Tuesday, December 31, 2019

श्रीमद् भागवत गीता के अनुसार, भोजन के गुण क्या हैं?

जय गुरु देव #BeVegetarian

प्रश्न 1- आहार के कितने प्रकार है ?

उत्तर : - आहार तीन प्रकार के होते है -

राजसिक, तामसिक और सात्विक

मनुष्य के जीवन का तीनों का अलग-अलग प्रभाव पड़ता है।

सात्विक , वह आहार जिसमें सत्व गुण की प्रधानता हो , अर्थात् वैर भाव अथवा किसी को पीड़ा पहुचाकर न प्राप्त किया गया हो ,सात्विक आहार कहलाता है।_

आयुर्वेद में कहा गया है कि सात्विक आहार के सेवन से मनुष्य का जीवन सात्विक बनता है।

छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है , कि

आहारशुद्धौ सत्तवशुद्धि: ध्रुवा स्मृति:। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:॥

अर्थात आहार शुद्ध होने से अंत:करण शुद्ध होता है और इससे ईश्वर में स्मृति दृढ़ होती है। स्मृति प्राप्त हो जाने से हृदय की अविद्या जनित सभी गांठे खुल जाती हैं ।

【1】सात्विक भोजन - ये हमारे मन को शांति प्रदान करता है और पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं। इसमें फल, सब्जियां, दूध (कम मात्रा में और ज्यादा गरम नहीं) , मक्खन, पनीर, शहद, बादाम, जौ, गेंहू, दालें, चावल आदि शामिल हैं। इसमें सब सादे और हलके पदार्थ, जोकि कम मात्रा में खायें जाएं आते है।

श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में इसकी इस प्रकार पुष्टि की है 

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६-१७॥

यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, यथोचित कर्म करनेवाले, उचित मात्रा में निद्रा (सोने और जागने) का यह योग दुःखनाशक होता है । शुद्ध आहार-विहार करने वाले मनुष्य के सब दुःख दूर हो जाते हैं ।

【2】राजसिक भोजन - ये हमारे मन को बहुत चंचल बनाता है , तथा उसे संसार की ओर प्रवृत करता है , इसमें अण्डे, मछली, केसर, पेस्ट्री, नमक, मिर्च, मसाले आदि तथा सब उत्तेजक पदार्थ जैसे चाय, काफी, और ज्यादा मात्रा में खाया गया खाना आता है।

【3】तामसिक भोजन - ये हमारे अंदर आलस, क्रोध,आदि उत्पन्न करता है। इसमें मांस, शराब, तम्बाकू, मादक पदार्थ, भारी और बासी खाना आते हैं। वास्तव में किसी भी भोजन की बहुत ज्यादा मात्रा तामसिक प्रभाव रखती है।

राजसिक और तामसिक भोजन से बुरे विचार उत्पन्न होते हैं । सात्विक भोजन से शुद्ध विचार आते हैं। शुद्ध विचारों से चरित्र अच्छा बनता है और परमात्मा के प्रेम के लिए अच्छा चरित्र बहुत जरूरी है। परमात्मा के प्रेम के बिना कोई आत्मिक उन्नित नहीं हो सकती ।

प्रश्न 2 : - पशु , पक्षी , वृक्ष आदि सभी इंसान के भोजन के लिए बनाए गए है , क्योकि मानव एक मांसाहारी जीव है ?

उत्तर - यदि पशु , पक्षी , मनुष्य के भोजन के लिए बनाये गए होते तो आपके दांत नाख़ून , पंजे , पेट की आंत भोजन नली आदि सब हिंसक जानवरो पशुओ जैसी होती जबकि ऐसा नहीं है ।

दुनिया में सभी मनुष्य शाकाहारी है , क्योंकि बिना शाक गेहू ज्वर बाजरा सरसो मूली टमाटर कुछ नहीं बना सकते न खा ही सकते इसलिए दुनिया का कोई मनुष्य अपने को शाकाहारी नहीं हु ऐसा सैद्धांतिक तौर पर नहीं कह सकता ।

इसलिए शाकाहारी तो सभी हैं मांसभक्षी भी शाकाहार ही खाता है , क्योंकि सभी मनुष्य मांस नहीं खाते इसलिए वो अपने को मांसाहारी भी कहता है और बिना शाकाहार उसका मांस व्यर्थ है इसलिए क्यों नहीं शाकाहार अपनाया जाये ?

