Tuesday, December 31, 2019

श्रीमद् भागवत गीता के अनुसार, भोजन के गुण क्या हैं?

जय गुरु देव #BeVegetarian

प्रश्न 1- आहार के कितने प्रकार है ?

उत्तर : - आहार तीन प्रकार के होते है -

राजसिक, तामसिक और सात्विक

मनुष्य के जीवन का तीनों का अलग-अलग प्रभाव पड़ता है।

सात्विक , वह आहार जिसमें सत्व गुण की प्रधानता हो , अर्थात् वैर भाव अथवा किसी को पीड़ा पहुचाकर न प्राप्त किया गया हो ,सात्विक आहार कहलाता है।_

आयुर्वेद में कहा गया है कि सात्विक आहार के सेवन से मनुष्य का जीवन सात्विक बनता है।

छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है , कि

आहारशुद्धौ सत्तवशुद्धि: ध्रुवा स्मृति:। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:॥

अर्थात आहार शुद्ध होने से अंत:करण शुद्ध होता है और इससे ईश्वर में स्मृति दृढ़ होती है। स्मृति प्राप्त हो जाने से हृदय की अविद्या जनित सभी गांठे खुल जाती हैं ।

【1】सात्विक भोजन - ये हमारे मन को शांति प्रदान करता है और पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं। इसमें फल, सब्जियां, दूध (कम मात्रा में और ज्यादा गरम नहीं) , मक्खन, पनीर, शहद, बादाम, जौ, गेंहू, दालें, चावल आदि शामिल हैं। इसमें सब सादे और हलके पदार्थ, जोकि कम मात्रा में खायें जाएं आते है।

श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में इसकी इस प्रकार पुष्टि की है 

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६-१७॥

यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, यथोचित कर्म करनेवाले, उचित मात्रा में निद्रा (सोने और जागने) का यह योग दुःखनाशक होता है । शुद्ध आहार-विहार करने वाले मनुष्य के सब दुःख दूर हो जाते हैं ।

【2】राजसिक भोजन - ये हमारे मन को बहुत चंचल बनाता है , तथा उसे संसार की ओर प्रवृत करता है , इसमें अण्डे, मछली, केसर, पेस्ट्री, नमक, मिर्च, मसाले आदि तथा सब उत्तेजक पदार्थ जैसे चाय, काफी, और ज्यादा मात्रा में खाया गया खाना आता है।

【3】तामसिक भोजन - ये हमारे अंदर आलस, क्रोध,आदि उत्पन्न करता है। इसमें मांस, शराब, तम्बाकू, मादक पदार्थ, भारी और बासी खाना आते हैं। वास्तव में किसी भी भोजन की बहुत ज्यादा मात्रा तामसिक प्रभाव रखती है।

राजसिक और तामसिक भोजन से बुरे विचार उत्पन्न होते हैं । सात्विक भोजन से शुद्ध विचार आते हैं। शुद्ध विचारों से चरित्र अच्छा बनता है और परमात्मा के प्रेम के लिए अच्छा चरित्र बहुत जरूरी है। परमात्मा के प्रेम के बिना कोई आत्मिक उन्नित नहीं हो सकती ।

प्रश्न 2 : - पशु , पक्षी , वृक्ष आदि सभी इंसान के भोजन के लिए बनाए गए है , क्योकि मानव एक मांसाहारी जीव है ?

उत्तर - यदि पशु , पक्षी , मनुष्य के भोजन के लिए बनाये गए होते तो आपके दांत नाख़ून , पंजे , पेट की आंत भोजन नली आदि सब हिंसक जानवरो पशुओ जैसी होती जबकि ऐसा नहीं है ।

दुनिया में सभी मनुष्य शाकाहारी है , क्योंकि बिना शाक गेहू ज्वर बाजरा सरसो मूली टमाटर कुछ नहीं बना सकते न खा ही सकते इसलिए दुनिया का कोई मनुष्य अपने को शाकाहारी नहीं हु ऐसा सैद्धांतिक तौर पर नहीं कह सकता ।

इसलिए शाकाहारी तो सभी हैं मांसभक्षी भी शाकाहार ही खाता है , क्योंकि सभी मनुष्य मांस नहीं खाते इसलिए वो अपने को मांसाहारी भी कहता है और बिना शाकाहार उसका मांस व्यर्थ है इसलिए क्यों नहीं शाकाहार अपनाया जाये ?

मनुष्य बिना मांस खाये सारा जीवन बिता सकता है लेकिन केवल मांस के सहारे अपना पूरा जीवन नहीं बिता सकता है ।

प्रश्न 3 : - विज्ञान वृक्ष आदि में भी जीवन मानता है , तो क्या इसे जीव हत्या नही मानते हो ?

उत्तर - देखिए जब हम पेड़ से आम तोड़ते या धान गेहू की फसल काटते तो कोई भागता नहीं है , क्योंकि वो भागने के लिए बनाये ही नहीं और इसमें हिंसा भी नहीं हुई क्योंकि वैर भाव नहीं था वो जीवो के भोजन हेतु ही बनाये गए हैं ।_

जैसा कि राजा द्वारा न्याय के लिए अपराधी अथवा युद्धकाल में दिया गया प्राणदण्ड हिंसा नही होता उसी तरह त्यक्त भाव से प्रकृति की सम्पत्ति का उपयोग करने में भी हिंसा नही होता है क्योकि इसमे वैर भाव नही होता है ।

ईशोपनिषद में भी कहा गया है ,

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्. तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विध्दनम् ।।

जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है । मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे ।

सारे वृक्षों को खाने की अनुमति ईश्वर ने मनुष्यों को नहीं दी है। *और न ही हम प्राणियों को महासुषुप्ति अवस्था में परिवर्तित करके उन्हें मारकर खा सकते है।*

किसी मोटर कंपनी का इंजिनीयर निर्धारित करता है कि इस मोटर के इंजिन के लिये कौन सा इंधन चलेगा । पेट्रोल, डीज़ल आदि । मोटर का उपभोक्ता अर्थात् मोटर को चलानेवाला नहीं । वैसे ही जिस ईश्वर रूपी Engineer ने इस मनुष्यरूपी मोटर बनायी है, वही ईश्वर निर्धारित करेगा कि इस मनुष्य के जठर रूपी इंजिन में कौन सा इंधन डलेगा । इसी प्रकार इस मनुष्य शरीर का उपभोक्ता जीवात्मा यह निश्चय नहीं कर सकता कि मैं मांस खाऊ अथवा फल-फूल-सब्जी आदि ।

पोंधो में आत्मा की स्थिति महा सुषुप्ति की होती हैं अर्थात सोये हुए के समान, अगर किसी पशु का कत्ल करे तो उसे दर्द होता हैं, वो रोता हैं, चिल्लाता हैं मगर किसी पोंधे को कभी दर्द होते, चिल्लाते नहीं देखा जाता ,जैसे कोमा के मरीज को दर्द नहीं होता हैं उसे प्रकार पोंधो को भी उखाड़ने पर दर्द नहीं होता हैं , उसकी उत्पत्ति ही खाने के लिए ईश्वर ने की हैं ।

सबसे महत्वपूर्ण बात हैं की शाकाहारी भोजन प्रकृति के लिए हानिकारक नहीं हैं ।

संख्या दर्शन 5/27 में लिखा हैं ,

की पीड़ा उसी जीव को पहुँचती हैं जिसकी वृति सब अवयवों के साथ विद्यमान हो अर्थात सुख दुःख की अनुभूति इन्द्रियों के माध्यम से होती हैं ,

जैसे अंधे को कितना भी चांटा दिखाए , बहरे को कितने

भी अपशब्द बोले तो उन्हें दुःख नहीं पहुँचता वैसे ही वृक्ष आदि भी इन्द्रियों से रहित हैं ।

अत: उन्हें दुःख की अनुभूति नहीं होती ।

इसी प्रकार बेहोशी की अवस्था में हिंसा का अनुभव नहीं होता उसी प्रकार वृक्ष आदि में

भी आत्मा को मूर्च्छा अवस्था के कारण दर्द अथवा कष्ट नहीं होता हैं , और यहीं कारण हैं की दुःख की अनुभूति नहीं होने से वृक्ष आदि को काटने, छिलने, खाने से कोई पाप नहीं होता और इससे जीव हत्या का कोई भी सम्बन्ध नहीं बनता. भोजन का ईश्वर कृत विकल्प केवल और केवल शाकाहार हैं और इस व्यवस्था में कोई पाप नहीं होता । जबकि मांसाहार पाप का कारण हैं ।

जितना वैर भाव की हिंसा और चोरी , विश्वासघात, छलकपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और वैरभाव , दारुण भाव से हीन धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है ।

वही दूसरी ओर वृक्ष को काटने पर रक्त नहीं निकलता क्योकि उनमे तंत्रिका तंत्र नही होता और *वृक्ष काटने के बाद भी हरे भरे हो सकते हैं । पर जीवों को काटने पर रक्त निकलता है और इलाज ना हो तो जीव मर भी सकता है !

हर जीव अपने ऊपर हो रहे हमले को महसूस कर बचाव के लिए कुछ न कुछ करता है पर वृक्ष ऐसा नहीं करते !

हर जीव जिन्दा नर और मादा के समागम से ही विशिष्ट काल में बच्चेदानी या अन्डे से पैदा होतें है जबकि वृक्ष के बीज को गमले में बोये या खेत में, पानी पाने पर उग ही जातें है !

हर जीव में वातावरण में गति करने के लिए अंग (जैसे पैर, पंख आदि) और महसूस करने के लिए अंग (जैसे आँख, नांक आदि) जरूर होते है पर वृक्ष में नहीं होते हैं !

हर जीव अपने भोजन की तलाशी का प्रयास खुद ही करता है पर वृक्ष अपने भोजन (प्रकाश, पानी, खाद आदि) के लिए पूरी तरह से आजीवन प्रकृति, इन्सान या अन्य जीवों की दया पर निर्भर है !_

तो ये रहे भौतिक कारण जो ये साबित करते हैं वनस्पतियाँ और जीव जन्तु एकदम अलग अलग चीज हैं और रही बात ये जानने की मनुष्य स्वाभाविक तौर पर शाकाहारी जीव है की माँसाहारी, तो इसको भी साबित करने के पचासों सबूत हैं जैसे मिसाल की तौर पर मानवों के पेट में पाए जाने वाला अंग जो सिर्फ शाकाहारी जानवरों में पाया जाता है, मानवों की दांतों की बनावट जो की सिर्फ शाकाहारी जानवरों (जैसे गाय, घोड़े आदि) से मिलती है जबकि सारे मांसाहारी जानवरों दांत नुकीले होते हैं (जैसे शेर, कुत्ते आदि के) !

फलो और सब्जियों में रक्त और मांस नही होता उसमे रस होते है कोई ये नही कहता की फलो का मांस खाओ इसलिये दोष तो केवल मांस और रक्त के खाने में है ।

कोई कहता की मांस नही होता है , वृक्षो का मॉस तो गूदा ही होता है अगर ऐसा है तो रसगुल्ला और गुलाब जामुन में भी गूदा होता है । तब तो वहा भी मांस होता होगा ??  इसलिए जहाँ रक्त नही वहाँ मांस कहाँ होगा ?

अपने भोग विलास के लिए या पैसा कमाने के लिए वृक्षों को काटना बहुत बड़ा पाप होता है ! वृक्ष, पौधों, वनस्पतियों को बिना किसी विशेष जरूरत के काटने पर वृक्ष का कोई भला तो होता नहीं बल्कि वृक्ष का श्राप जरूर लगता है जो की काटने वाले आदमी की जिन्दगी में कई समस्याएं पैदा कर सकता है ! इसलिए सिर्फ अत्यन्त आवश्यक जरूरत पड़ने पर ही वृक्ष को काटना चाहिए !

बहुत आवश्यकता पड़ने पर भी वृक्ष काटने का असली अधिकारी वही होता है जो वृक्ष लगा कर उसकी सुरक्षा और पालन भी करता है !

