Sunday, February 23, 2020

वेदों की रचना किसने की थी?

वेद का अर्थ है ज्ञान

'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।

वेद 'विद' शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ज्ञान या जानना, ज्ञाता या जानने वाला; मानना नहीं और न ही मानने वाला।

सिर्फ जानने वाला, जानकर जाना-परखा ज्ञान।

अनुभूत सत्य। जांचा-परखा मार्ग। इसी में संकलित है 'ब्रह्म वाक्य'।

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बिना किसी आधार के हमें वेद के बारे में अपनी गलत धारणाएं नहीं स्थापित करनी चाहिए

हम में से ही कई लोग संभ्रम (confusion) की स्थिति उत्पन्न करना चाहते हैं

वेद के बारे हमारी अज्ञानता का ही योगदान है जो हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाती है कि वेद रचयिता के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध ही नहीं है

या फिर यह कुछ कुटिल बुद्धि वालों की कुचेष्टाकारी प्रचार का हिस्सा है?

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वेदों की उत्पत्ति के बारे में कोई विरोधाभास नहीं है

वेद ऋचाओं का संकलन है

ये ऋचाएँ तब सृजित हुईं इन ऋचाओं के जब कवि या ऋषि समाधि अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार कर रहे थे तब ऋषियों के मुख से स्वतः प्रकटीकृत हुईं

समाधि अवस्था में प्रकट होने के कारण इन्हें अपौरूषेय कहा जाता है

हर ऋचा के आगे उसके मंत्रदृष्टा कवि या ऋषि का नाम उल्लिखित है

उदाहरण के लिए ऋग्वेद की संहिता के मण्डल, सूक्तसंख्या और ऋषिनामों का विवरण निम्नलिखित तालिका में दिया जा रहा है-

मण्डल—सूक्त संख्या———महर्षियों के नाम

1.—————191——मधुच्छन्दा: , मेधातिथि, दीर्घतमा:, अगस्त्य, गोतम, पराशर आदि।

2.—————43———गृत्समद एवं उनके वंशज

3.—————62———-विश्वामित्र एवं उनके वंशज

4.—————-58———वामदेव एवं उनके वंशज

5.—————-87———अत्रि एवं उनके वंशज

6.—————-75———भरद्वाज एवं उनके वंशज

7.—————-104———वशिष्ठ एवं उनके वंशज

8.—————103———कण्व, भृगु, अंगिरा एवं उनके वंशज

9.—————114———-ऋषिगण, विषय-पवमान सोम

10.—————191——त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा, कामायनी इन्द्राणी, शची आदि।

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वेदव्यास ने वेदों को चार वेदों में संपादित किया

इन चार वेदों में हर वेद के अलग अलग संपादक हैं

महर्षि वेदव्यास ने अपने चार शिष्यों को चार वेदों का संपादक नियुक्त किया

व्यास के शिष्य पैल ऋगवेद के संपादक बने

अन्य शिष्य वैशम्यापन यजुर्वेद के संपादक बने

शिष्य जैमिनि सामवेद के संपादक बने

शिष्य सुमन्तु अथर्व वेद संपादक बने

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कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद

गुरू कृष्णद्वैपायन व्यास की परिकल्पना और संरक्षण मे शिष्य वैशम्यापन द्वारा लिखे गये वेद को कृष्ण यजुर्वेद कहते हैं या मौलिक यजुर्वेद कहते हैं

कृष्णद्वैपायन व्यास की परिकल्पना से परे, अलग हट कर याज्ञवल्क्य द्वारा यजुर्वेद बनाने की सफल कोशिश को शुक्ल यजुर्वेद कहतें हैं, या सुधारवादी यजुर्वेद कहतें हैं

याज्ञवल्क्य, महर्षि वैशम्यापन के भगिनि पुत्र और शिष्य थे,

वे अपने गुरू वैशम्पायन से यजुर्वेद की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे

ऋषियों के मंडल ने विश्व कल्याण के लिए मेरू पर्वत पर यज्ञ करने का निश्चय किया

और महर्षि वैशम्यापन को भी निमंत्रित किया और कहा कि जो ऋषि इस यज्ञ में भाग नहीं लेगें उन्हे सबसे बडा दोष लगेगा जो ब्रह्महत्या के समकक्ष होता है

यज्ञ के दिन ही महर्षि वैशम्यापन के पिता का श्राद्ध पडता था

महर्षि वैशम्यापन ने सोचा पिताजी का श्राद्ध तो करना ही पडेगा, ब्रह्महत्या या ब्राह्मणों द्वारा बहिष्कार के प्रायश्चित्त के लिए जो भी उपाय होंगें मेरे शिष्यगण वह प्रायश्चित्त करने में समर्थ हैं, वे कर देंगें

फलतः महर्षि वैशम्यापन उस यज्ञ में नहीं जा पाये और उन्हें ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त करना पडा

महर्षि वैशम्यापन ने अपने शिष्यों से कहा अब मुझे ब्रह्महत्या के समकक्ष पाप का प्रायश्चित करना है