मनुष्य बिना मांस खाये सारा जीवन बिता सकता है लेकिन केवल मांस के सहारे अपना पूरा जीवन नहीं बिता सकता है ।

प्रश्न 3 : - विज्ञान वृक्ष आदि में भी जीवन मानता है , तो क्या इसे जीव हत्या नही मानते हो ?

उत्तर - देखिए जब हम पेड़ से आम तोड़ते या धान गेहू की फसल काटते तो कोई भागता नहीं है , क्योंकि वो भागने के लिए बनाये ही नहीं और इसमें हिंसा भी नहीं हुई क्योंकि वैर भाव नहीं था वो जीवो के भोजन हेतु ही बनाये गए हैं ।_

जैसा कि राजा द्वारा न्याय के लिए अपराधी अथवा युद्धकाल में दिया गया प्राणदण्ड हिंसा नही होता उसी तरह त्यक्त भाव से प्रकृति की सम्पत्ति का उपयोग करने में भी हिंसा नही होता है क्योकि इसमे वैर भाव नही होता है ।

ईशोपनिषद में भी कहा गया है ,

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्. तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विध्दनम् ।।

जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है । मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे ।

सारे वृक्षों को खाने की अनुमति ईश्वर ने मनुष्यों को नहीं दी है। *और न ही हम प्राणियों को महासुषुप्ति अवस्था में परिवर्तित करके उन्हें मारकर खा सकते है।*

किसी मोटर कंपनी का इंजिनीयर निर्धारित करता है कि इस मोटर के इंजिन के लिये कौन सा इंधन चलेगा । पेट्रोल, डीज़ल आदि । मोटर का उपभोक्ता अर्थात् मोटर को चलानेवाला नहीं । वैसे ही जिस ईश्वर रूपी Engineer ने इस मनुष्यरूपी मोटर बनायी है, वही ईश्वर निर्धारित करेगा कि इस मनुष्य के जठर रूपी इंजिन में कौन सा इंधन डलेगा । इसी प्रकार इस मनुष्य शरीर का उपभोक्ता जीवात्मा यह निश्चय नहीं कर सकता कि मैं मांस खाऊ अथवा फल-फूल-सब्जी आदि ।

पोंधो में आत्मा की स्थिति महा सुषुप्ति की होती हैं अर्थात सोये हुए के समान, अगर किसी पशु का कत्ल करे तो उसे दर्द होता हैं, वो रोता हैं, चिल्लाता हैं मगर किसी पोंधे को कभी दर्द होते, चिल्लाते नहीं देखा जाता ,जैसे कोमा के मरीज को दर्द नहीं होता हैं उसे प्रकार पोंधो को भी उखाड़ने पर दर्द नहीं होता हैं , उसकी उत्पत्ति ही खाने के लिए ईश्वर ने की हैं ।

सबसे महत्वपूर्ण बात हैं की शाकाहारी भोजन प्रकृति के लिए हानिकारक नहीं हैं ।

संख्या दर्शन 5/27 में लिखा हैं ,

की पीड़ा उसी जीव को पहुँचती हैं जिसकी वृति सब अवयवों के साथ विद्यमान हो अर्थात सुख दुःख की अनुभूति इन्द्रियों के माध्यम से होती हैं ,

जैसे अंधे को कितना भी चांटा दिखाए , बहरे को कितने

भी अपशब्द बोले तो उन्हें दुःख नहीं पहुँचता वैसे ही वृक्ष आदि भी इन्द्रियों से रहित हैं ।