प्रश्न :- 4 आदमी के मुंह के अन्दर भेदक दांत (canine teeth) का कार्य भोजन को फाडकर खाने में होता है अतः ईश्वर ने भेदक दांत मांसाहार भोजन के लिए दिए हैं ।

उत्तर :- यह योग्य तर्क नहीं है । यह ऐसा ही है कि, जैसे हम इंसानों के पास भी नाखून हैं, तो हम इन्सान भी अन्य हिंसक जानवरों की तरह दूसरे इंसानों को नाखूनों से नोचे - खरोंचें । मनुष्य के पास भेदक दांत हैं मात्र इसीलिए वह मांसाहार भोजन करे, ऐसा बिल्कुल नहीं है ।

कुदरत ने जानवर दो प्रकार के बनाये हैं। शाकाहारी और मांसाहारी। शाकाहारी भोजन को चबा चबा कर खाते हैं इसलिये इनके दांत मोटे और समतल होते है जिनके बीच भोजन पिस जाता है। वहीं, मांसाहारी शिकार को चीड़ फाड़ कर खाते हैं और इस काम के लिये कुदरत ने उनके चार बड़े बड़े नोकीले दांत बनाये हैं। शाकाहारी पानी को मुंह से खींच कर पीते हैं परंतु मांसाहारी जानवर अपनी जीभ को लपलपा कर पानी पीते हैं।

उनके नाखून भी शाकाहारी जानवरों की अपेक्षा बड़े, मुड़े हुए और नोकिले होते हैं। साथ ही उनके जबडे बहुत मज़बूत होतें हैं और और मूंह भी उनके सर की तुलना मे अधिक खुल सकता है। मनुष्य भी एक सामाजिक प्राणी है, जिसके सब लक्षण शाकाहारी जानवरों से मिलते जुलते हैं, चाहे उसके दांत हों, नाखून या पानी पीने का तरीका ।

प्रश्न - 5 एक भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बशु ने यह सिद्ध किया था कि वृक्षो में जीवन होता है और वह सुख दुख कटने छिलने का एहसास कर सकते है ?

उत्तर - -मेरे भोले भाई , वृक्षो में जीवन तो होता है लेकिन तंत्रिका तंत्र न होने उंन्हे दर्द नही होता है , ऐसी अनेको रिसर्च से आधुनिक विज्ञानं का पिटारा भरा हुआ है , जो सिद्ध करता है की पेड़ पौधों में बुद्धि और नर्वस सिस्टम और मस्तिष्क नहीं होता इसलिए उन्हें दर्द की अनुभूति नहीं हो सकती है ।_

हा यह सत्य है कि कुछ वृक्ष अपनी पत्तियों के माध्यम से केमिकल उत्सर्जन करके कीड़ो के होने का पता लगा लेते है । लेकिन यह दर्द नही होता है ।

यह केवल एक रसायन शास्त्र है , जैसे आपकी त्वचा सूरज के सम्पर्क में आने पर मेलामाइन के उत्सर्जन की गति बढ़ जाती है । आप अगर इन पौधों की पत्तियों को काट देंगे तो यह कोई भी केमिकल स्त्रावित नही करेगा ।

इजराइल के Tel Aviv University के Professor Daniel Chamovitz, Dean of the Faculty of Life Sciences संकाय में Plant Scientist रहे है , जिन्होंने अपने रिसर्च के दौरान व्यापक अनुसंधान के पश्चात पाया कि , “a plant can’t suffer subjective pain in the absence of a brain.

“Plants don't have pain receptors"

उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है 'What a Plant Knows'.

प्रश्न 6 - विज्ञान कहता है कि दही , जल आदि में भी सूक्ष्म जीवाणु होते जिन्हें पान करने से क्या जीव हत्या नही होता ?

उत्तर :- दही मे बेक्टीरिया का पाया जाना एक नेचुरल प्रकिया है । दही मे बेक्टीरिया ऊपर से नही डाले जाते है ।

वही दुसरी तरफ हम देखे तो  गाय,भेंस ,बकरा ,मुर्गा आदि जानवरो को उनकी इच्छा के विरुद्ध मारा जाता हे। बङे जानवर रोते हे ,जीवन की भीख मांगते है , भागते है । जबकी सूक्ष्मजीव रोते धोते भी नही है । यह तो इतने सूक्ष्म होते है कि अपने आप मरते जीते रहते है ।

ऐसे जीव जिन्हे हम बिना यंत्र की सहायता से नहीं देख सकते सूक्ष्मजीव कहलाते हैं | इनमे भी तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क का अभाव होता है ।

सूक्ष्मजीवों को चार मुख्य वर्गों में बांटा गया है |

1.जीवाणु (Bacteria)

2.कवक (Fungi)

3.शैवाल (Algae)

4.प्रोटोजोआ (Protozoa)

दुसरी तरह दही , जल , हवा का सेवन करना आपको सवेंदना शुन्य नही बनाता जबकी जानवरो को मार के खाना निहायत ही क्रुर प्रकिया है ।

हम सांस लेते और छोड़ते हैं उसमें भी हजारों जीवाणु जो हमारी सांस के साथ अन्दर चले जाते हैं और मर जाते हैं । लेकिन यह प्राकृतिक है इसमे वैर भाव , हिंसा आदि नही है ।

आपको जानकर हैरत होगी कि हमारे शरीर में कुल जितनी कोशिकाएं हैं, उनमें से 90 प्रतिशत तो बैक्टीरियाज की हैं, जोकि हमारी आहार नली के सही पीएच वाले पोषक वातावरण में पलते हैं। सूक्ष्मजीवों को प्रो-बायोटिक कहते हैं और जिस अपचनीय कार्बोहाइड्रेट पर वे पलते हैं, उसे प्री-बायोटिक कहते हैं । सूक्ष्मजीव जो हमारे लिए लाभजनक होते है और जिनका उपयोग विभिन्न कार्यों में किया जाता है मित्रवत सूक्ष्मजीव कहलाते है ।

लेकिन चुकी यह प्राकृतिक और वैरभाव से रहित है अतः यह जीव हत्या न है । कुछ सूक्ष्मजीवविज्ञानी सूक्ष्मजीव को सजीव व निर्जीव' के बीच की सीमा मानते हैं ।

अनादि काल से मानव घी, दूध, दही एवं वनस्पति का ही भोजन करता आया है, माना कि समय-समय पर इसके सम्बन्ध में विपरीत विचार भी उपस्थित हुए हैं. लेकिन तात्कालिक विद्वानों नें अपने-अपने ग्रन्थों में भोजन सम्बन्धी इस नवीन "माँसभोजी मान्यता" का खंडन ही किया है न कि समर्थन ।

महर्षि दयानन्द जी ने दुःख का कारण असत्य भाषणादि कर्मों को लिखा है । अहिंसा का स्थान यमों में सत्य से प्रथम है । क्योंकि –

“तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः”

अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी त्याग), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – पांच यमों में महर्षि योगिराज पतञ्जलि ने अहिंसा को सर्वप्रथम स्थान दिया है । इसे सार्वभौम धर्म माना है ।

महर्षि दयानन्द जी ने बहुत बलपूर्वक लिखा है –

“जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गौ आदि पशुओं को मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुये हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ोतरी होती जाती है ।”

मांसाहार कभी धर्मानुसार मनुष्य का भोजन नहीं हो सकता । मांसाहारी ऋतभुक् नहीं हो सकता क्योंकि बिना किसी प्राणी के प्राण लिये मांस की प्राप्ति नहीं होती और किसी निरपराध प्राणी को सताना, मारना, उसके प्राण लेना ही हिंसा है और हिंसा से प्राप्त हुई भोग की सामग्री भक्ष्य नहीं होती । महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं –

“जितना हिंसा और चोरी, विश्वासघात, छलकपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और अहिंसा, धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है ।”

मनु जी महाराज ने तो आठ कसाई लिखे हैं –

अनुमन्ता, विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥५१॥

सम्मति देने वाला, अंग काटने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, खाने वाले – ये सब घातक हैं । अर्थात् मारने वाले आठ कसाई होते हैं ।_

ऐसे हिंसक कसाई अधर्मियों के लोक परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं । मनु जी लिखते हैं –

योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।

स जीवंश्च मृत्श्चैव न क्वचित् सुखमेधते ॥

अर्थ :- जो अहिंसक निर्दोष प्राणियों को खाने आदि के लिये अपने सुख की इच्छा से मारता है वह इस लोक और परलोक में सुख नहीं पाता । क्योंकि पापी अधर्मी को कभी सुख नहीं मिलता । पाप का ही तो फल दुःख है । हिंसक से बढ़कर पापी कोई नहीं होता । इसलिये अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा को परम धर्म कहा है और इसीलिये यमों में अहिंसा का सर्वप्रथम स्थान है ।

नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् ।

न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥

अर्थ :- प्राणियों की हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं होता है अर्थात् मांस की प्राप्ति नहीं होती और प्राणियों का वध वा हिंसा स्वर्गकारक नहीं है अर्थात् दुःखदायी है । निरपराध प्राणियों के प्राण लेकर अपने पेट को भरना अथवा अपनी जिह्वा का स्वाद पूर्ण करना घोर अन्याय और महापाप है और पाप का फल दुःख है । सभी महापुरुषों, सन्त-साधु, महात्माओं तथा धार्मिक ग्रन्थों में मांसाहार की निन्दा की है तथा इसे वर्जित तथा निषिद्ध ठहराया है ।

इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम् ।

त्वष्टुं प्रजानां प्रथम जनित्रमग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन् ॥

(यजुर्वेद अ० १२, मन्त्र ४०)

इन ऊन रूपी बालों वाले भेड़, बकरी, ऊंट आदि चौपाये, पक्षी आदि दो पग वालों को मत मार ।

यदि नो गां हमि यद्यश्वं यदि पूरुषम् ।

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ॥

(अथर्ववेद १।१६।)

यदि हमारी गौ, घोड़े पुरुष का हनन करेगा तो तुझे शीशे की गोली से बेध देंगे, मार देंगे जिससे तू हननकर्त्ता न रहे । अर्थात् पशु, पक्षी आदि प्राणियों के वध करने वाले कसाई को वेद मारने की आज्ञा देता है ।

धन्वन्तरीय निघन्टु में लिखा है –

पथ्यं रसायनं बल्यं हृद्यं मेध्यं गवां पयः ।

आयुष्यं पुंस्त्वकृद् वातरक्तविकारानुत् ॥१६४)

(सुवर्णादिः षष्ठो वर्यः)

गोदुग्ध पथ्य सब रोगों तथा सब अवस्थाओं (बचपन, युवा तथा वृद्धावस्था) में सेवन करने योग्य रसायन, आयुवर्द्धक, बलकारक, हृदय के लिये हितकारी, मेधा बुद्धि को बनाने वाला, पुंस्त्वशक्ति अर्थात् वीर्यवर्द्धक, वात तथा रक्तपित्त के विकारों रोगों को दूर करनेवाला है।

भागवत गीता में कौन सी बातें हैं जिनकी पुष्टि आज का आधुनिक विज्ञान करता है?

आप यकीन मानो या मत मानो लेकिन आज भी दुनिया के कई महान रिसर्च भगवत गीता को पढ़ते हैं। किसी धार्मिक मकसद के लिए नहीं बल्कि एक प्योर साइंस बुक की तरह। और ऐसी बहुत सारी थ्योरी हैं जिसे आप भगवत गीता में कहीं बातों से रिलेट कर सकते हो।

आपसे विनम्र निवेदन है इस आर्टिकल को एकदम लास्ट तक पढ़िएगा, इसे थोड़ा सा छोड़िएगा मत, क्योंकि मैं चाहता हूं कि आप इसे अच्छे से समझिये, और भगवत गीता को एक नए नजरिए से देखने की कोशिश कीजिये। क्योंकि भले ही आपका भगवान जैसे कोई शक्ति पर भरोसा हो या ना हो लेकिन आपको यह तो पता ही होगा कि हमारे रोज के जीवन में बहुत सारे प्रॉब्लम के सलूशन इस पवित्र बुक में मौजूद है, जिन समस्याओं को लेकर हम काफी परेशान रहते हैं। आप लोगों में से जो लोग भी धार्मिक नहीं हैं उन लोगों से मैं सिर्फ एक बात कहना चाहता हूं कि आज आप इस बुक को किसी धर्म की बुक की तरह मत देखना, आप इसे एक नॉर्मल बुक समझो, जिसे हजारों साल पहले लिखा गया था।

दोस्तों वैसे तो गीता को साइकोलॉजी के लिए बहुत ही अच्छी बुक मानी जाती है। लेकिन लोगों को यह नहीं पता है कि इसमें आपको बायोलॉजी, फिजिक्स, मैथ और एस्ट्रोलॉजी जैसे कई टॉपिक के बारे में कई ऐसी बातें हैं जिन के बेस पर बड़ी-बड़ी खोज यानी की डिस्कवरी हुई है। शुरू करने से पहले मैं एक बात और क्लियर कर दूं कि मैं जो भी बातें इस मे बताऊंगा, आप तुरंत जजमेंटल होकर यानी अपनी कोई भी धारणा बनाने से पहले “मेरी लिखी हुई बातों को ध्यान से पढ़ना” और फिर अपना ओपिनियन यानी राय या सुझाव नीचे हमारे कमेंट बॉक्स में मेंशन करना। तो चलिए शुरू करते हैं….

