कृष्ण और शकुनि के बीच बेहतर राजनीतिज्ञ कौन था? निस्सन्देह कृष्ण। उस युग के किसी भी अन्य राजनीतिज्ञ की तुलना में सदैव कृष्ण ही श्रेष्ठ रहे।
मेरे ऐसा सोचने के कई कारण हैं।
पहला तो यह, कि शकुनि राजनीतिज्ञ था ही नहीं। उससे धुरंधर राजनीतिज्ञ दुर्योधन, विदुर, धृतराष्ट्र व कर्ण थे। TV पर गूफ़ी पेंटल व प्रणीत भट्ट की अदाकारी लोगों के मस्तिष्क पर छाई हुई है, किन्तु महाभारत का शकुनि ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। ना वो लँगड़ा था व ना कुरूप, और ना ही उसका हस्तिनापुर से बैर था। ना वो षड्यंत्र बनाता था व ना दुर्योधन उसके कहने पर चलता था।
शकुनि हस्तिनापुर में रहता था, मात्र इसलिए क्योंकि वो अपने भांजों की परवरिश व उनकी देखभाल कर सके, क्योंकि उसके भांजों का पिता आँखों से अंधा था व माता अक़्ल से, जो उसने ज़बरदस्ती अंधापन ओढ़ लिया था। शकुनि सत्य में दुर्योधन से प्रेम करता था, व उसके अंदर हस्तिनापुर या भीष्म या धृतराष्ट्र के प्रति कोई बदले की भावना नहीं थी। उसकी बुद्धि कुटिल अवश्य थी, इसलिए उसने दुर्योधन को पांडवों से वैमनस्य सिखाया व दुर्योधन के हर षड्यंत्र में शामिल हुआ। किन्तु आज्ञा सदैव दुर्योधन की होती थी। शकुनि का ध्येय था दुर्योधन को हस्तिनापुर का सम्राट बनाना, व इसके लिए जो दुर्योधन ने उससे करवाया, उसने किया। वो एक कुशल द्यूत का खिलाड़ी था, किन्तु राजनीतिज्ञ नहीं था। द्यूत खेलने की सलाह उसकी थी, क्योंकि वो द्यूत में कुशल था व जानता था कि युधिष्ठिर को द्यूत में हराकर उनका राज्य बिना युद्ध के जीता जा सकता है। अतः उसने सुझाव दिया था, किन्तु योजना दुर्योधन की थी। द्रौपदी को दाँव पर लगाने के लिए युधिष्ठिर को आदेश उसने दिया था, क्योंकि दुर्योधन की ओर से वही खेल रहा था, व कदाचित यही दुर्योधन की योजना रही हो। किन्तु जैसा TV पर दिखाया जाता है कि सारी कुटिल योजनाएँ शकुनि बनाता था व दुर्योधन उसका अनुसरण करता था व कर्ण कोई अन्य रास्ता ना देख कर चुप हो जाता था, महाभारत ग्रंथ की वास्तविकता उससे बहुत भिन्न है।
सत्य यह है, कि चार दुशचरित्रों- दुर्योधन, कर्ण, शकुनि व दुशासन- में सबसे बड़ा राजनीतिज्ञ दुर्योधन था। जिस तरह युधिष्ठिर को बाल्यकाल से राजा बनने की शिक्षा मिली थी, उसी तरह दुर्योधन को भी मिली थी। अंतर यह था कि युधिष्ठिर का मन व आचरण धर्म की ओर था व वे अपने फ़ायदे के लिए किसी का बुरा नहीं सोचते थे, और दुर्योधन अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कुछ भी कर सकता था। राजनीति एक भावी राजा को आरम्भ से सिखाई जाती है, और दुर्योधन ने उसका उपयोग पांडवों पर करना आरम्भ कर दिया था। भीम को मारने की अनगिनत साज़िशें, रंगभूमि का नाटक, लाक्षागृह, यह सब दुर्योधन के मस्तिष्क की उपज थे, शकुनि के नहीं। शकुनि आरम्भ में दुर्योधन का सलाहकार रहा होगा, किन्तु बाद में यह स्थान कर्ण ने ले लिया था व शकुनि इनके आदेशों का पालन करता था।