अत: उन्हें दुःख की अनुभूति नहीं होती ।

इसी प्रकार बेहोशी की अवस्था में हिंसा का अनुभव नहीं होता उसी प्रकार वृक्ष आदि में

भी आत्मा को मूर्च्छा अवस्था के कारण दर्द अथवा कष्ट नहीं होता हैं , और यहीं कारण हैं की दुःख की अनुभूति नहीं होने से वृक्ष आदि को काटने, छिलने, खाने से कोई पाप नहीं होता और इससे जीव हत्या का कोई भी सम्बन्ध नहीं बनता. भोजन का ईश्वर कृत विकल्प केवल और केवल शाकाहार हैं और इस व्यवस्था में कोई पाप नहीं होता । जबकि मांसाहार पाप का कारण हैं ।

जितना वैर भाव की हिंसा और चोरी , विश्वासघात, छलकपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और वैरभाव , दारुण भाव से हीन धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है ।

वही दूसरी ओर वृक्ष को काटने पर रक्त नहीं निकलता क्योकि उनमे तंत्रिका तंत्र नही होता और *वृक्ष काटने के बाद भी हरे भरे हो सकते हैं । पर जीवों को काटने पर रक्त निकलता है और इलाज ना हो तो जीव मर भी सकता है !

हर जीव अपने ऊपर हो रहे हमले को महसूस कर बचाव के लिए कुछ न कुछ करता है पर वृक्ष ऐसा नहीं करते !

हर जीव जिन्दा नर और मादा के समागम से ही विशिष्ट काल में बच्चेदानी या अन्डे से पैदा होतें है जबकि वृक्ष के बीज को गमले में बोये या खेत में, पानी पाने पर उग ही जातें है !

हर जीव में वातावरण में गति करने के लिए अंग (जैसे पैर, पंख आदि) और महसूस करने के लिए अंग (जैसे आँख, नांक आदि) जरूर होते है पर वृक्ष में नहीं होते हैं !

हर जीव अपने भोजन की तलाशी का प्रयास खुद ही करता है पर वृक्ष अपने भोजन (प्रकाश, पानी, खाद आदि) के लिए पूरी तरह से आजीवन प्रकृति, इन्सान या अन्य जीवों की दया पर निर्भर है !_

तो ये रहे भौतिक कारण जो ये साबित करते हैं वनस्पतियाँ और जीव जन्तु एकदम अलग अलग चीज हैं और रही बात ये जानने की मनुष्य स्वाभाविक तौर पर शाकाहारी जीव है की माँसाहारी, तो इसको भी साबित करने के पचासों सबूत हैं जैसे मिसाल की तौर पर मानवों के पेट में पाए जाने वाला अंग जो सिर्फ शाकाहारी जानवरों में पाया जाता है, मानवों की दांतों की बनावट जो की सिर्फ शाकाहारी जानवरों (जैसे गाय, घोड़े आदि) से मिलती है जबकि सारे मांसाहारी जानवरों दांत नुकीले होते हैं (जैसे शेर, कुत्ते आदि के) !

फलो और सब्जियों में रक्त और मांस नही होता उसमे रस होते है कोई ये नही कहता की फलो का मांस खाओ इसलिये दोष तो केवल मांस और रक्त के खाने में है ।

कोई कहता की मांस नही होता है , वृक्षो का मॉस तो गूदा ही होता है अगर ऐसा है तो रसगुल्ला और गुलाब जामुन में भी गूदा होता है । तब तो वहा भी मांस होता होगा ??  इसलिए जहाँ रक्त नही वहाँ मांस कहाँ होगा ?