1. थर्मोडायनेमिक्स लॉ

फर्स्ट लॉ ऑफ थर्मोडायनेमिक्स कहता है एनर्जी को ना तो बनाया जा सकता है और ना ही खत्म किया जा सकता है। उसे बस हम एक फॉर्म से दूसरे फॉर्म में कन्वर्ट कर सकते हैं, यानी कि बदल सकते हैं, जिसे हम कंजर्वेशन ऑफ एनर्जी भी बोलते हैं। एग्जांपल के लिए आपने जनरेटर देखा होगा। उसमें एक मैग्नेटिकपर क्वायल लगी रहती है। जब जनरेटर मैकेनिकलई ही घूमता है तो उसके साथ ओ मैग्नेटिक क्वायल भी घूमती है, और उसी से इलेक्ट्रिसिटी पैदा होती है। यानी वह मैकेनिकल एनर्जी को इलेक्ट्रिक एनर्जी में कन्वर्ट करता है, इस ला को गीता में कुछ इस तरह से बताया गया है…..

भगवत गीता के अध्याय 2 श्लोक 23 में लिखा है कि हमारी आत्मा यानी कि ‘सोल एनर्जी’ कभी खत्म नहीं होती, वह बस अपना शरीर बदलती है। अब अगर आप सोच रहे हो कि यहां तो आत्मा की बात हो रही है, तो इसका एनर्जी से क्या लेना देना। यार आत्मा भी तो एक एनर्जी ही हैं। ‘मॉडर्न साइंस’ भी इसे एक एनर्जी ही मानता है जो कि हमारे मरने के बाद हमारे बॉडी से रिलीज होती है। अब चाहे वह बड़े अमाउंट में हो या फिर बहुत ही छोटे अमाउंट में, लेकिन कोई तो ऐसी एनर्जी है जो हमारे बॉडी से रिलीज होती है। इसे बहुत ध्यान से समझो….. क्योंकि इतने सालों पहले किसी ने यह आईडिय यानी कि इस थ्योरी का बेस दिया था। जिसे आज मॉडिफाई रूप से आप ‘कंजर्वेशन ऑफ एनर्जी’ बोलते है।

2. मेडिटेशन

चाइना और जापान के कुछ ऐसे मेडिटेशन टेक्निक्स हैं जिससे हम अपने सब कॉन्शियस माइंड को कंट्रोल कर सकते हैं। या फिर हम इसे डेली रूटीन में प्रयोग करके अपने स्ट्रेस यानी तनाव, गुस्से और फोकस ना रह पाने की प्रॉब्लम को दूर कर सकते हैं। और अपने ‘पीस ऑफ माइंड’ यानी कि अपने मन को शांत करके अपनी प्रॉब्लम का सलूशन ढूंढ सकते हैं। लेकिन भगवत गीता के अध्याय 6 जिसका नाम है “ध्यान योगा” उसमें इन टेक्निक्स की सारी डिटेल और उसके फायदे बताए गए हैं। ऐसी टेक्निक्स जिसे चाइना और जापान अपना बताते हैं। असल में वह सभी साइंटिफिक टेक्निक को गीता के चैप्टर 6 में बहुत ही अच्छे से समझाया गया है।

3. आर्टिफिशियल लाइफ

भगवत गीता में लिखा है…. अहम वीजा प्रदाह पिता

इसका मतलब है कि इस दुनिया की सारी जिंदगी यानी लाइफ किसी एक दूसरे लाइफ से पैदा होती है, यानी ‘स्पोंटेनियस जनरेशन’ जैसी कोई भी चीज नहीं होती है। स्पोंटेनियस जनरेशन का मतलब “ऐसी जिंदगी जो किसी ‘नॉन लिविंग’ यानी मटेरियल से पैदा हुई है” उदाहरण के लिए एक ऐसा लिविंग सेल जो किसी नॉन लिविंग थिंग यानी एक मशीन से पैदा हुआ हो तो उसे हम स्पोंटेनियस जनरेशन कहेंगे।

अब आप में से कुछ लोगों ने इस थ्योरी के बारे में सुना होगा जिसमें यह बताया गया है कि लाइफ मैटर से क्रिएट की जा सकती है। लेकिन सबसे पहले मैं आपको बतला दूं कि यह कोई थ्योरी नहीं है,वल्कि यह एक हाइपोथिसिस है यानी कि यह सिर्फ एक कल्पना है। किसी ने आज तक यह प्रूफ नहीं किया है की लाइफ को मैटर से क्रिएट किया जा सकता है। बल्कि एक साइंटिस्ट लुइस पाश्चर( Louis Pasteur) ने अपनी ‘थ्योरी ऑफ स्पोंटेनियस जनरेशन’ में यह दिखाया है की स्पोंटेनियस जनरेशन से लाइफ नहीं बनाई जा सकती। उन्होंने ही सबसे पहले ‘पैसराईजेसन टेक्निक्स’ को खोजा था।

उन्होंने दूध को उबालकर पैसेराइज कर दिया यानी कि उसमें से सभी जीवित चीजों को निकाल दिया। जिसकी वजह से वह दूध काफी महीनों तक खराब नहीं होता था, यानी कि उसमें कोई फंगस नहीं पड़ता था। दोस्तों फंगस एक तरह का लिविंग बैक्टीरिया होता है, इस एक्सपेरिमेंट से उन्होंने यह साबित किया कि लाइफ स्पोंटेनियस जनरेशन से नहीं बनाई जा सकती। और भगवत गीता में भी यह बात कही गई है।

4. सिमुलेशन

‘एलोन मस्क’ और ‘स्टीफन हॉकिंस’ जैसे बड़े फ्यूचरिस्टिक यानी कि हमेशा दूर की सोचने वाले लोगों ने यह कहा है कि हमारी दुनिया एक मायाजाल यानी एक सिमुलेशन हो सकती है। सिमुलेशन का मतलब होता है दोस्तों, जहां हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं की कहीं हमारी यह दुनिया एक सिमुलेशन यानी कंप्यूटर प्रोग्राम तो नहीं है। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने इस दुनिया को एक मायाजाल यानी मैट्रिक्स बताया है। उनके कहने के मुताबिक यह हुआ है वह इस दुनिया के प्रोग्रामर है। और यह यूनिवर्स एक कंप्यूटर प्रोग्राम है। और यैसे बहुत सारे यूनिवर्स यानी कंप्यूटर प्रोग्राम मौजूद हैं, जिसके लिए अलग-अलग डेवलपर्स हैं।

लोगों का ऐसा भी कहना है कि जब ब्रह्मा जी को घमंड हुआ था कि उन्होंने इस दुनिया का निर्माण किया है। तब श्री भगवान् कृष्ण ने अलग-अलग ब्रह्मा जी को बुलाकर उनका यह भ्रम तोड़ा था। यानी कि उन्होंने अलग-अलग ब्रह्मांड के डेवलपर्स को बुलाया था।

मल्टी यूनिवर्स की थ्योरी भगवत गीता में हजारों साल पहले ही बताई गई थी। जिसे आज साइंटिस्ट एक बहुत स्ट्रांग हाइपोथिसिस मानते हैं। जैसे हमारी दुनिया से सभी कंप्यूटर किसी नेटवर्क से जुड़े हुए होते हैं, उसी तरह अलग-अलग यूनिवर्स यानी कंप्यूटर प्रोग्राम भी आपस में किसी नेटवर्क से जुड़े हुए हैं। और उस नेटवर्क का नाम है ब्लैक होल।

‘मल्टी यूनिवर्स’ और ‘पैरेलल यूनिवर्स’ हाइपोथिसिस में यह माना गया है कि कोई भी चीज ‘ब्लैक होल’ में चला जाती है तो वह किसी दूसरे कंप्यूटर सिमुलेशन यानि किसी दूसरे यूनिवर्स में चली जाती हैं।

क्या आपने कभी सोचा था भगवत गीता में इतनी एडवांस थ्योरी का भी वर्णन हो सकता है। ऐसे और भी बहुत सारी बातें हैं जो साइंस और साइकोलॉजी के फील्ड में गीता में कही गई सभी बातों को सही साबित करती है। आपको शायद यह बात पता नहीं होगी की भगवत गीता सिर्फ हिंदी में ही नहीं बल्कि इंग्लिश, जापानीज, चाइनीस, जर्मन और बहुत सारे लैंग्वेज में पब्लिश हो चुकी है। और हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हमारे पास एक ऐसे ज्ञान का भंडार है जिसे पूरी दुनिया जानना चाहती है।

मगर भारत में लोग “भगवत गीता” को एक धार्मिक किताब समझते हैं और इसीलिए ओ यह सोचते हैं कि उसमें बस भगवान और उनकी ही बातें लिखी होगी। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है।

आज तो मैंने आपको गीता और साइंस के बीच के रिलेशन का 0.1 पर्सेंट भी नहीं बताया है। गीता में बहुत सारी बातें लिखी हैं जो आज साइंस ने साबित करी हैं। और अगर आपको अपनी लाइफ के कुछ बड़े डिसीजन लेने हैं या फिर किसी ऐसे प्रॉब्लम का सलूशन निकालना है जो आपका पीछा ही नही छोड़ रही तो, आपको गीता पढ़ना जरूर शुरू करना चाहिए। अगर आप उसमें लिखी सभी बातों को समझ गए, तो आपके पास कोई भी ऐसा सवाल नहीं बचेगा जिसका जवाब आपके पास नहीं होगा।

Sunday, December 29, 2019

कलयुग कितने समय तक चलेगा? कलयुग का अंत कैसे होगा?

ऐसे होगा कलयुग का अंत :-

हमारे वेदों के अनुसार हम सभी अज्ञानता और अनैतिकता जिस युग में रह रहे हैं,उसे कलयुग के नाम से जाना जाता है पुराणों के अनुसार माना जाता है कि कलयुग का प्रारंभ 3102 ईसा पूर्व पहले ही हो चुका था। जब 5 ग्रह मंगल,बुध,शुक्र,बृहस्पति और शनि मेष राशि पर 0 डिग्री पर हो गए थे। उस समय तक भगवान श्री कृष्ण का युग खत्म हो चुका था। दोस्तों आपको बता दें,कि कलयुग से पहले सतयुग,त्रेता युग और द्वापरयुग का समय था।

ब्रह्म वैवर्त पुराण की माने तो कलयुग का युग सबसे अत्याचारी युग माना जाता है। सृष्टि के आरंभ में सतयुग से शुरुआत हुई थी। और कलयुग पर सृष्टि का अंत होगा, ऐसा वर्णित है। माना जाता है यह सारे युग एक चक्र में चलते रहते हैं सतयुग से लेकर कलयुग तक।

पुराणों में कहा गया है कि कल युग में स्त्री और पुरुषों में आध्यात्मिकता का अभाव होता चला जाएगा। और उनमें नैतिकता का भी अंत हो जाएगा कलयुग में इंसान पर लालच,दुराचार तृष्णा,क्रोध,वासना,स्वार्थ जैसी बेकार की आदतें हावी हो जाएगी। अर्थात यह सब आदतें इंसान की मूल प्रवृत्ति बन जाएगी। सतयुग की अपेक्षा में कलयुग में लोगों की अच्छाई एक चौथाई हो जाएगी।

ब्रह्मवैवर्तपुराण में कलियुग के शुरुआत से लेकर अंत तक जुड़ी सारी बातों को विस्तार पूर्वक लिखा गया है। आज में आपको ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखे गए कलयुग के अंत से जुड़ी बातों के कुछ अंश को बता हु।

ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार अभी का युग कलयुग चल रहा है। और इसके 5000 वर्ष पहले द्वापर युग की समाप्ति हुई थी। अभी कलयुग में अधर्म फैलना स्टार्ट हो गया है। अभी के समय में एक इंसान दूसरे इंसान पर भरोसा करना बंद कर दिया है। और जब इंसान को खुद पर ही भरोसा नहीं,तो वह धर्म ग्रंथों पर विश्वास कैसे करेगा। पुराणों के अनुसार कलयुग में एक समय ऐसा भी आएगा, जब इंसान की उम्र बहुत कम रह जाएगी। युवावस्था समय से पहले समाप्त हो जाएगी। आने वाले समय में मनुष्य की उम्र 20 वर्ष तक की हो जाएगी। हमारे धर्म ग्रंथों में इस सृष्टि के आरंभ से अंत तक को लेकर चार युगो अर्थात सतयुग,त्रेतायुग, द्वापरयुग,कलियुग में बांटा गया है। कलयुग का अंत समय से लेकर अनेक धर्म ग्रंथों में कई रोचक और रहस्यमई बातें लिखी गई है।

