रामचन्द्रजी और कृष्ण भगवान के स्वरूप में यही अन्तर दिखता है कि राम धनुर्धारी थे और कृष्ण के सिर पर मोरपंख सुशोभित होता था।
भगवान श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है।उनके धनुष का नाम कोदंड था।
एक बार समुद्र पार करने का जब कोई मार्ग नहीं समझ में आया तो भगवान श्रीराम ने समुद्र को अपने तीर से सुखाने की सोची और उन्होंने तरकश से अपना तीर निकाला ही था और प्रत्यंचा पर चढ़ाया ही था कि समुद्र के देवता वरुणदेव प्रकट हो गए और उनसे प्रार्थना करने लगे थे:
एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥3॥
भावार्थ: इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए।कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात् बाण से उन दुष्टों का वध कर दिया)॥3॥
अत: जो वाण भगवान श्रीरामचंद्र ने धनुष पर चढाकर प्रत्यंचा खींचा था उसे पुन: तरकश में नहीं रखा अपितु उसे समुद्र देव के कहने पर उत्तर दिशा की ओर छोड दिया जहाँ पर समुद्र देव के कहे अनुसार दुष्टों का निवास था।यह उत्तर दिशा का क्षेत्र कोई और नहीं आज के खाडी देश की बंजर भूमि है जहाँ अग्निवाण के प्रभाव से आजतक कुछ भी उगता नहीं है।
रामचन्द्र जी ने अपने धनुष और बाण का उपयोग बहुत मुश्किल वक्त में ही किया।
देखि राम रिपु दल चलि आवा। बिहसी कठिन कोदण्ड चढ़ावा।।
अर्थात शत्रुओं की सेना को निकट आते देखकर श्रीरामचंद्रजी ने हंसकर कठिन धनुष कोदंड को चढ़ाया।
कोदंड का अर्थ होता है बांस से निर्मित।कोदंड एक चमत्कारिक धनुष था जिसे हर कोई धारण नहीं कर सकता था।
कोदंड नाम से भिलाई में एक राम मंदिर भी है जिसे 'कोदंड रामालयम मंदिर' कहा जाता है।भगवान श्रीराम ने दंडकारण्य में 10 वर्ष से अधिक समय तक भील,वनवासी और आदिवासियों के बीच रहकर उनकी सेवा की थी।
कोदंड की खासियत :
कोदंड एक ऐसा धनुष था जिसका छोड़ा गया बाण लक्ष्य को भेदकर ही वापस आता था।एक बार की बात है कि देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत ने श्रीराम की शक्ति को चुनौती देने के उद्देश्य से अहंकारवश कौवे का रूप धारण किया और सीताजी को पैर में चोंच मारकर लहू बहाकर भागने लगा।
तुलसीदासजी लिखते हैं कि जैसे मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह पाना चाहती हो उसी प्रकार से उसका अहंकार बढ़ गया था।
।।सीता चरण चोंच हतिभागा। मूढ़ मंद मति कारन कागा।।
।।चला रुधिर रघुनायक जाना। सीक धनुष सायक संधाना।।
वह मूढ़ मंदबुद्धि जयंत कौवे के रूप में सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भाग गया।
जब रक्त बह चला तो रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर तीर चढ़ाकर संधान किया।अब तो जयंत जान बचाने के लिए भागने लगा।
वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया,पर इन्द्र ने भी उसे श्रीराम का विरोधी जानकर अपने पास नहीं रखा। तब उसके हृदय में निराशा से भय उत्पन्न हो गया और वह भयभीत होकर भागता फिरा,लेकिन किसी ने भी उसको शरण नहीं दी,क्योंकि रामजी के द्रोही को कौन हाथ लगाए?
जब नारदजी ने जयंत को भयभीत और व्याकुल देखा तो उन्होंने कहा कि अब तो तुम्हें प्रभु श्रीराम ही बचा सकते हैं। उन्हीं की शरण में जाओ।
तब जयंत ने पुकारकर कहा- 'हे शरणागत के हितकारी, मेरी रक्षा कीजिए प्रभु श्रीराम।'तो श्रीराम ने उसको क्षमा कर दिया।
पता नहीं इस खबर में कितनी सच्चाई है।यह ज्ञात हुआ कि एक वर्ष पूर्व रामचन्द्र जी का धनुष कोदंड खुदाई में मिला,जिसके चित्र नेट पर वायरल हुए।
सचमुच हमारी भारतीय संस्कृति की बातें और दृष्टान्त इतने रोचक हैं कि इनको जानकर गर्व का अनुभव होता है।
जहाँ राम हैं,वहाँ धनुष की बात होनी स्वाभाविक है।धर्म की स्थापना और अधर्म की पराजय में उनके धनुष कोदंड का बहुत बड़ा योगदान रहा।
आज भी किसी औषधि के लिए राम बाण औषधि इसीलिए कहा जाता है |
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