अपने भोग विलास के लिए या पैसा कमाने के लिए वृक्षों को काटना बहुत बड़ा पाप होता है ! वृक्ष, पौधों, वनस्पतियों को बिना किसी विशेष जरूरत के काटने पर वृक्ष का कोई भला तो होता नहीं बल्कि वृक्ष का श्राप जरूर लगता है जो की काटने वाले आदमी की जिन्दगी में कई समस्याएं पैदा कर सकता है ! इसलिए सिर्फ अत्यन्त आवश्यक जरूरत पड़ने पर ही वृक्ष को काटना चाहिए !

बहुत आवश्यकता पड़ने पर भी वृक्ष काटने का असली अधिकारी वही होता है जो वृक्ष लगा कर उसकी सुरक्षा और पालन भी करता है !

प्रश्न :- 4 आदमी के मुंह के अन्दर भेदक दांत (canine teeth) का कार्य भोजन को फाडकर खाने में होता है अतः ईश्वर ने भेदक दांत मांसाहार भोजन के लिए दिए हैं ।

उत्तर :- यह योग्य तर्क नहीं है । यह ऐसा ही है कि, जैसे हम इंसानों के पास भी नाखून हैं, तो हम इन्सान भी अन्य हिंसक जानवरों की तरह दूसरे इंसानों को नाखूनों से नोचे - खरोंचें । मनुष्य के पास भेदक दांत हैं मात्र इसीलिए वह मांसाहार भोजन करे, ऐसा बिल्कुल नहीं है ।

कुदरत ने जानवर दो प्रकार के बनाये हैं। शाकाहारी और मांसाहारी। शाकाहारी भोजन को चबा चबा कर खाते हैं इसलिये इनके दांत मोटे और समतल होते है जिनके बीच भोजन पिस जाता है। वहीं, मांसाहारी शिकार को चीड़ फाड़ कर खाते हैं और इस काम के लिये कुदरत ने उनके चार बड़े बड़े नोकीले दांत बनाये हैं। शाकाहारी पानी को मुंह से खींच कर पीते हैं परंतु मांसाहारी जानवर अपनी जीभ को लपलपा कर पानी पीते हैं।

उनके नाखून भी शाकाहारी जानवरों की अपेक्षा बड़े, मुड़े हुए और नोकिले होते हैं। साथ ही उनके जबडे बहुत मज़बूत होतें हैं और और मूंह भी उनके सर की तुलना मे अधिक खुल सकता है। मनुष्य भी एक सामाजिक प्राणी है, जिसके सब लक्षण शाकाहारी जानवरों से मिलते जुलते हैं, चाहे उसके दांत हों, नाखून या पानी पीने का तरीका ।

प्रश्न - 5 एक भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बशु ने यह सिद्ध किया था कि वृक्षो में जीवन होता है और वह सुख दुख कटने छिलने का एहसास कर सकते है ?

उत्तर - -मेरे भोले भाई , वृक्षो में जीवन तो होता है लेकिन तंत्रिका तंत्र न होने उंन्हे दर्द नही होता है , ऐसी अनेको रिसर्च से आधुनिक विज्ञानं का पिटारा भरा हुआ है , जो सिद्ध करता है की पेड़ पौधों में बुद्धि और नर्वस सिस्टम और मस्तिष्क नहीं होता इसलिए उन्हें दर्द की अनुभूति नहीं हो सकती है ।_

हा यह सत्य है कि कुछ वृक्ष अपनी पत्तियों के माध्यम से केमिकल उत्सर्जन करके कीड़ो के होने का पता लगा लेते है । लेकिन यह दर्द नही होता है ।

यह केवल एक रसायन शास्त्र है , जैसे आपकी त्वचा सूरज के सम्पर्क में आने पर मेलामाइन के उत्सर्जन की गति बढ़ जाती है । आप अगर इन पौधों की पत्तियों को काट देंगे तो यह कोई भी केमिकल स्त्रावित नही करेगा ।

इजराइल के Tel Aviv University के Professor Daniel Chamovitz, Dean of the Faculty of Life Sciences संकाय में Plant Scientist रहे है , जिन्होंने अपने रिसर्च के दौरान व्यापक अनुसंधान के पश्चात पाया कि , “a plant can’t suffer subjective pain in the absence of a brain.