ज्योतिष ग्रंथ सूर्य सिद्धांत में बताया गया है कि कलयुग 4,32,000 वर्ष तक पृथ्वी पर कायम रहेगा।

पुराणों के अनुसार देवताओं के इन दिव्य वर्षो के आधार पर चार युगों को मानव सौर वर्षों के अवधि में कुछ इस प्रकार से बांटा गया है।

1.सतयुग 4800 (दिव्य वर्ष) 17 लाख 28 हजार (सौर वर्ष)

2.त्रेता युग 3,600 (दिव्य वर्ष) 12 लाख 96 हजार 100 (सौर वर्ष)

3.द्वापर युग 2400 (दिव्य वर्ष) 8 लाख 64 हज़ार (सौर वर्ष)

4.कलयुग 1200 (दिव्य वर्ष) 4 लाख 32 हज़ार (सौर वर्ष)

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग में लोगों के बाल 16 घर की आयु में ही सफ़ेद हो जाएंगे। और वह 20 वर्ष की आयु में ही बूढ़े हो जाएंगे। युवा अवस्था समाप्त हो जाएगी। और आज यह बात सच भी प्रतीत होती नज़र आ रही है। क्योंकि प्राचीन काल में इंसानों की औसत उम्र करीब 100 वर्ष के करीब हुआ करती थी। उस काल में 100 वर्ष से भी अधिक जीने वाले लोग हुआ करते थे। लेकिन आज के समय में इंसान की औसत उम्र बहुत ही कम (60-70 वर्ष) तक ही हो गई है। और भविष्य में इंसानों की उम्र में और भी ज्यादा कमी आने की संभावनाएं बहुत अधिक है। क्योंकि पृथ्वी पर प्राकृतिक वातावरण बहुत ही ज्यादा बिगड़ रहा है। हम सब की दिनचर्या असंतुलित होती जा रही है।

पुराने काल में लंबी उम्र के बाद ही लोगों के बाल सफेद हुआ करते थे। लेकिन आज के समय में युवा अवस्था में ही स्त्री और पुरुष दोनों के बाल सफेद हो जाते हैं। आजकल जवानी के दिनों में ही लोगों को बुढापे के रोग होने लगते हैं।

पुरुष हो जाएंगे स्त्रियों के अधीन

भगवान श्री हरि विष्णु ने स्वयं महर्षि नारद जी को बताया है की कलयुग में एक समय ऐसा आएगा जब सभी पुरुष स्त्रियों के अधीन होकर अपना जीवन व्यतीत करेंगे। 

गंगा भी लौट जाएगी बैकुंठ धाम को

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग के 5000 साल बाद गंगा नदी सुख जाएगी। और देवी गंगा पुनः बैकुंठ धाम लौट जाएगी।

जब कलयुग के 10 हजार वर्ष होंगे,तब सभी देवी-देवता पृथ्वी को छोड़कर अपने-अपने धाम लौट जाएंगे। कलयुग में इंसान पूजा,कर्म,व्रत-उपवास और सभी धार्मिक काम करना बंद कर देंगे। क्योंकि उस समय तक हिंसा और पाप पृथ्वी के लोगों पर अपना एकाधिकार जमा चुकी होगी।

अन्न और फल भी खत्म हो जाएगा

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग में एक समय ऐसा भी आएगा जब जमीन से अन्न उपजना भी बंद हो जाएगा। पेड़ों पर फल नहीं लगेंगे।और धीरे धीरे यह सभी चीजें विलुप्त हो जाएगी।

गाय दूध दे ना बंद कर देगी

 ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग में एक समय ऐसा भी आएगा जब गाय अपना अमृत समान दूध देना भी बंद कर देगी।

समाज हिंसक हो जाएगा

कलयुग में जो लोग बलवान होंगें,उनका ही राज चलेगा। इस युग में मानवता नष्ट हो जाएगी। और सारा समाज हिंसक खो जाएगा। सारे रिश्ते खत्म हो जाएंगे। एक भाई दूसरे भाई का शत्रु बन जाएगा।

कलयुग में लोग अनैतिक चीजें देखने,सुनने और पढ़ने लगेंगे। इस युग में लोग शास्त्रों से बिमुख हो जाएंगे। समाज में लोगों के द्वारा बुरी बातें और बुरे शब्दों का ही व्यवहार किया जाएगा। लोगों की पसंद अनैतिक साहित्य ही हो जाएगी।

पुरुष और स्त्री दोंनो हो जाएंगे अधर्मी

कलयुग में ऐसा समय भी आएगा जब स्त्री और पुरुष दोनों ही अधर्मी हो जाएंगे। स्त्रियां पतिव्रत धर्म का पालन करना बंद कर देगी,और पुरुष भी ऐसा ही करेंगे। स्त्री और पुरुषों से संबंधित सभी वैदिक नियम समाप्त हो जाएंगे।

चोर और अपराधियों की बढ़ोतरी हो जाएगी

 इस काल में चोर और सिपाहियों की संख्या इतनी अधिक बढ़ जाएगी,कि आम इंसान ठीक से अपना जीवन नहीं जी पाएगा। लोग एक दूसरे के प्रति हिंसक खो जाएंगे,और सभी के मन में पाप और बुराई प्रवेश कर जाएगा।

भगवान करेंगे कल्कि अवतार लेकर अधर्मी का विनाश

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग के अंतिम समय में भगवान श्री हरि विष्णु कल्कि अवतार में इस पृथ्वी पर जन्म लेंगे। भगवान का यह दिव्य अवतार विष्णुयशा नामक ब्राह्मण के घर में होगा।

भगवान श्री हरि विष्णु कल्कि अवतार लेकर केवल तीन दिनों में ही पृथ्वी से समस्त अधर्मी लोगों का नाश कर देंगे। और बहुत सालों तक संपूर्ण विश्व पर शासन कर,धर्म की स्थापना करेंगे।

युग के अंत में ऐसे आएगा प्रलय

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग के अंत समय में पृथ्वी पर बहुत मोटी धारा से लगातार वर्षा होगी। जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी पर चारों ओर पानी ही पानी हो जाएगा,और समस्त प्राणियों का अंत हो जाएगा।

इसके बाद 1,70,0000 वर्षो का संधि काल (एक युग के अंत दूसरे युग के प्रारंभ के बीच के समय को संधिकाल कहते हैं) होगा। संधि काल के अंतिम चरण में एक साथ पृथ्वी पर 12 सूर्य उदय होंगे। और उनके तेज से संपूर्ण प्रथ्वी सुख जाएगी। और पुनः सतयुग का प्रारंभ होगा।

दोस्तो ब्रह्म वैवर्त पुराण कहता है,कि ब्रम्हांड में असंख्य विश्व विद्वान हैं। और प्रतीक विश्व के अपने-अपने त्रिदेव अर्थात ब्रहमा विष्णु महेश हैं।

इन सभी विश्व से ऊपर गोलोक में भगवान श्री कृष्ण निवास करते हैं।

ब्रह्म वैवर्त पुराण के चार खंड है

ब्रह्म खंड,प्राकृतिक खंड,गणपति खंड और श्री कृष्ण जन्म खंड।

इन चारों खंडों में 218 अध्याय हैं।

 भगवान श्री कृष्ण ने भगवत गीता का ज्ञान देते हुए अर्जुन को भी कहा था कि जब जब पृथ्वी पर धर्म की हानि और अधर्मीयों का अधर्म बढ़ता है,तब तब वह स्वयं पृथ्वी पर अवतार लेकर इस पृथ्वी को पापों से मुक्त करते हैं। और पुनः धरती पर धर्म की स्थापना करते हैं। तो कलयुग में जब अधर्म अपने चरम सीमा पर होगी। तब फिर से भगवान इस पृथ्वी पर कल्कि अवतार लेंगे,और पृथ्वी पर अधर्म का नाश कर के पुनः धर्म की स्थापना करेंगे।

Tuesday, December 24, 2019

शकुनि के पासे उसका कहना कैसे मानते थे? आखिर इन जादुई पांसों का क्या रहस्य था?

गांधार देश के राजा के 100 पुत्र और एक पुत्री थी. पुत्री का नाम गांधारी और सबसे छोटे पुत्र का नाम शकुनि था. ज्योतिषियों के अनुसार गांधारी की जन्म कुंडली में प्रथम पति की मृत्यु का योग था. इस दुर्घटना को टालने के लिए उन्होंने एक सुझाव दिया. गांधारी की शादी एक बकरे से कर दी जाये, बाद में बकरे को मार दिया जाये. इससे कुंडली की बात सिद्ध हो जाएगी और बाद में गांधारी की दूसरी शादी कर दी जाये. ऐसा ही हुआ।

जब गांधारी की शादी के लिए धृतराष्ट्र का रिश्ता आया तो शकुनि को यह जरा भी पसंद नहीं आया. शकुनि का मत था कि धृतराष्ट्र जन्मांध है और उनका सारा राजपाट तो उनके भाई पांडु ही देखते हैं. शकुनि ने अपना मत दिया पर होनी को कौन टाल सकता है. गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से हुआ और वो हस्तिनापुर आ गयीं

किस्मत का खेल, न जाने कहाँ से धृतराष्ट्र और पांडु को गांधारी के प्रथम विवाह का पता चल गया. उन्हें बड़ा क्रोध आया कि यह बात उनसे छुपायी क्यों गयी और गांधारी एक तरह से तो विधवा ही थी. इस बात से चिढ़कर उन्होंने गांधारी के पिता सहित 100 भाइयों को पकड़कर जेल में डाल दिया.

चूंकि धर्म के अनुसार युद्ध बंदियों को जान से मारा नहीं जा सकता, अतः धृतराष्ट्र और पांडु ने गांधारी के परिवार को भूखा रखकर मारने की सोची. इसलिए वो गांधारी के बंदी परिवार को हर रोज केवल एक मुट्ठी अनाज दिया करते थे. गांधारी के भाई, पिता समझ गए कि यह उन्हें तिल-तिलकर मारने की योजना है. उन्होंने निर्णय लिया कि एक मुट्ठी अनाज से तो किसी का सबका जीवन क्या बचेगा, अतः क्यों न यह एक मुट्ठी अनाज सबसे छोटे लड़के शकुनि को खिला दिया जाये. कम से कम एक की तो जान बचेगी.

शकुनि के पिता ने मरने से पहले उससे कहा कि – मेरे मरने के बाद मेरी हड्डियों से पासा बनाना, ये पांसे हमेशा तुम्हारी आज्ञा मानेंगे, तुमको जुए में कोई हरा नहीं सकेगा. शकुनि ने अपने आँखों के सामने अपने भाइयों, पिता को मरते देखा था. शकुनि के मन में धृतराष्ट्र के प्रति गहरी बदले की भावना थी.
बोलने और व्यवहार में चतुर शकुनि अपनी चालाकी से बाद में जेल से छूट गया और दुर्योधन का प्रिय मामा बन गया. आगे चलकर इन्हीं पांसों का प्रयोग करके शकुनि ने अपने 100 भाइयों की मौत का बदला दुर्योधन और उसके 100 भाइयों के विनाश की वृहत योजना बनाकर लिया।

नोट : शकुनि की इस कहानी का वर्णन वेद व्यास कृत महाभारत में नहीं है. यह कहानी बहुत से लोककथाओं, जनश्रुतियों में आती है. प्रसिद्ध लेखक देवदत्त पटनायक ने अपनी पुस्तक जया में भी इसका वर्णन किया है. बहुत से विद्वानों का मत है कि शकुनि के पासे हाथीदांत के बने हुए थे, लेकिन शकुनि मायाजाल और सम्मोहन में महारथी था. जब पांसे फेंके जाते थे तो कई बार उनके निर्णय पांडवों के पक्ष में होते थे, लेकिन शकुनि की भ्रमविद्या से उन्हें लगता कि वो हार गये हैं।

Sunday, December 15, 2019

महाभारत के योद्धाओं के ये 7 गुप्त रहस्य बहुत ही काम लोग ही जानते होंगे।

महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखा गया महाभारत इतना विशाल और रहस्यमय है की इसकी संपूर्ण जानकारी आज तक शायद ही किसी को होगी। हर किसी के मन में महाभारत की कहानी जानने की इच्छा होती है। इसे कोई जितना पड़ता है वह इसके बारे में और उतना ही और ज्यादा जानना चाहता है। महाभारत में हर पात्र की अपनी एक अलग कहानी है। महाभारत ग्रंथ, ज्ञान के साथ-साथ बहुत सरे अनसुलझे रहस्योँ से भरा हुआ है। तो चलिए अपने आज के पोस्ट” Secret of Mahabharat in Hindi” में हम आप सबको महाभारत युद्ध में लड़ाई करने वाले योद्धाओं से जुड़े का 7 ऐसे रहस्य(Secret of Mahabharat in Hindi) के बारे में बताते हैं, जिनके बारे में बहुत ही कम लोग जानते होंगे।