TV पर शकुनि को कुटिल व कुशल राजनीतिज्ञ दिखाने के कई कारण हैं। एक तो यह, कि दुर्योधन को उन्हें एक घृणित खलनायक के रूप में दिखाना है, व यदि उसे शातिर दिमाग़ वाला दिखाया जाएगा तो लोग उसके प्रशंसक बन सकते हैं। अतः वो बलवान, किन्तु शकुनि के कथनों पर चलने वाला एक अधर्मी बेवक़ूफ़ दिखाया जाता है। दूसरे, उन्हें कर्ण को हर हालत में एक क़िस्मत का मारा बेचारा दिखाना है, जो नियति से बुरे लोगों के बीच फँस गया किन्तु जिसका अपना चरित्र उज्जवल है। यदि शकुनि के चरित्र को खलनायक नहीं बनाएँगे तो कर्ण का असली रूप सामने आ जाएगा, जो था दुर्योधन के मुख्य सलाहकार व उसके बराबर के षड्यंत्रकारी का। तीसरा कारण है पैसा व प्रसिद्धि। यदि सत्य दिखाने जाएँगे तो या तो जनता कहेगी कि झूठ दिखा रहे हैं, या जाति की राजनीति करने वाले खड़े हो जाएँगे कि हमारे नायक को बुरा बता रहे हैं! और उनका सीरीयल ठप्प हो जाएगा।
शकुनि का दुर्योधन के प्रति लगाव व दुर्योधन के गुट में उसका स्थान इसी बात से ही साफ़ हो जाता है कि पांडवों के निर्वासन के १०वें वर्ष में जब घोषयात्रा के बहाने दुर्योधन अपने मित्रों, भाइयों व स्त्रियों को लेकर पांडवों को अपनी समृद्धि दिखाकर ईर्ष्या से जलाने के लिए वन में गया था, जहाँ गंधर्वों से उसका युद्ध हो गया था व उसे व उसकी स्त्रियों को बंदी बना लिया गया था, तब कर्ण के पलायन करने के बाद युधिष्ठिर की आज्ञा से अर्जुन ने उसे बचाया था। इसके पश्चात अर्जुन ने उसे व उसकी स्त्रियों को मुक्त करा कर सम्मान के साथ हस्तिनापुर की ओर भेज दिया था, व बदले में ना कुछ कहा, ना माँगा, व ना कोई उलाहना या गाली दी। इससे दुर्योधन को बहुत लज्जा आयी व वो आत्मग्लानि व शर्म के मारे आत्महत्या करने की सोचने लगा। वो वन में ही बैठ गया व उसने दुशासन को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। किन्तु उसे छोड़कर जाने को ना दुशासन तैयार था व ना शकुनि। दोनों ही दुर्योधन की बातों से द्रवित हो गए थे। शकुनि ने दुर्योधन के प्राण बचाने के लिए उस समय उसे सलाह दी कि वो युधिष्ठिर को उनका राज्य लौटा कर संधि कर ले, जिससे उसका पश्चाताप पूर्ण हो जाए व उसके प्राण भी बच जाएँ। तभी कर्ण ने कहा कि दुर्योधन के प्राण बचाना तो पांडवों का कर्तव्य था, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। फिर उसने अर्जुन का वध करने का वचन दिया, इससे दुर्योधन को यह सोचकर दुखी होने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी कि अर्जुन ने उसके प्राण बचाए थे! दुर्योधन कर्ण की बात मानकर प्रसन्न होकर हस्तिनापुर लौट गया। यह था दुर्योधन के गुट में शकुनि का महत्व!
