पांडुरंग शब्द दो शब्दों से बना है—‘पांडु’ यानी पीला और ‘रंग’ अर्थात् वर्ण । पांडुरंग का अर्थ हुआ पीले रंग वाला ।
भगवान श्रीकृष्ण संध्या समय जब गोधन के साथ वन से वापिस आते थे तो गाय के खुरों से उड़ी धूल से उनका श्यामल शरीर पांडुरंग हो जाता था । उस समय श्रीकृष्ण की घुंघराली अलकों पर गौओं के खुरों से उड़-उड़कर धूलि पड़ जाती थी, वे मधुर-मधुर मुरली बजाते थे और ग्वालबाल उनकी कीर्ति का गान करते हुए उनके पीछे-पीछे चलते रहते थे। मुरली की ध्वनि सुनकर गोपियाँ व्रज से बाहर आ जातीं । गोपियां अपने नेत्ररूप भ्रमरों से श्रीकृष्ण के मुखारविन्द का मकरन्द-रसपान करके दिन भर के विरह की जलन शान्त करती थीं ।
आगे गाय पाछे गाय इत गाय उत गाय।
गोविन्द कूँ गायन में बसिबौ ही भावे।।
गायन के संग धावै गायन में सचु पावै।
गायन की खुर रेनु अंग लिपटावै।।
गायन सों व्रज छायौ, वैकुंठ विसरायौ।
गायन के हित गिरि कर लै उठावै।।
‘छीतस्वामी’ गिरिधारी, विट्ठलेस वपु-धारी।
ग्वारिया कौ भेषु धरैं गायन में आवै।।
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