आप सभी शिष्यगण को मेरे लिए सात दिन तक कठिन तपश्चर्या करना पडेगा

तभी उठकर याज्ञवल्क्य ने टोका और कहा

“आपके ये सभी शिष्य तेजहीन बच्चे हैं, इनसे इतना कठिन तप नहीं हो पायेगा |

मैं अकेले इन सबके मिले जुले प्रयत्न से अधिक कठिन तप कर लूंगा,

महर्षि वैशम्यापन ने याज्ञवल्क्य को मना कर दिया

याज्ञवल्क्य ने हठ पकड ली कि मैं अकेले तप कर लूंगा

महर्षि वैशम्यापन ने कहा,

“गुरू की आज्ञा मानते हैं, गुरू की अवज्ञा नहीं करते, अहंकारी बालक ज्यादा अकड़ मत दिखा, तुम मेरे यहाँ से बाहर निकल जाओ, तुम्हारे जैसों की यहाँ जरूत नहीं है, जो ज्ञानी गुरूजनों की अवज्ञा करते हैं, मैंनें जो कुछ भी सिखाया उसे तत्काल वापस लौटा दे”

देवव्रत के पुत्र याज्ञवल्क्य ने तत्काल सिखाये गये यजुर्वेद के पाठों का वमन (पाठ) कर दिया

वहाँ बैठे महर्षि वैशम्यापन के अन्य शिष्यों ने तत्काल उन पाठों को धारण तीतर/ तोते के समान धारण कर (रट) लिया

इसीलिए उन्हे तैत्तिरेय कहा गया

और महर्षि वैशम्यापन के यजुर्वेद को तैत्तिरेय यजुर्वेद कहा गया

उसे कृष्ण यजुर्वेद भी कहा जाता है, क्योंकि गुरू कृष्णद्वैपायन व्यास के संरक्षण मे शिष्य वैशम्यापन को यह सिखाया गया था

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याज्ञवल्क्य

महाभारत में इसे वैशंपायन ऋषि का भगना या भान्जा एवं शिष्य कहा गया है [महाभारत, शांतिपर्व ३०६.७७६] ।

उद्दालकशिष्य याज्ञवल्क्य एवं वैशंपायनशिष्य याज्ञवल्क्य दोनों संभवतः एक ही होंगे ।

उनमें से उद्दालक इसका दार्शनिक शास्त्रों का, एवं वैशंपायन वैदिक सांस्कारिक शास्त्रों का गुरु था ।

इनके अतिरिक्त, हिरण्यनाभ कौशल्य या वशिष्ठ नामक याज्ञवल्क्य का और एक गुरु था, जिससे इसने योगशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी [ब्रह्मांड.३.६३.२०८];[ वायु ८८.२०७];[ विष्णु४. ४.४७];[ भा.९.१२.४] ।

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यजुः शिष्यपरंपरा

याज्ञवल्क्य

यजुःशिष्यपरंपरा में से वैशंपायन ऋषि का शिष्य था । वैशंपायन ऋषि के कुल ८६ शिष्य थे, जिनमें श्यामायनि, आसुरि, आलंबि, एवं याज्ञवल्क्य प्रमुख थे (वैशंपायन देखिये) । वैशंपायन ने ‘कृष्णयजुर्वेद’ की कुल ८६ संहिताएँ बना कर, याज्ञवल्क्य के अतिरिक्त अपने बाकी सारे शिष्यों को प्रदान की थीं । वैशंपायन के शिष्यों में से केवल याज्ञवल्क्य को ‘कृष्णयजुर्वेद संहिता’ प्राप्त न हुयी, जिसे कारण इसने ‘शुल्कयजुर्वेद’ नामक स्वतंत्र संहिता ग्रंथ का प्रणयन किया ।

कृष्णयजुर्वेद का शुद्धीकरण

याज्ञवल्क्य ने ‘कृष्णयजुर्वेद’ के शुद्धीकरण का महान् कार्य सम्पन्न किया, एवं उसी वेद के संहिता में से चालीस अध्यायों से युक्त नये शुल्कयजुर्वेद का निर्माण किया [श.ब्रा.१४.९.४.३३] ।

