए थे। एक ऐसा भी धनुर्धर था जिसको लेकर द्रोणाचार्य चिंतित हो गए थे और एक ऐसा भी धनुर्धर था जो अपने एक ही बाण से दुश्मन सेना के रथ को कई गज दूर फेंक देता था। इन सभी के तीर में था दम लेकिन सर्वश्रेष्ठ तो सर्वश्रेष्ठ ही होता है। आप सोच रहे हैं कर्ण सर्वश्रेष्ठ है तो जवाब है नहीं।

आप कितना ही सोचे कि कौन होगा प्राचीन भारत का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर तब भी आप शायद ही समझ पाएं। आप सोच रहे होंगे कि यह बात जरूर अर्जुन या एकलव्य के बारे में की जा रही होगी। नहीं, धनुर्धर तो बहुत हुए लेकिन उस जैसा धनुर्धर आज तक नहीं हुआ और भविष्य में भी कभी नहीं होगा। आओ जानने हैं कि अंतिम क्रम से पहले क्रम के धनुर्धर के बारे में अर्थात पहले हम बताएंगे सबसे कमजोर धनुर्धर के बारे में फिर अंत में बताएंगे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के बारे में। हालांकि सर्वश्रेष्ठ का चयन करने का अधिकार हमे नहीं है हम तो बस उनकी शक्ति के बारे में जानकर ऐसा कर रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति के अनुसार सर्वश्रेष्ठ का क्रम अलग-अलग हो सकता हैं।प्राचीन भारत में हुए हजारों धनुर्धरों में सर्वश्रेष्ठ कौन था। यहां प्रस्तुत है दुनिया के 8 सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों के बारे में संक्षिप्त जानकारी।

1.अर्जुन:- पांच पांडवों में से एक अर्जुन की धनुष विद्या भी जग प्रसिद्ध थी। गुरु द्रोण के श्रेष्ठ शिष्यों में से एक थे अर्जुन। द्रोण ने अर्जुन को धनुष सिखाते वक्त वचन दिया था कि तुमसे श्रेष्ठ इस संसार में कोई धनुर्धर नहीं होगा। अर्जुन के धनुष की टंकार से पूरा युद्ध क्षेत्र गुंज उठता था।रथ पर सवार कृष्ण और अर्जुन को देखने के लिए देवता भी स्वर्ग से उतर गए थे। लेकिन अर्जुन से भी श्रेष्ठ कोई था जिसे दुनिया अर्जुन से श्रेष्ठ मानती है।

2.एकलव्य:- गुरु द्रोण की मूर्ति बनाकर मूर्ति के समक्ष एकलव्य ने धनुष विद्या सिखी थी। गुरु द्रोण को जब इस बात का पता चला कि एकलव्य अर्जुन से भी श्रेष्ठ धनुष बाण चलाना सिख गया है तो उन्होंने एकलव्य से पूछा कि तुमने यह विद्या कहां से सीखी। इस पर एकलव्य ने कहा- गुरुवर मैंने आपको ही गुरु मानकर आपकी मूर्ति के समक्ष यह विद्या को हासिल किया था।इस बात पर द्रोण ने कहा कि तब तो हम गुरु दक्षिणा के हकदार हैं। एकलव्य यह सुनकर प्रसन्न हो गया और कहने लगा मांगिए गुरुदेव क्या चाहिए। द्रोण ने कहा कि तुम जिस हाथ से प्रत्यंचा चढ़ाते हो मुझे उस हाथ का अंगूठा चाहिए। अर्जुन को दिए वचन की रक्षा के लिए ही उन्होंने एकलव्य से उसका अंगूठा मांग लिया था।

3.कर्ण:- वैसे तो महाभारत काल में सैकड़ों योद्धा हुए हैं, लेकिन कहते हैं कि युद्ध में कर्ण जैसा कोई धनुर्धर नहीं था। कवच और कुंडल नहीं उतरवाते, तो कर्ण को मारना असंभव था।कर्ण के अर्जुन और एकलव्य से श्रेष्ठ धनुर्धर होने का प्रमाण यह है कि कर्ण के तीर की इतनी ताकत थी कि जब वे तीर चलाते थे और उनका तीर अर्जुन के रथ पर लग जाता था तो रथ पीछे कुछ दूरी तक खिसक जाता था। कृष्ण अर्जुन से कहते थे कि जिस रथ पर मैं और हनुमान विराजमान हैं उसके इस तरह पीछे धकेले जाने से पता चलता है कि कर्ण की धनुर्विद्या में बहुत बल है।