“Plants don't have pain receptors"

उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है 'What a Plant Knows'.

प्रश्न 6 - विज्ञान कहता है कि दही , जल आदि में भी सूक्ष्म जीवाणु होते जिन्हें पान करने से क्या जीव हत्या नही होता ?

उत्तर :- दही मे बेक्टीरिया का पाया जाना एक नेचुरल प्रकिया है । दही मे बेक्टीरिया ऊपर से नही डाले जाते है ।

वही दुसरी तरफ हम देखे तो  गाय,भेंस ,बकरा ,मुर्गा आदि जानवरो को उनकी इच्छा के विरुद्ध मारा जाता हे। बङे जानवर रोते हे ,जीवन की भीख मांगते है , भागते है । जबकी सूक्ष्मजीव रोते धोते भी नही है । यह तो इतने सूक्ष्म होते है कि अपने आप मरते जीते रहते है ।

ऐसे जीव जिन्हे हम बिना यंत्र की सहायता से नहीं देख सकते सूक्ष्मजीव कहलाते हैं | इनमे भी तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क का अभाव होता है ।

सूक्ष्मजीवों को चार मुख्य वर्गों में बांटा गया है |

1.जीवाणु (Bacteria)

2.कवक (Fungi)

3.शैवाल (Algae)

4.प्रोटोजोआ (Protozoa)

दुसरी तरह दही , जल , हवा का सेवन करना आपको सवेंदना शुन्य नही बनाता जबकी जानवरो को मार के खाना निहायत ही क्रुर प्रकिया है ।

हम सांस लेते और छोड़ते हैं उसमें भी हजारों जीवाणु जो हमारी सांस के साथ अन्दर चले जाते हैं और मर जाते हैं । लेकिन यह प्राकृतिक है इसमे वैर भाव , हिंसा आदि नही है ।

आपको जानकर हैरत होगी कि हमारे शरीर में कुल जितनी कोशिकाएं हैं, उनमें से 90 प्रतिशत तो बैक्टीरियाज की हैं, जोकि हमारी आहार नली के सही पीएच वाले पोषक वातावरण में पलते हैं। सूक्ष्मजीवों को प्रो-बायोटिक कहते हैं और जिस अपचनीय कार्बोहाइड्रेट पर वे पलते हैं, उसे प्री-बायोटिक कहते हैं । सूक्ष्मजीव जो हमारे लिए लाभजनक होते है और जिनका उपयोग विभिन्न कार्यों में किया जाता है मित्रवत सूक्ष्मजीव कहलाते है ।

लेकिन चुकी यह प्राकृतिक और वैरभाव से रहित है अतः यह जीव हत्या न है । कुछ सूक्ष्मजीवविज्ञानी सूक्ष्मजीव को सजीव व निर्जीव' के बीच की सीमा मानते हैं ।

अनादि काल से मानव घी, दूध, दही एवं वनस्पति का ही भोजन करता आया है, माना कि समय-समय पर इसके सम्बन्ध में विपरीत विचार भी उपस्थित हुए हैं. लेकिन तात्कालिक विद्वानों नें अपने-अपने ग्रन्थों में भोजन सम्बन्धी इस नवीन "माँसभोजी मान्यता" का खंडन ही किया है न कि समर्थन ।

महर्षि दयानन्द जी ने दुःख का कारण असत्य भाषणादि कर्मों को लिखा है । अहिंसा का स्थान यमों में सत्य से प्रथम है । क्योंकि –

“तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः”

अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी त्याग), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – पांच यमों में महर्षि योगिराज पतञ्जलि ने अहिंसा को सर्वप्रथम स्थान दिया है । इसे सार्वभौम धर्म माना है ।

महर्षि दयानन्द जी ने बहुत बलपूर्वक लिखा है –

“जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गौ आदि पशुओं को मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुये हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ोतरी होती जाती है ।”