पहला रहस्य – हर योद्धा किस न किसी का अवतार या दिव्य पुत्र था

भगावान श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार थे तो बलराम शेषनाग के अंश थे। आठ वसुओं में से एक ‘द्यु’ नामक वसु ने ही भीष्म के रूप में जन्म लिया था। देवगुरु बृहस्पति ने ही द्रोणाचार्य के रूप में जन्म लिया था। अश्वत्थामा रुद्र के अंशावतार थे। दुर्योधन कलियुग का तथा उसके 100 भाई पुलस्त्य वंश के राक्षस के अंश थे। सूर्यदेव के पुत्र कर्ण, इंद्र के पुत्र अर्जुन, पवन के पुत्र भीम, धर्मराज के पुत्र युधिष्ठिर और 2 अश्विनीकुमारों नासत्य और दस्त्र के पुत्र नकुल और सहदेव थे।

रुद्र के एक गण ने कृपाचार्य के रूप में जन्म लिया। द्वापर युग के अंश से शकुनि, अरिष्टा के पुत्र हंस नामक गंधर्व ने धृतराष्ट्र तथा पाण्डु के रूप में जन्म लिया। सूर्य के अंश धर्म ही विदुर के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुंती और माद्री के रूप में सिद्धि और धृतिका का जन्म हुआ था। मति का जन्म राजा सुबल की पुत्री गांधारी के रूप में हुआ था। राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मणी के रूप में लक्ष्मीजी व द्रौपदी के रूप में इंद्राणी उत्पन्न हुई थीं। अभिमन्यु चंद्रमा के पुत्र वर्चा का अंश था।

मरुतगण के अंश से सात्यकि, द्रुपद, कृतवर्मा व विराट का जन्म हुआ था। अग्नि के अंश से धृष्टधुम्न व राक्षस के अंश से शिखंडी का जन्म हुआ था। विश्वदेवगण द्रौपदी के पांचों पुत्र प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, शतानीक और श्रुतसेव के रूप में पैदा हुए थे।

दानवराज विप्रचित्ति जरासंध व हिरण्यकशिपु शिशुपाल का अंश था। कालनेमि दैत्य ने ही कंस का रूप धारण किया था।

इंद्र की आज्ञानुसार अप्सराओं के अंश से 16 हजार स्त्रियां उत्पन्न हुई थीं।

दूसरा रहस्य – विचित्र शक्तियों से संपन्न योद्धा

*सहदेव भविष्य में होने वाली हर घटना को पहले से ही जान लेते थे।

*बर्बरीक दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे। बर्बरीक के लिए तीन बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरवों और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। लेकिन श्रीकृष्ण युद्ध के पहे ही उसे भी ठीकाने लगा दिया। Secret of Mahabharat in Hindi

*संजय आज के दृष्टिकोण से वे टेलीपैथिक विद्या में पारंगत थे। कहते हैं कि गीता का उपदेश दो लोगों ने सुना, एक अर्जुन और दूसरा संजय।

*गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा हर विद्या में पारंगत थे। वे चाहते तो पहले दिन ही युद्ध का अंत कर सकते थे, लेकिन कृष्ण ने ऐसा कभी होने नहीं दिया।

*कर्ण से यदि कवच-कुंडल नहीं हथियाए होते, यदि कर्ण इन्द्र द्वारा दिए गए अपने अमोघ अस्त्र का प्रयोग घटोत्कच पर न करते हुए अर्जुन पर करता तो आज भारत का इतिहास और धर्म कुछ और होता।

*भीम में हजार हाथियों का बल था। युद्ध में भीम से ज्यादा शक्तिशाली उनका पुत्र घटोत्कच ही था। घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक था।

*माना जाता है कि कद-काठी के हिसाब से भीम पुत्र घटोत्कच इतना विशालकाय था कि वह लात मारकर रथ को कई फुट पीछे फेंक देता था और सैनिकों तो वह अपने पैरों तले कुचल देता था।

*शांतनु-गंगा के पुत्र भीष्म का नाम देवव्रत था। उनको इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था।

*दुर्योधन का शरीर वज्र के समान कठोर था, जिसे किसी धनुष या अन्य किसी हथियार से छेदा नहीं जा सकता था। लेकिन उसकी जांघ श्रीकृष्ण के छल के कारण प्राकृतिक ही रह गई थी।

*जरासंघ का शरीर दो फाड़ करने के बाद पुन: जुड़ जाता था। तब श्रीकृष्ण ने भीम को इशारों में समझाया की दो फाड़ करने के बाद दोनों फाड़ को एक दूसरे की विपरित दिशा में फेंक दिया जाए। 

तीसरा रहस्य – महाभारत में न तो कौरवों ने युद्ध लड़ा और न पांडवों ने

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि महाभारत में न तो कौरवों ने युद्ध लड़ा और न ही पांडवों ने। कौरव उसे कहते हैं जो कुरुवंश का हो। कुरुवंश के अंतिम योद्धा भीष्म ही थे। धतराष्ट्र के पुत्र कौरव और पांडु के पुत्र पांडव कहलाए जबकि पांडु का कोई पुत्र नहीं था। पांडु पत्नी कुंती और माद्री ने देवताओं का आह्वान किया था जिससे उन्हें पांच पुत्र उत्पन्न हुए थे। दूसरी ओर 100 कौरवों का जन्म वेद व्यास की कृपा से हुआ था। यह भी विदित हो कि वेद व्यास के के पिता की कृपा से ही अंबिका से धृतराष्ट्र और अंबालिका से पांडु का जन्म हुआ जबकि एक दासी से विदुर का जन्म हुआ था।

चौथा रहस्य – रहस्यमयी जन्म

महाभारत में किसी भी व्यक्ति का सामान्य रूप में जन्म नहीं हुआ। श्रीकृष्ण का जन्म जहां कारावास में बहुत कठिन परिस्थितियों में हुआ। वहीं, उससे पूर्व भीष्म का जन्म गंगा की शर्त के उल्लंघन स्वरूप हुआ। भीष्म ने जब ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ले ली तो वंश को आगे बढ़ाने का संकट उत्पन्न हुआ। शांतनु की दूसरी पत्नीं सत्यवती के दो पुत्र हुए। इसमें से जीवित बचे विचित्रवीर्य की 2 पत्नियां अम्बिका और अम्बालिका ने निगोद द्वारा अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और दासी से विदुर का जन्म हुआ।

इसी तरह धृतराष्ट्र और पाण्डु को जब कोई पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ तो फिर से यही वेदव्यास काम आए। अब आप सोचिए इन्हीं 2 पुत्रों में से एक धृतराष्ट्र के यहां जब कोई पुत्र नहीं हुआ तो वेदव्यास की कृपा से ही 99 पुत्र और 1 पुत्री का जन्म हुआ। दूसरी ओर पांडु की दो पत्नियां कुंती और माद्री थीं। दोनों से ही पांडु पुत्र उत्पन्न नहीं कर सके। तब कुंती ने क्रमश: धर्मराज, इन्द्र और पवनदेव का आह्वान किया तो युद्धिष्ठिर, अर्जुन भीम उत्पन्न हुए। उसी तरह माद्री ने दो अश्विन कुमारों का आह्वान किया तो उनसे नकुल और सहदेव उत्पन्न हुए।

इसी तरह द्रौपदी का जन्म भी एक रहस्य ही है। कहते हैं कि उसका असली नाम यज्ञसेनी है। यज्ञसेनी इसलिए कि वह यज्ञ से उत्पन्न हुई थी। दौपदी नाम महाराज द्रुपद की पुत्री होने के कारण था। इसी तरह गौतम ऋषि के पुत्र शरद्वान और शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य का जन्म भी एक रहस्य ही है। कृपाचार्य की माता का नाम नामपदी था। नामपदी एक देवकन्या थी। इन्द्र ने शरद्वान को साधना से डिगाने के लिए नामपदी को भेजा था। देवकन्या नामपदी (जानपदी) के सौंदर्य के प्रभाव से शरद्वान इतने कामपीड़ित हो गए कि उनका वीर्य स्खलित होकर एक सरकंडे पर गिर पड़ा। वह सरकंडा दो भागों में विभक्त हो गया जिसमें से एक भाग से कृप नामक बालक उत्पन्न हुआ और दूसरे भाग से कृपी नामक कन्या उत्पन्न हुई। यह कृप ही कृपाचार्य कहलाए। 

महर्षि भारद्वाज मुनि का वीर्य किसी द्रोणी (यज्ञकलश अथवा पर्वत की गुफा) में स्खलित होने से जिस पुत्र का जन्म हुआ, उसे द्रोण कहा गया। ऐसे भी उल्लेख है कि भारद्वाज ने गंगा में स्नान करती घृताची को देखा भारद्वाज ने गंगा में स्नान करती घृताची को देखा और उसे देखकर वे आसक्त हो गए जिसके कारण उनका वीर्य स्खलन हो गया जिसे उन्होंने द्रोण (यज्ञकलश) में रख दिया। बाद में उससे उत्पन्न बालक द्रोण कहलाया।

पांचवां रहस्य – महाभारत के ये उलझे हुए रिश्ते

महाभारत में द्रौपदी ही एकमात्र ऐसी स्त्री थीं जिसने पांच पुरुषों को अपना पति बनाया था। महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण के सखा थे अर्जुन। लेकिन अर्जुन ने जब श्रीकृष्ण की बहिन से विवाह किया तो वे उनके जीजा भी बन गए थे। श्रीकृष्ण का अर्जुन से ही नहीं बल्कि दुर्योधन से भी करीबी रिश्ता था। कृष्ण और जामवंती के पुत्र साम्ब ने दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा से विवाह किया था। इस तरह दुर्योधन और श्रीकृष्ण दोनों एक दूसरे के समधी थे। अर्जुन और सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु की पत्नी वत्सला बलराम की बेटी थी। अभिमन्यु का एक विवाह महाराज विराट की पुत्री उत्तरा से भी हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण की आठ पत्नियां में से एक अवंति के राजा जयसेन की बेटी मित्रविन्दा थी। पौराणिक मान्यता अनुसार मित्रविन्दा उनकी बुआ की बेटी थी।

छठा रहस्य – एक रात के लिए जी उठे सभी योद्धा

ऐसी मान्यता है कि महाभारत युद्ध में मारे गए सभी शूरवीर जैसे कि भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र, कर्ण, शिखंडी आदि एक रात के लिए पुनर्जीवित हुए थे। यह घटना महाभारत युद्ध खत्म होने के 15 साल बाद घटित हुई थी।

यह उस समय की बात है जब धृतराष्ट्र, कुंती, विदुर, गांधारी और संजय वन में रहते थे। वहां विदुरजी के प्राण त्यागने के बाद धृतराष्ट्र के आश्रम में महर्षि वेदव्यास आए। महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती से कहा कि आज मैं तुम्हें अपनी तपस्या का प्रभाव दिखाऊंगा। तुम्हारी जो इच्छा हो वह मांग लो। 

तब धृतराष्ट्र व गांधारी ने युद्ध में मृत अपने पुत्रों तथा कुंती ने कर्ण को देखने की इच्छा प्रकट की। द्रौपदी आदि ने कहा कि वे भी अपने परिजनों को देखना चाहते हैं। महर्षि वेदव्यास ने कहा कि ऐसा ही होगा। महर्षि वेदव्यास के कहने पर सभी गंगा तट पर एकत्रित हो गए और रात होने का इंतजार करने लगे।

रात होने पर महर्षि वेदव्यास ने गंगा नदी में प्रवेश किया और पांडव व कौरव पक्ष के सभी मृत योद्धाओं का आवाहन किया। थोड़ी ही देर में सभी योद्धा प्रकट हो गए महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र व गांधारी को दिव्य नेत्र प्रदान किए। अपने मृत परिजनों को देख सभी के मन में हर्ष छा गया। सारी रात अपने मृत परिजनों के साथ बिताकर सभी के मन में संतोष हुआ। अपने मृत पुत्र, भाई, पतियों और अन्य संबंधियों से मिलकर सभी का संताप दूर हो गया। इस प्रकार वह अद्भुत रात समाप्त हो गई। Mahabharat in Hindi

सातावं रहस्य – युद्ध के बाद बचे हुए लोगों का क्या हुआ?