4.बर्बरीक : बर्बरीक महाभारत काल का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर था। युद्ध के मैदान में भीम पौत्र बर्बरीक दोनों खेमों के मध्य बिन्दु, एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली कि मैं उस पक्ष की तरफ से लडूंगा जो हार रहा होगा।भीम के पौत्र बर्बरीक के समक्ष जब अर्जुन तथा भगवान श्रीकृष्ण उसकी वीरता का चमत्कार देखने के लिए उपस्थित हुए तब बर्बरीक ने अपनी वीरता का छोटा-सा नमूना मात्र ही दिखाया। कृष्ण ने कहा कि यह जो वृक्ष है ‍इसके सारे पत्तों को एक ही तीर से छेद दो तो मैं मान जाऊंगा। बर्बरीक ने आज्ञा लेकर तीर को वृक्ष की ओर छोड़ दिया।जब तीर एक-एक कर सारे पत्तों को छेदता जा रहा था उसी दौरान एक पत्ता टूटकर नीचे गिर पड़ा, कृष्ण ने उस पत्ते पर यह सोचकर पैर रखकर उसे छुपा लिया की यह छेद होने से बच जाएगा, लेकिन सभी पत्तों को छेदता हुआ वह तीर कृष्ण के पैरों के पास आकर रुक गया।तब बर्बरीक ने कहा प्रभु आपके पैर के नीचे एक पत्ता दबा है कृपया पैर हटा लीजिए क्योंकि मैंने तीर को सिर्फ पत्तों को छेदने की आज्ञा दे रखी है आपके पैर को छेदने की नहीं।

उसके इस चमत्कार को देखकर कृष्ण चिंतित हो गए। भगवान श्रीकृष्ण यह बात जानते थे कि बर्बरीक प्रतिज्ञावश हारने वाले का साथ देगा। यदि कौरव हारते हुए नजर आए तो फिर पांडवों के लिए संकट खड़ा हो जाएगा और यदि जब पांडव बर्बरीक के सामने हारते नजर आए तो फिर वह पांडवों का साथ देगा। इस तरह वह दोनों ओर की सेना को एक ही तीर से खत्म कर देगा।

5.लक्ष्मण:- राम के छोटे भाई लक्ष्मण को कौन नहीं जानता। लक्ष्मण ने अपने तीर से रेखा खींच दी थी। उस रेखा में ही इतनी ताकत थी कि कोई भी उसके उस पार नहीं जा सकता था। लक्ष्मण की धनुष विद्या के चर्चे दूर-दूर तक थे।शास्त्रों अनुसार लक्ष्मण को श्रेष्ठ धनुर्धर माना गया है। लक्ष्मण ने राम-रावण युद्ध के दौरान मेघनाद को हराया था जिसने युद्ध में इंद्र को परास्त कर दिया था इसीलिए मेघनाद को इंद्रजीत भी कहा जाता है।

6.भगवान श्रीकृष्‍ण : भगवान श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर भी थे यह बात तब पता चली जब उन्होंने लक्ष्मणा को प्राप्त करने के लिए स्वयंवर की धनुष प्रतियोगिता में भाग लिया था। इस प्रतियोगिता में कर्ण, अर्जुन और अन्य कई सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों ने भाग लिया था।

द्रौपदी स्वयंवर से कहीं अधिक कठिन थी लक्ष्मणा स्वयंवर की प्रतियोगिता। भगवान श्रीकृष्ण ने सभी धनुर्धरों को पछाड़कर लक्ष्मणा से विवाह किया था। हालांकि लक्ष्मणा पहले से ही श्रीकृष्ण के अपना पति मान चुकी थी इसीलिए श्रीकृष्ण को इस प्रतियोगिता में भाग लेना पड़ा। श्रीकृष्ण के धनुष का नाम शारंग था।।

7.भगवान श्रीराम : एक बार समुद्र पार करने का जब कोई मार्ग नहीं समझ में आया तो भगवान श्रीराम ने समुद्र को अपने तीर से सुखाने की सोची और उन्होंने तरकश से अपना तीर निकाला ही था और प्रत्यंचा पर चढ़ाया ही था कि समुद्र के देवता प्रकट हो गए और उनसे प्रार्थना करने लगे थे।

भगवान श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है। हालांकि उन्होंने अपने धनुष और बाण का उपयोग बहुत ‍मुश्किल वक्त में ही किया।

*बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥

*लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥

भावार्थ:-हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥

ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥

क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥

भावार्थ:-ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात्‌ ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥- (सुंदरकांड- रामचरित मानस)

अंत में जानिए प्राचीन भारत के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर...

8.भगवान शंकर : संपूर्ण धर्म, योग और विद्याओं की शुरुआत भगवान शंकर से होती है और उसका अंत भी उन्हीं पर होता है। भगवान शंकर ने इस धनुष से त्रिपुरासुर को मारा था। त्रिपुरासुर अर्थात तीन महाशक्तिशाली और ब्रह्मा से अमरता का वरदान प्राप्त असुर थे।

शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवरात को सौंप दिया गया था।उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया। शिवजी से सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर ना कोई था ना कोई है और ना कोई होगा।

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...