याज्ञवल्क्य के पूर्व, कृष्णयजुर्वेद संहिता में यज्ञविषयक मंत्र, एवं यज्ञप्रकियाओं की सूचनायें, उलझी हुई सन्निहित थीं । उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय संहिता में ‘इषेत्वेति छिनत्ति’ मंत्र प्राप्त है । यहॉं ‘इषेत्वेति’ (इषे त्वा) वैदिक मंत्र है, जिसके पठन के साथ ‘छिनत्ति’ (लकडी तोडना) की प्रक्रिया बताई गयी है । याज्ञवल्क्य की महानता यह है कि, इसने ‘इषे त्वा’ की भॉंति वैदिक मंत्रभागों को अलग कर उन्हें ‘शुक्ल युजुर्वेद’ संहिता में बॉंध दिया, एवं ‘इति छिनत्ति’ जैसे याज्ञिक प्रक्रियात्मिक भागों को अलग कर, ब्राह्मण ग्रन्थों में एकत्र किया । कृष्णयजुर्वेद के इस शुद्धीकरण के विषय में, याज्ञवल्क्य को अपने समकालीन आचार्यो से ही नहीं, बल्कि, अपने गुरु वैशंपायन से भी झगडा करना पडा । आगे चल कर संहिताविषयक धर्मग्रंथसम्बन्धी यह वादविवाद, एक देशव्यापक आन्दोलन के रुप में उठ खडा हुआ । अन्त में यह विवाद हस्तिनापुर के सम्राट जनमेजय (तृतीय) के पास तक जा पहुंचा और उसने याज्ञवल्क्य की विचार धारा को सही कह कर उसका अनुमोदन किया ।

जनमेजय की राजसभा में

जनमेजय का राजपुरोहित उस समय वैशंपायन था जिसे छोडकर यज्ञों के अध्वर्यु कर्म के लिए उसने याज्ञवल्क्य को अपनाया । किन्तु इसके परिणामस्वरुप, जनमेजय के विरुद्ध उसकी प्रजा में अत्यधिक क्षोभ की भावना फैलने लगी, जिस कारण उसे राजसिंहासन को परित्याग कर वनवास की शरण लेनी पडी । इतना हो जाने पर भी, जनमेजय ने अपनी जिद्द न छोडी, और याज्ञवल्क्य के द्वारा ही अश्वमेधादि यज्ञ करा कर, ‘महावाजसनेय’ उपाधि उसने प्राप्त की ।

इसके परिणाम स्वरुप वैशंपायन और उसके अनुयायियों को मध्यदेश छोड कर पश्चिम में समुद्रतट, एवं उत्तर में हिमालय की शरण लेनी पडी । इस प्रकार, धार्मिक आधार पर खडी हुई याज्ञवल्क्य और वैशंपायन के बीच के विवाद ने राजनैतिक जीवन के आदर्शों का आमूल परिवर्तन किया, जो भारतीय इतिहास में एक अनूठी घटना साबित हुयी । इस प्रकार सर्वसाधारण से लेकर राजाओं तक को भी अपने प्रभाव से बदल देनेवाला याज्ञवल्क्य एक युगप्रवर्तक आचार्य बन गया ।

शुक्ल यजुर्वेद का प्रणयन

अन्य वैदिक आचार्यो के समान याज्ञवल्क्य भी कर्म एवं ज्ञान के सम्मिलन को महत्त्व प्रदान करता था । इसी कारण, ‘शुक्लयजुर्वेद’ का प्रणयन करते समय, इसने उस ग्रंथ के अन्त में ‘ईश उपनिषद’ का भी सम्मिलन किया है । शुक्लयजुर्वेद वैदिक कर्मकाण्ड का ग्रंथ हैं । उसे ज्ञानविषयक ‘ईश उपनिषद’ के अठारह मंत्र जोडने के कारण, उस ग्रंथ की महत्ता कतिपय बढ गयी है । वैदिक कर्मकाण्ड का अंतिम साध्य आत्मज्ञान की प्राप्ति है । इसी तत्त्व का साक्षात्कार ‘ईश उपनिषद’ से होता है ।अपने समय के सर्वश्रेष्ठ उपनिषदकार माने गये याज्ञवल्क्य ने कर्म एवं ज्ञान का सम्मिलन करनेवाले ‘शुक्लयजुर्वेद’ की रचना की, इस घटना को वैदिक साहित्य के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है । वैदिक परंपरा मंत्रों के अर्थ से संगठित है । वह अर्थ मूलस्वरुप में रखने के लिए, प्रसंगवश मंत्रों के शब्दों को बदला जा सकता है, इसी क्रांतिकारी विचारधारा का प्रणयन याज्ञवल्क्य ने किया, एवं यह वैदिक सूक्तकारों में एक श्रेष्ठ आचार्य बन गया ।

ईश उपनिषद

शुक्लयजुर्वेद संहिता का चालीसवॉं अंतिम अध्याय ‘ईश उपनिषद’ अथवा ‘ईशावास्य उपनिषद’ से बना हुआ है । इस उपनिषद में केवल अठारह मंत्र है, फिर भी, वह प्रमुख दस उपनिषदों में से एक माना जाता है । शंकराचार्य से ले कर विनोबाजी तक के सारे प्राचीन एवं आधुनिक आचार्य, उसे अपना नित्यपाठन का ग्रंथ मानते है । इस उपनिषद में, ‘सारा संसार ईश्वर से भरा हुआ है’ (ईशावास्यमिदं सर्वम्), यह सिद्धन्त बहुत ही सुंदर तरीके से कथन किया गया है । इसी उपनिषद के अन्य एक मंत्र में, धनलोभ का निषेध किया गया है ।

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