लाखों लोगों के मारे जाने के बाद लगभग 24,165 कौरव सैनिक लापता हो गए थे जबकि महाभारत के युद्ध के पश्चात कौरवों की तरफ से 3 और पांडवों की तरफ से 15 यानी कुल 18 योद्धा ही जीवित बचे थे। युधिष्ठिर ने युद्ध के मैदान में ही सभी योद्धाओं का अंतिम क्रिया-कर्म करवाया था।

महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद कृतवर्मा, कृपाचार्य, युयुत्सु, अश्वत्थामा, युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, श्रीकृष्ण, सात्यकि आदि जीवित बचे थे। इसके अलावा धृतराष्ट्र, द्रौपदी, गांधारी, विदुर, संजय, बलराम, श्रीकृष्ण की पत्नियां आदि भी जीवित थे।

युद्ध के बाद शाप के चलते श्रीकृष्ण के कुल में भी आपसी युद्ध शुरू हुआ जिसमें श्रीकृष्ण के पुत्र आदि सभी मारे गए। बलराम ने यह देखकर समुद्र के किनारे जाकर समाधि ले ली। श्रीकृष्ण को प्रभाष क्षेत्र में एक बहेलिये ने पैर में तीर मार दिया जिसे कारण बनाकर उन्होंने देह त्याग दी। कृष्ण कुल का एकमात्र पुरुष वृज बचा था।

धृतराष्ट्र और गांधारी ने पांडवों के साथ रहते-रहते 15 साल गुजार दिए तब एक दिन भीम ने धृतराष्ट्र व गांधारी के सामने कुछ ऐसी बातें कह दी जिसे सुनकर उनके मन में बहुत शोक हुआ और दोनों वन चले गए। उनके साथ गांधारी, कुंती, विदुर और संजय भी वन में रहकर तप करने लगे। विदुर और संजय इनकी सेवा में लगे रहते और तपस्या किया करते थे। एक दिन युधिष्ठिर के वन में पधारने के बाद विदुर ने देह छोड़कर अपने प्राणों को युधिष्ठिर में समा दिया। 

फिर एक दूसरे दिन जब धृतराष्ट्र और अन्य गंगा स्नान कर आश्रम आ रहे थे, तभी वन में भयंकर आग लग गई। दुर्बलता के कारण धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती भागने में असमर्थ थे इसलिए उन्होंने उसी अग्नि में प्राण त्यागने का विचार किया और वहीं एकाग्रचित्त होकर बैठ गए। इस प्रकार धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया। संजय ने यह बात तपस्वियों को बताई और वे स्वयं हिमालय पर तपस्या करने चले गए। धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती की मृत्यु का समाचार जब महल में फैला तो हाहाकार मच गया। तब देवर्षि नारद ने उन्हें धैर्य बंधाया। युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक सभी का श्राद्ध-कर्म करवाया और दान-दक्षिणा देकर उनकी आत्मा की शांति के लिए संस्कार किए।

अंत में युधिष्ठिर अपना राजपाठ परीक्षित को सौंप कर द्रौपदी सहित अपने चारों भाइयों के साथ सशरीर स्वर्ग चले गए। स्वर्ग के मार्ग में युधिष्ठिर की एक मात्र जीवित बचे बाकी सभी एक-एक करके गिरते गए और मरते गए। अंत में युधिष्ठिर ही जीवीत ही स्वर्ग पहुंचे।

Monday, December 9, 2019

भगवान श्री कृष्ण के पाञ्चजन्य शंख का क्या रहस्य है?

भगवान श्री कृष्ण के पाञ्चजन्य शंख का रहस्य :

महाभारत में कृष्ण के पास पाञ्चजन्य, अर्जुन के पास देवदत्त, युधिष्ठिर के पास अनंतविजय, भीष्म के पास पोंड्रिक, नकुल के पास सुघोष, सहदेव के पास मणिपुष्पक था। सभी के शंखों का महत्व और शक्ति अलग-अलग थी।

शंखों की शक्ति और चमत्कारों का वर्णन महाभारत और पुराणों में मिलता है। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, शांति, यश, कीर्ति और लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शंख नाद का प्रतीक है। शंख ध्वनि शुभ मानी गई है। हालांकि प्राकृतिक रूप से शंख कई प्रकार के होते हैं। इनके 3 प्रमुख प्रकार हैं- दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। इन शंखों के कई उप प्रकार होते हैं।

पाञ्चजन्य का रहस्य

पाञ्चजन्य बहुत ही दुर्लभ शंख है। समुद्र मंथन के दौरान इस पाञ्चजन्य शंख की उत्पत्ति हुई थी।

समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से 6वां रत्न शंख था। अपने गुरु के पुत्र पुनरदत्त को एक बार एक दैत्य उठा ले गया। उसी गुरु पुत्र को लेने के लिए वे दैत्य नगरी गए। वहां उन्होंने देखा कि एक शंख में दैत्य सोया है। उन्होंने दैत्य को मारकर शंख को अपने पास रखा और फिर जब उन्हें पता चला कि उनका गुरु पुत्र तो यमपुरी चला गया है तो वे भी यमपुरी चले गए। वहां यमदूतों ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया तब उन्होंने शंख का नाद किया जिसके चलते यमलोक हिलने लगा।

फिर यमराज ने खुद आकर श्रीकृष्ण को उनके गुरु के पुत्र की आत्मा को लौटा दिया। भगवान श्रीकृष्ण बलराम और अपने गुरु पुत्र के साथ पुन: धरती पर लौट आए और उन्होंने गुरु पुत्र के साथ ही पाञ्चजन्य शंख को भी गुरु को समक्ष प्रस्तुत कर दिया। गुरु ने पाञ्चजन्य को पुन: श्रीकृष्ण को देते हुए कहा कि यह तुम्हारे लिए ही है। तब गुरु की आज्ञा से उन्होंने इस शंख का नाद कर पुराने युग की समाप्ति और नए युग का प्रारंभ किया।

पाञ्चजन्य शंख की शक्ति

भगवान कृष्ण के पास पाञ्चजन्य शंख था जिसकी ध्वनि कई किलोमीटर तक पहुंच जाती थी। कहते हैं कि महाभारत युद्ध में अपनी ध्वनि से पांडव सेना में उत्साह का संचार करने वाले इस शंख की ध्वनि से संपूर्ण युद्ध भूमि में शत्रु सेना में भय व्याप्त हो जाता था।

महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण अपने पाञ्चजन्य शंख से पांडव सेना में उत्साह का संचार ही नहीं करते थे बल्कि इससे कौरवों की सेना में भय व्याप्त हो जाता था। इसकी ध्वनि सिंह गर्जना से भी कहीं ज्यादा भयानक थी। इस शंख को विजय व यश का प्रतीक माना जाता है। इसमें 5 अंगुलियों की आकृति होती है। हालांकि पाञ्चजन्य शंख अब भी मिलते हैं लेकिन वे सभी चमत्कारिक नहीं हैं। इन्हें घर को वास्तुदोषों से मुक्त रखने के लिए स्थापित किया जाता है। यह राहु और केतु के दुष्प्रभावों को भी कम करता है।

वर्तमान में कहां है पाञ्चजन्य शंख?

कहते हैं कि यह शंख आज भी कहीं मौजूद है। इस शंख के हरियाणा के करनाल में होने के बारे में कहा जाता रहा है। माना जाता है कि यह करनाल से 15 किलोमीटर दूर पश्चिम में काछवा व बहलोलपुर गांव के समीप स्थित पराशर ऋषि के आश्रम में रखा था, जहां से यह चोरी हो गया। यहां हिन्दू धर्म से जुड़ीं कई बेशकीमती वस्तुएं थीं। 20 अप्रैल 2013 को इस शंख के चोरी होने की बात कही जाती है।

मान्यता के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के बाद अपना पाञ्चजन्य शंख पराशर ऋषि के तीर्थ में रखा था। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि श्रीकृष्ण का यह शंख आदि बद्री में सुरक्षित रखा है।

करीब 26 साल पहले कमरे की मरम्मत के दौरान यह अलमारी पता चली थी जिसमें अनेक बेशकीमती वस्तुएं मिली थीं। उनमें श्रीकृष्ण भगवान का पाञ्चजन्य शंख भी था। इसकी बनावट विशेष प्रकार की थी। इसमें फूंक एक तरफ से मारी जाती थी लेकिन आवाज 5 जगहों से निकलती थी। शंख को ग्रामीणों ने बजाने की बहुत कोशिश की किंतु कोई भी कामयाब नहीं हो सका।

Sunday, December 8, 2019

महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण ने अठारह दिन तक मूंगफली क्यों खाई थी ?

श्री कृष्ण भगवान विष्णु के आठवें अवतार थे, श्रीकृष्ण ने अपने पूरे जीवन काल मे बहुत सारी लीलायें की, प्रत्येक लीला के पीछे कोई ना कोई रहस्य छिपा होता था ।

महाभारत युद्ध के प्रत्येक दिन भगवान श्रीकृष्ण मूंगफली खाते तथा फिर युद्ध की ओर प्रस्थान करते। ये उनका रोज का नियम बन चुका था, युद्ध शुरू होने से पूर्व वे कुछ मूंगफलियां अपने मुंह में डाल लेते। वास्तव में भगवान श्री कृष्ण के मूंगफली खाने के पीछे एक गहरा रहस्य छिपा हुआ था, जिसे सिर्फ एक ही व्यक्ति जानता था और वे थे उडुपी राज्य के राजा।

अब कथा क्या है ये पढ़िये 👇

इस अनोखे रहस्य के पीछे कथा है कि जब पांडवों और कौरवोंं के बीच युद्ध छिड़ा तो दोनों पक्षो ने देश-विदेश के राजाओं को युद्ध में उनकी तरफ से सम्मिलित होने के लिए सन्देश भेजा। सूचना मिलते ही अनेक राजा युद्ध में सम्मलित होने पहुंच गए। इनमें से कुछ पांडवोंं तो कुछ कौरवोंं की ओर से युद्ध में उतरे। उन राजाओं में से एक राजा ऐसे भी थे जो किसी के पक्ष से न लड़ते हुए भी युद्ध में सम्मलित हुए। वे उडुपी राज्य के राजा उडुपी।

दरअसल उडुपी राज्य के राजा पांडवों या कौरवों किसी के पक्ष से नहीं लड़े। उन्होंने भगवान श्री कृष्ण से कहा की महाभारत के इस भीषण युद्ध में लाखों योद्धा शामिल होंगे और युद्ध करेंगे परन्तु शाम को युद्ध समाप्त होने के बाद जब ये वापस अपने शिविर में आएंगे तो इन्हें भोजन की आवश्यकता होगी। अतः हे वासुदेव श्री कृष्ण मैं चाहता हूं कि मैं पांडव एवम कौरव दोनों पक्षो के सैनिकों के लिए भोजन का प्रबंध करूं।

भगवान श्री कृष्ण राजा की इस बात से बेहद प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा उडुपी को आज्ञा दे दी, लेकिन अब राजा उडुपी के सामने एक नई समस्या उतपन्न हो गई। समस्या यह थी की कैसे निश्चित किया जाए की हर दिन युद्ध समाप्त होने के पश्चात सैनिकों के लिए कितना खाना बनाया जाए, क्योकि युद्ध में हर दिन अनेकों सैनिक मारे जाते थे। ऐसे में यदि किसी दिन कम खाना बनाया जाए तो उस दिन सैनिक भूखे मर जाएंगे और जिस दिन यदि खाना ज्यादा बन जाए तो बर्बाद होने पर अन्नपूर्णा का अपमान होगा।

उन्होंने भगवान श्री कृष्ण के समक्ष जाकर अपनी समस्या रखी। श्री कृष्ण यह सुनकर और ज्यादा खुश हुए ऐसी दशा में राजा को अन्नपूर्णा की कितनी फिक्र है। उन्होंने इस समस्या को सुलझाने के लिए कहा की महाभारत युद्ध के दौरान हर दिन मैं मूंगफली के कुछ दाने खाऊंगा। मुगफली के जितने दाने मैं एक दिन में खाऊंगा समझ लेना उतने हजार सैनिक उस दिन युद्ध में मारे जाएंगे। इस तरह भगवान श्री कृष्ण ने राजा उडुपी के सामने एक बहुत बड़ा रहस्य खोलकर रख दिया। कहा जाता है कि जिस कारण से युद्ध में सैनिकों को पर्याप्त भोजन खाने को मिला और एक भी दिन भोजन बर्बाद नहीं हुआ।

Saturday, December 7, 2019

गीता में स्थितप्रज्ञ क्या है?

श्रीमद भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण जी अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि पार्थ तुम भी आत्मिक योगबल के द्वारा अपनी अंतरात्मा में झांककर परमात्मा को देखने के प्रयास करो, समबुद्धि कर्मयोग का आचरण करो और स्थितप्रज्ञ बन जाओ।

अर्जुन पूछते है - हे मधुसूदन! ये स्थितप्रज्ञ क्या होता है ? इसे समझाओ!