स्त्रोत: आरण्यक पर्व, घोषयात्रा पर्व, सातवालेकर द्वारा सम्पूर्ण महाभारत का हिंदी अनुवाद।
अब आते हैं कृष्ण की राजनीति पर।
कृष्ण जैसी राजनीति पर पकड़ व दूर दृष्टि उस समय किसी के पास नहीं थी। कंस के वध के बाद मथुरा पर चारों ओर से जरासंध व उसके मित्र आक्रमण करते थे। जरासंध के साथ शाल्व, शिशुपाल, एकलव्य, पौंद्रक, रुक्मि, इत्यादि बहुत राजा थे। कृष्ण उस समय एक किशोर थे, किन्तु उन्होंने तब भी यह देख लिया था कि बार बार के आक्रमण झेलने से प्रजा को कितना दुःख उठाना पड़ रहा है। वो जान गए कि ना तो वे इतने सारे शत्रुओं का एक साथ नाश करने की स्थिति में थे, व ना निरंतर आक्रमणों से जूझते हुए उनकी प्रजा कभी ख़ुशहाल हो पाएगी। अतः उन्होंने वो निर्णय लिया जो एक क्षत्रिय योद्धा कभी नहीं सोचता-उस जगह को छोड़ सुदूर बसने का निर्णय। द्वारिका पहुँचकर समुद्र से व्यापार के रास्ते खुल गए, व शांति से रहते हुए यदुकुल समृद्धि की पराकाष्ठा तक पहुँच गया। फिर कृष्ण ने आराम से, अपने तय किए हुए समय व स्थान पर, अपने सभी शत्रुओं का एक-एक करके वध कर दिया। कुरुक्षेत्र के युद्ध तक कृष्ण का कोई भी शत्रु जीवित नहीं था।
द्रौपदी के स्वयंवर में उन्होंने अर्जुन व भीम का पराक्रम देखा, व अपनी शक्ति व सामर्थ्य उनके पीछे लगा दिया। युधिष्ठिर के धर्म से प्रभावित हो उन्हें सम्राट बनाने में कृष्ण का बहुत बड़ा हाथ था। द्यूत के समय वो शाल्व से लड़ने में व्यस्त थे, और तभी उनकी युक्ति से व पांडवों के बल से बनाया हुआ साम्राज्य दुर्योधन ने हड़प लिया। किन्तु कृष्ण ने युधिष्ठिर को पुनः स्थापित करने के लिए अपने भाई व कुल के विरुद्ध जाकर पांडवों की सहायता की। कदाचित बलराम की भावनाओं का मान रखते हुए उन्होंने शस्त्र ना उठाने का निर्णय लिया, किन्तु उनका मस्तिष्क किसी शस्त्र से कम नहीं था। अर्जुन को उनसे अधिक कोई नहीं समझता था, और उन्होंने अर्जुन से हर वो कार्य करा लिया जो वो नहीं करना चाहते थे। युधिष्ठिर भी उनके वर्चस्व, उनकी रणनीति व राजनीति पर पकड़ को पहचानते थे, जिसके कारण विजय का श्रेय उन्होंने शस्त्र ना उठाने वाले कृष्ण को दिया। क्योंकि यदि अर्जुन का मार्गदर्शन कृष्ण ना करते तो अर्जुन युद्ध लड़ते ही नहीं, और यह युधिष्ठिर जानते थे। युद्ध के पश्चात उन्होंने पुनः युधिष्ठिर को सम्राट बनाया। अब तनिक सोचिए, यह सब कार्य एक ऐसे व्यक्ति ने किया जिसे जन्म के समय ही त्याग दिया गया था, जो किशोरावस्था तक विद्या व शास्त्रों के ज्ञान से वंचित रहा, जिसका बचपन ग़्वालों के संग गाय चराते बीता, जो ना भाइयों में ज्येष्ठ था व ना राजा, जिसकी अनेकों बार हत्या के प्रयास हुए, जिसका दुश्मन आधा आर्यवर्त था, जिसे अपना ही राज्य छोड़कर दूर बसना पड़ा, व एक समय जिसका कोई शक्तिशाली मित्र नहीं था।
दुर्योधन या धृतराष्ट्र की राजनीति मात्र हस्तिनापुर के राजसिंहासन तक ही सीमित थी, कृष्ण की राजनीति के घेरे में सम्पूर्ण आर्यवर्त था। दुर्योधन दूर की सोच सकता तो युधिष्ठिर का राज्य जीत कर चुप हो जाता, द्रौपदी का अपमान ना करता। किन्तु द्रौपदी का अपमान कर उसने पांडवों के साथ कृष्ण से भी बैर मोल ले लिया जो उसके विनाश का कारण बना। कृष्ण ने अपमान करने वालों तो क्या, चुपचाप बैठने वालों में से भी किसी को जीवित नहीं रहने दिया। कृष्ण से शकुनि तो क्या, किसी का कोई मुक़ाबला नहीं था।
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