मांसाहार कभी धर्मानुसार मनुष्य का भोजन नहीं हो सकता । मांसाहारी ऋतभुक् नहीं हो सकता क्योंकि बिना किसी प्राणी के प्राण लिये मांस की प्राप्ति नहीं होती और किसी निरपराध प्राणी को सताना, मारना, उसके प्राण लेना ही हिंसा है और हिंसा से प्राप्त हुई भोग की सामग्री भक्ष्य नहीं होती । महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं –

“जितना हिंसा और चोरी, विश्वासघात, छलकपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और अहिंसा, धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है ।”

मनु जी महाराज ने तो आठ कसाई लिखे हैं –

अनुमन्ता, विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥५१॥

सम्मति देने वाला, अंग काटने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, खाने वाले – ये सब घातक हैं । अर्थात् मारने वाले आठ कसाई होते हैं ।_

ऐसे हिंसक कसाई अधर्मियों के लोक परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं । मनु जी लिखते हैं –

योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।

स जीवंश्च मृत्श्चैव न क्वचित् सुखमेधते ॥

अर्थ :- जो अहिंसक निर्दोष प्राणियों को खाने आदि के लिये अपने सुख की इच्छा से मारता है वह इस लोक और परलोक में सुख नहीं पाता । क्योंकि पापी अधर्मी को कभी सुख नहीं मिलता । पाप का ही तो फल दुःख है । हिंसक से बढ़कर पापी कोई नहीं होता । इसलिये अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा को परम धर्म कहा है और इसीलिये यमों में अहिंसा का सर्वप्रथम स्थान है ।

नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् ।

न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥

अर्थ :- प्राणियों की हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं होता है अर्थात् मांस की प्राप्ति नहीं होती और प्राणियों का वध वा हिंसा स्वर्गकारक नहीं है अर्थात् दुःखदायी है । निरपराध प्राणियों के प्राण लेकर अपने पेट को भरना अथवा अपनी जिह्वा का स्वाद पूर्ण करना घोर अन्याय और महापाप है और पाप का फल दुःख है । सभी महापुरुषों, सन्त-साधु, महात्माओं तथा धार्मिक ग्रन्थों में मांसाहार की निन्दा की है तथा इसे वर्जित तथा निषिद्ध ठहराया है ।

इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम् ।

त्वष्टुं प्रजानां प्रथम जनित्रमग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन् ॥

(यजुर्वेद अ० १२, मन्त्र ४०)

इन ऊन रूपी बालों वाले भेड़, बकरी, ऊंट आदि चौपाये, पक्षी आदि दो पग वालों को मत मार ।

यदि नो गां हमि यद्यश्वं यदि पूरुषम् ।

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ॥

(अथर्ववेद १।१६।)

यदि हमारी गौ, घोड़े पुरुष का हनन करेगा तो तुझे शीशे की गोली से बेध देंगे, मार देंगे जिससे तू हननकर्त्ता न रहे । अर्थात् पशु, पक्षी आदि प्राणियों के वध करने वाले कसाई को वेद मारने की आज्ञा देता है ।

धन्वन्तरीय निघन्टु में लिखा है –

पथ्यं रसायनं बल्यं हृद्यं मेध्यं गवां पयः ।

आयुष्यं पुंस्त्वकृद् वातरक्तविकारानुत् ॥१६४)

(सुवर्णादिः षष्ठो वर्यः)

गोदुग्ध पथ्य सब रोगों तथा सब अवस्थाओं (बचपन, युवा तथा वृद्धावस्था) में सेवन करने योग्य रसायन, आयुवर्द्धक, बलकारक, हृदय के लिये हितकारी, मेधा बुद्धि को बनाने वाला, पुंस्त्वशक्ति अर्थात् वीर्यवर्द्धक, वात तथा रक्तपित्त के विकारों रोगों को दूर करनेवाला है।

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