कृष्ण कहते हैं - पार्थ! दु:ख भोगते हुए भी जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और ना ही जो सुख की लालसा रखता है तथा जिसके हृदय में क्रोध,मोह,भय आदि विकारों के लिए कोई स्थान नहीं होता। वो मनुष्य स्थित प्रज्ञ है।

दुःखेष्वद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।

वीतरागभयक्रोध स्थितधीक्षैनिरुच्यते ॥

अर्थ :- दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है।

अर्जुन बोला - समझाकर मुझको कहो, हे केशव! सर्वज्ञ भाषण आसन चलन में, कैसा है स्थितप्रज्ञ।

कृष्ण बोले- पूर्ण मनोकामनायें मन से जो तज डालें ,रहे संतुष्ट सदा आत्म विलास में, दुःख के आने पर जो विचलित न हो कदापि, नहीं कोई स्पृहा सुख सुमन सुवास में, राग है न देष जहाँ मोह नेह शेष नहीं, लेश मात्र अस्थिरता जिसके आभास में, शुभ से प्रसन्न हो, न अशुभ से जो भय माने ऐसा स्थितप्रज्ञरा में योग रसरास में।

हे पार्थ ! स्थितप्रज्ञ महापुरुष सुख दु:ख, प्रत्येक अवस्था में आत्मिक शांति प्राप्त कर लेता है। परम आनंद में लीन होने से ऐसे मनुष्य को सुखदुःख कभी विचलित नहीं करते। ऐसे स्थित प्रज्ञ मनुष्य का मन उस दीये की भांति होता है जिसकी लौ स्थिर होती है, कभी डोलती नहीं।

अर्जुन पूछते हैं - हे कृष्ण! आप कहते हो स्थितप्रज्ञ बनने के लिए मन के दीये की ज्योत को स्थिर रखो अर्थात मन को इधरउधर डोलने न दो, इसका अर्थ ये हुआ कि कर्म करते समय बुद्धि की बात मानो।

Source: श्रीमद भगवत गीता।

Tuesday, December 3, 2019

किसके पास था कौन-सा दिव्य धनुष, जानिए

विश्व के प्राचीनतम साहित्य संहिता और अरण्य ग्रंथों में इंद्र के वज्र और धनुष-बाण का उल्लेख मिलता है। भारत में धनुष-बाण का सबसे ज्यादा महत्व था इसीलिए विद्या के संबंध में एक उपवेद धनुर्वेद है। नीतिप्रकाशिका में मुक्त वर्ग के अंतर्गत 12 प्रकार के शस्त्रों का वर्णन है जिनमें धनुष का स्थान सर्वोपरि माना गया है।


आखिर भारत में किस तरह धनुष-बाण की शुरुआत हुई और किस तरह एक से एक चमत्कारिक धनुष- बाण के आविष्कार हुए, यह एक रहस्य ही है। महाभारत काल के सभी योद्धाओं के पास विशेष प्रकार के धनुष हुआ करते थे और इनके धनुष-बाण के नाम भी होते हैं। हर एक धनुष के बाण की अपनी एक अलग ही शक्ति होती थी। आओ जानते हैं ऐसे ही 10 धनुष और बाणों के बारे में।
 
पिनाक (Pinaka) : यह सबसे शक्तिशाली धनुष था। संपूर्ण धर्म, योग और विद्याओं की शुरुआत भगवान शंकर से होती है और उसका अंत भी उन्हीं पर होता है। भगवान शंकर ने इस धनुष से त्रिपुरासुर को मारा था। त्रिपुरासुर अर्थात तीन महाशक्तिशाली और ब्रह्मा से अमरता का वरदान प्राप्त असुर।
 
शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवराज इन्द्र को सौंप दिया गया था। उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।
 
देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवराज इन्द्र को दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवराज थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था, लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।
 
कोदंड (Kodanda) : एक बार समुद्र पार करने का जब कोई मार्ग नहीं समझ में आया तो भगवान श्रीराम ने समुद्र को अपने तीर से सुखाने की सोची और उन्होंने तरकश से अपना तीर निकाला ही था और प्रत्यंचा पर चढ़ाया ही था कि समुद्र के देवता प्रकट हो गए और उनसे प्रार्थना करने लगे थे। भगवान श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है। हालांकि उन्होंने अपने धनुष और बाण का उपयोग बहुत ‍मुश्किल वक्त में ही किया।
 
देखि राम रिपु दल चलि आवा। 
बिहसी कठिन कोदण्ड चढ़ावा।।
अर्थात शत्रुओं की सेना को निकट आते देखकर श्रीरामचंद्रजी ने हंसकर कठिन धनुष कोदंड को चढ़ाया। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि भगवान राम के धनुष का नाम कोदंड था इसीलिए प्रभु श्रीराम को कोदंड कहा जाता था। 'कोदंड' का अर्थ होता है बांस से निर्मित। कोदंड एक चमत्कारिक धनुष था जिसे हर कोई धारण नहीं कर सकता था। कोदंड नाम से भिलाई में एक राम मंदिर भी है जिसे 'कोदंड रामालयम मंदिर' कहा जाता है। भगवान श्रीराम दंडकारण्य में 10 वर्ष तक भील और आदिवासियों के बीच रहे थे।
 
कोदंड एक ऐसा धनुष था जिसका छोड़ा गया बाण लक्ष्य को भेदकर ही वापस आता था। एक बार की बात है कि देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत ने श्रीराम की शक्ति को चुनौती देने के उद्देश्य से अहंकारवश कौवे का रूप धारण किया व सीताजी को पैर में चोंच मारकर लहू बहाकर भागने लगा। 
 
तुलसीदासजी लिखते हैं कि जैसे मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह पाना चाहती हो उसी प्रकार से उसका अहंकार बढ़ गया था और इस अहंकार के कारण वह-
 
।।सीता चरण चोंच हतिभागा। मूढ़ मंद मति कारन कागा।। 
।।चला रुधिर रघुनायक जाना। सीक धनुष सायक संधाना।।
 
वह मूढ़ मंदबुद्धि जयंत कौवे के रूप में सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भाग गया। जब रक्त बह चला तो रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर तीर चढ़ाकर संधान किया। अब तो जयंत जान बचाने के लिए भागने लगा। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया, पर इन्द्र ने भी उसे श्रीराम का विरोधी जानकर अपने पास नहीं रखा। तब उसके हृदय में निराशा से भय उत्पन्न हो गया और वह भयभीत होकर भागता फिरा, लेकिन किसी ने भी उसको शरण नहीं दी, क्योंकि रामजी के द्रोही को कौन हाथ लगाए? जब नारदजी ने जयंत को भयभीत और व्याकुल देखा तो उन्होंने कहा कि अब तो तुम्हें प्रभु श्रीराम ही बचा सकते हैं। उन्हीं की शरण में जाओ। तब जयंत ने पुकारकर कहा- 'हे शरणागत के हितकारी, मेरी रक्षा कीजिए प्रभु श्रीराम।'
 
शारंग (sarang) : भगवान श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर भी थे यह बात तब पता चली, जब उन्होंने लक्ष्मणा को प्राप्त करने के लिए स्वयंवर की धनुष प्रतियोगिता में भाग लिया था। इस प्रतियोगिता में कर्ण, अर्जुन और अन्य कई सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों ने भाग लिया था। 
द्रौपदी स्वयंवर से कहीं अधिक कठिन थी लक्ष्मणा स्वयंवर की प्रतियोगिता। भगवान श्रीकृष्ण ने सभी धनुर्धरों को पछाड़कर लक्ष्मणा से विवाह किया था। हालांकि लक्ष्मणा पहले से ही श्रीकृष्ण को अपना पति मान चुकी थी इसीलिए श्रीकृष्ण को इस प्रतियोगिता में भाग लेना पड़ा। श्रीकृष्ण के धनुष का नाम 'शारंग' था। 
 
शारंग का अर्थ होता है रंगा हुआ, रंगदार, सभी रंगोंवाला और सुंदर। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण का यह धनुष सींग से बना हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि यह वही सारंग है जिसे कण्व की तपस्यास्थली के बांस से बनाया गया था।

गाण्डीव (gandiva) : पांच पांडवों में से एक अर्जुन की धनुष विद्या भी जगप्रसिद्ध थी। गुरु द्रोण के श्रेष्ठ शिष्यों में से एक थे अर्जुन। द्रोण ने अर्जुन को धनुष सिखाते वक्त वचन दिया था कि तुमसे श्रेष्ठ इस संसार में कोई धनुर्धर नहीं होगा। अर्जुन के धनुष की टंकार से पूरा युद्ध क्षेत्र गूंज उठता था। रथ पर सवार कृष्ण और अर्जुन को देखने के लिए देवता भी स्वर्ग से उतर गए थे। अर्जुन के धनुष का नाम गाण्डीव था।
 
कहते हैं कि कण्व ऋषि कठोर तप कर रहे थे। तपस्या के दौरान उनका शरीर दीमक द्वारा बांबी बना दिया गया था। बांबी और उसके आसपास की मिट्टी के ढेर पर सुंदर गठीले बांस उग आए थे। जब कण्व ऋषि की तपस्या पूर्ण हुई, तब तब ब्रह्माजी प्रकट हुए। उन्होंने उन्हें अनेक वरदान दिए और जब जाने लगे तो ध्यान आया कि कण्व की मूर्धा पर उगे हुए बांस कोई सामान्य नहीं हो सकते तथा इसका सदुपयोग करना चाहिए। 
 
तब ब्रह्माजी ने उसे काटकर विश्वकर्मा को दे दिया और विश्वकर्मा ने उससे 3 धनुष बनाए- 1. पिनाक, 2.शार्ङग और 3.गाण्डीव। इन तीनों धनुषों को ब्रह्माजी ने भगवान शंकर को समर्पित कर दिया। इसे भगवान शंकर ने इन्द्र को दे दिया। इस तरह इंद्र के पास पिनाक धनुष फिर परशुराम और फिर बाद में राजा जनक के पास पहुंच गया लेकिन गा‍ण्डीव वरुणदेव के पास पहुंच गया। वरुणदेव से यह धनुष अग्निदेव के पास और ‍अग्निदेव से यह धनुष अर्जुन ने ले लिया था।

विजय : वैसे तो महाभारत काल में सैकड़ों योद्धा हुए हैं, लेकिन कहते हैं कि युद्ध में कर्ण जैसा कोई धनुर्धर नहीं था। कवच और कुंडल नहीं उतरवाते तो कर्ण को मारना असंभव था। कर्ण के अर्जुन और एकलव्य से श्रेष्ठ धनुर्धर होने का प्रमाण यह है कि कर्ण के तीर में इतनी ताकत थी कि जब वे तीर चलाते थे और उनका तीर अर्जुन के रथ पर लग जाता था तो रथ पीछे कुछ दूरी तक खिसक जाता था। कृष्ण अर्जुन से कहते थे कि जिस रथ पर मैं और हनुमान विराजमान हैं उसके इस तरह पीछे धकेले जाने से पता चलता है कि कर्ण की धनुर्विद्या में बहुत बल है।
कर्ण के धनुष का नाम विजय था। भगवान परशुराम ने कर्ण को अपना विजय नामक धनुष प्रदान किया था और उसे ये आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारी अमिट प्रसिद्धि रहेगी। विजय एक ऐसा धनुष था कि किसी भी प्रकार के अस्त्र या शस्त्र से खंडित नहीं हो सकता था। इससे तीर छुटते ही भयानक ध्वनि उत्पन्न होती थी।
 

 शार्ङग : यह धनुष भगवान विष्णु के पास था। इस धनुष की उत्पत्ति का जिक्र हम ऊपर कर आए हैं। इसके अलावा अजगव और वैष्णव नामक धनुष भी दिव्य थे। कौटिल्य ने 4 प्रकार के धनुषों का वर्णन किया है- 1. पनई से निर्मित कार्मुक, 2. बांस से निर्मित कोदंड, 3. डार्नवुड का बना द्रुण और 4. हड्डी या सींग से बना धनुष।
vishnu
बाण को धनुष द्वारा चलाया जाता है। जिसमें बाण रखा जाता है उसे तुणीक कहा जाता है, ‍जो पीछे कंधे पर बंधा होता है जबकि धनुष को कंधे पर धारण करते हैं।
 
परशुराम इस धरती पर ऐसे महापुरुष हुए हैं, जो पूर्ण रूप से धनुर्विद्या में पारंगत थे और जिनकी जोड़ का कोई दूसरा नहीं था। पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य और खुद कर्ण ने भी परशुराम से ही धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी। 
 
शास्त्रों के अनुसार 4 वेद हैं और तरह 4 उपवेद हैं। इन उपवेदों में पहला आयुर्वेद है। दूसरा शिल्प वेद है। तीसरा गंधर्व वेद और चौथा धनुर्वेद है। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है।

भगवान राम के धनुष में ऐसी कौन सी विशेष बात थी जो बहुत कम लोग जानते हैं ?

रामचन्द्रजी और कृष्ण भगवान के स्वरूप में यही अन्तर दिखता है कि राम धनुर्धारी थे और कृष्ण के सिर पर मोरपंख सुशोभित होता था।

भगवान श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है।उनके धनुष का नाम कोदंड था।

एक बार समुद्र पार करने का जब कोई मार्ग नहीं समझ में आया तो भगवान श्रीराम ने समुद्र को अपने तीर से सुखाने की सोची और उन्होंने तरकश से अपना तीर निकाला ही था और प्रत्यंचा पर चढ़ाया ही था कि समुद्र के देवता वरुणदेव प्रकट हो गए और उनसे प्रार्थना करने लगे थे:

एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
 सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥3॥

भावार्थ: इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए।कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात्‌ बाण से उन दुष्टों का वध कर दिया)॥3॥

अत: जो वाण भगवान श्रीरामचंद्र ने धनुष पर चढाकर प्रत्यंचा खींचा था उसे पुन: तरकश में नहीं रखा अपितु उसे समुद्र देव के कहने पर उत्तर दिशा की ओर छोड दिया जहा‍ँ पर समुद्र देव के कहे अनुसार दुष्टों का निवास था।यह उत्तर दिशा का क्षेत्र कोई और नहीं आज के खाडी देश की बंजर भूमि है जहा‍ँ अग्निवाण के प्रभाव से आजतक कुछ भी उगता नहीं है।

रामचन्द्र जी ने अपने धनुष और बाण का उपयोग बहुत मुश्किल वक्त में ही किया।

देखि राम रिपु दल चलि आवा। बिहसी कठिन कोदण्ड चढ़ावा।।

अर्थात शत्रुओं की सेना को निकट आते देखकर श्रीरामचंद्रजी ने हंसकर कठिन धनुष कोदंड को चढ़ाया।

कोदंड का अर्थ होता है बांस से निर्मित।कोदंड एक चमत्कारिक धनुष था जिसे हर कोई धारण नहीं कर सकता था।

कोदंड नाम से भिलाई में एक राम मंदिर भी है जिसे 'कोदंड रामालयम मंदिर' कहा जाता है।भगवान श्रीराम ने दंडकारण्य में 10 वर्ष से अधिक समय तक भील,वनवासी और आदिवासियों के बीच रहकर उनकी सेवा की थी।

कोदंड की खासियत :

कोदंड एक ऐसा धनुष था जिसका छोड़ा गया बाण लक्ष्य को भेदकर ही वापस आता था।एक बार की बात है कि देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत ने श्रीराम की शक्ति को चुनौती देने के उद्देश्य से अहंकारवश कौवे का रूप धारण किया और सीताजी को पैर में चोंच मारकर लहू बहाकर भागने लगा।

तुलसीदासजी लिखते हैं कि जैसे मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह पाना चाहती हो उसी प्रकार से उसका अहंकार बढ़ गया था।

।।सीता चरण चोंच हतिभागा। मूढ़ मंद मति कारन कागा।।

।।चला रुधिर रघुनायक जाना। सीक धनुष सायक संधाना।।

वह मूढ़ मंदबुद्धि जयंत कौवे के रूप में सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भाग गया।

जब रक्त बह चला तो रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर तीर चढ़ाकर संधान किया।अब तो जयंत जान बचाने के लिए भागने लगा।

वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया,पर इन्द्र ने भी उसे श्रीराम का विरोधी जानकर अपने पास नहीं रखा। तब उसके हृदय में निराशा से भय उत्पन्न हो गया और वह भयभीत होकर भागता फिरा,लेकिन किसी ने भी उसको शरण नहीं दी,क्योंकि रामजी के द्रोही को कौन हाथ लगाए?

जब नारदजी ने जयंत को भयभीत और व्याकुल देखा तो उन्होंने कहा कि अब तो तुम्हें प्रभु श्रीराम ही बचा सकते हैं। उन्हीं की शरण में जाओ।

तब जयंत ने पुकारकर कहा- 'हे शरणागत के हितकारी, मेरी रक्षा कीजिए प्रभु श्रीराम।'तो श्रीराम ने उसको क्षमा कर दिया।


पता नहीं इस खबर में कितनी सच्चाई है।यह ज्ञात हुआ कि एक वर्ष पूर्व रामचन्द्र जी का धनुष कोदंड खुदाई में मिला,जिसके चित्र नेट पर वायरल हुए।

सचमुच हमारी भारतीय संस्कृति की बातें और दृष्टान्त इतने रोचक हैं कि इनको जानकर गर्व का अनुभव होता है।

जहाँ राम हैं,वहाँ धनुष की बात होनी स्वाभाविक है।धर्म की स्थापना और अधर्म की पराजय में उनके धनुष कोदंड का बहुत बड़ा योगदान रहा।

आज भी किसी औषधि के लिए राम बाण औषधि इसीलिए कहा जाता है |

Sunday, December 1, 2019

रामायण का आध्यात्मिक अर्थ क्या है?

रामायण न केवल राम और सीता की एक कहानी ही नहीं है,बल्कि इसके दार्शनिक और आध्यात्मिक महत्व भी हैं,जो बहुत कम लोग जानते हैं:
‘रा’का अर्थ है प्रकाश,
'मा'का अर्थ है मेरे भीतर,मेरी आत्मा।
इसलिए,राम का अर्थ है मेरी आत्मा के भीतर का प्रकाश।
राम का जन्म दशरथ और कौसल्या के संयोग से हुआ था।
दशरथ का अर्थ है '10 रथ’।
दशरथ 5 ज्ञानेंद्रियों और 5 कर्मेन्द्रियों का प्रतीक है और कौशल्या का अर्थ है कौशल।
10 रथों के कुशल सवार राम को जन्म दे सकते हैं।
राम का जन्म अयोध्या में हुआ था।
अयोध्या का अर्थ है एक ऐसा स्थान जहाँ कोई युद्ध नहीं हो सकता।जब हमारे मन में कोई संघर्ष नहीं है,तो मन प्रकाशित हो जाता है।
हमारी आत्मा राम है,
हमारा मन है सीता ,
हमारी सांस या जीवन-शक्ति(प्राण)हनुमान है,
हमारी जागरूकता लक्ष्मण,हमारा अहंकार है रावण।
जब मन(सीता),अहंकार (रावण)द्वारा चुराया जाता है,तो आत्मा(राम) को बेचैनी हो जाती है।अब(राम)स्वयं मन अर्थात् (सीता) तक नहीं पहुँच सकता है।
रावण रूपी अहंकार की माया अनेक रूपों में मन और आत्मा को भरमाती और कष्ट देती है किन्तु आत्मा की शक्ति परेशान तो हो सकती है लेकिन पराजित नहीं हो सकती।
इसमें आत्मा को जागरूकता(लक्ष्मण) और प्राण(हनुमान) की मदद लेनी पड़ती है,सद्गुणों की सेना का निर्माण करना होता है,
फिर धर्म और अधर्म के परस्पर बाण चलते हैं,
जिससे अंततः अहंकार(रावण)का नाश हो जाता है और मन(सीता) का पुनर्मिलन आत्मा(राम)से हो जाता है।
मन और आत्मा के परस्पर संतुलित सामंजस्य से शरीर चलता है।वास्तव में रामायण हर समय हर मनुष्य के भीतर होने वाली एक शाश्वत घटना है,अब यह हम पर निर्भर करता है कि हमारे भीतर राम और रावण किसकी विजय होती है!

भगवान कृष्ण के बारे में सबसे बड़ी गलतफ़हमी क्या है?

  • कृष्ण चरित्रहीन थे, उन्होंने गोपियों के साथ खूब रंगरेलिया मनायी और बाद में ढेरों औरतों से शादी की थी ।
कृष्ण ने मात्र 11 वर्ष की आयु में वृंदावन छोड़ दिया था। एक 11 वर्ष के बालक का जो रिश्ता गोपियों से रहा होगा उसे गलत रूप में देखना सर्वथा अनुचित है। वह रिश्ता एक भक्त और भगवान के रिश्ते के तुल्य था।
कृष्ण की आधिकारिक तौर पर केवल 8 पत्नियां थीं। उन्होंने 16100 महिलाओं को अपनी रानी का दर्जा देने का फैसला किया जिन्हें नरकासुर ने अपहरण कर लिया था और शायद उनका भी बलात्कार किया गया था। उन्होंने उन महिलाओं से केवल इसलिए शादी की क्योंकि कोई भी उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। आज के समय में, अगर कोई पुरुष किसी बलात्कार पीड़िता से शादी करता है तो क्या आप उसे चरित्रहीन मानेंगे? यदि नहीं, तो कृष्णा के चरित्र पर सवाल उठाने का कोई सवाल ही नहीं है।
  • कृष्ण ने पांडवों का पक्ष लिया और कौरवों से पक्षपात किया।
अगर ऐसा था तो उन्होंने अपनी सर्वश्रेष्ठ नारायणी सेना में से दो अक्षोहिणी सेना जिसमे से प्रत्येक में 10 मिलियन से अधिक योद्धा थे, कौरवों को क्यों दी? कृष्ण के अधिकतर रिश्तेदार इसी सेना में थे। इसमे से एक अक्षोहिणी सेना सात्यकी के अधीन थी जिसने बाद में पांडवों के साथ रहने का फैसला किया, यह उसका निर्णय था कृष्ण का नहीं और सात्यकि ने अपने अधीन सेना का उपयोग नही किया और यह सेना कौरव सेनापति कृतवर्मा के अधीन रही। इस प्रकार इस पराक्रमी सेना का लाभ केवल दुर्योधन को मिला।
  • कृष्ण ने द्रौपदी को कर्ण को अस्वीकार करने की सलाह दी।
संभवतः यह बेवकूफ धारावाहिक निर्माताओं द्वारा बनाई गई सबसे बड़ी गलत धारणा। जहां तक ​​महाकाव्य का कहना है, कृष्ण ने द्रौपदी के निजी जीवन में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। महाभारत के BORI संस्करण में स्पष्ट रूप से राधा के पुत्र वसुसेना कर्ण का उल्लेख किया गया है, जो उन राजकुमारों में से एक थे जो अपने स्वयंवर में विफल रहे थे। बेशक, कुछ संस्करण ऐसे हैं जो कहते हैं कि द्रौपदी ने उन्हें अपनी जाति के कारण अस्वीकार कर दिया था। वस्तुतः द्रौपदी अपने स्वयंबर से पहले कृष्ण से कभी नहीं मिली, इसलिए कृष्ण को यहां जोड़ना गलत है।
  • कुरुक्षेत्र युद्ध के लिए कृष्ण जिम्मेदार थे।
यह गलत धारणा गांधारी के अलावा और किसी ने नहीं बनाई थी। उन्होंने अपने भाई और बेटों के बुरे कर्मों को नजरअंदाज किया और कृष्ण को उनकी मृत्यु का दोष देने का काम किया। केवल कृष्ण ने ही अंतिम समय तक भी युद्ध को रोकने की कोशिश की। वह शांति प्रस्ताव के साथ हस्तिनापुर गये और पांडवों के लिये मात्र 5 गांवों की कीमत पर भी युद्ध को रोकने की कोशिश की। बताइये कहाँ पर है उनका दोष?
  • वह भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार थे।
यें वो हैं जो इस पृथ्वी की ही नही बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड की रक्षा और संचालन करते हैं। वें वो हैं जिन्होंने समय समय पर अपने भक्तों और धर्म की रक्षा के लिये इस धरती पर अवतरण लिया।जब कुरु वंश के सभी शक्तिशाली योद्धा, द्रौपदी के चीरहरण के दौरान स्तब्ध रह गए, यह कृष्ण ही थे जिन्होंने उनकी गरिमा को बचाया।
जब तक आप पूरी तरह से सनातन धर्म के खिलाफ नहीं हैं, आपको उनमें कोई त्रुटि नजर नही आयेगी । एक दफा सूर्य के बगैर इस ब्रह्मांड की कल्पना की जा सकती है किंतु श्रीकृष्ण में दोष की कल्पना नही की जा सकती।
भगवान श्रीकृष्ण मेरे भी इष्ट देव है और आप सब के भी।
जय श्रीकृष्ण 🙏

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...