Monday, March 23, 2020

क्या दुर्योधन के लिए हस्तिनापुर के सिंहासन की माँग उचित थी? यदि हाँ तो क्यों?

जहाँ तक माँग करने का प्रश्न है, तो एक राजकुमार होने के नाते माँग तो वो कर ही सकता था। किन्तु क्या यह माँग उचित थी? नहीं।

राजगद्दी कोई मोह की वस्तु नहीं होती जिसे पाने की लालसा की जाए या जिसपर अपना अधिकार जताया जाय। राजा अपनी प्रजा का पालक पिता होता है, राज करना उसका अधिकार नहीं कर्तव्य होता है, और राजा बनने का अधिकार उसी को मिलना चाहिए जिसमें स्वयं से ऊपर अपनी प्रजा को रखने का गुण हो। ‘मैं मैं’ तो बकरी भी कर लेती है, किन्तु इस सिद्धांत को मानने वाले को ना सत्ता देनी चाहिए ना शक्ति।

‘मैं’ से ऊपर प्रजा को रखने का गुण किन लोगों में था आइए देखें व तब दुर्योधन की माँग के विषय में सोचें:

  • श्रीराम, जिन्होंने अपनी पत्नी के लिए अपने प्रेम से ऊपर अपनी प्रजा के हित को रखा, व अपनी प्राणों से भी अधिक प्रिय जीवनसंगिनी को कटु वचन कहे।
  • चक्रवर्ती महाराज भरत, जिनके कई पुत्र थे, किन्तु उन सबको राजा बनने के अयोग्य पा एक योग्य व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी बनाया।
  • राजा शिबि, जिन्होंने प्रजा की प्राण रक्षा को परम धर्म मानते हुए एक कबूतर के लिए अपने स्वयं के शरीर की आहुति दे दी।
  • श्रीकृष्ण, जिन्होंने अपनी प्रजा के हित के लिए रणभूमि का त्याग किया, कायर कहे गए किन्तु अपनी प्रजा व कुल को मथुरा से द्वारका में ले जाकर उन्हें यादवों के स्वर्णिम युग में पहुँचा दिया।
  • युधिष्ठिर, जिन्हें धूर्तता से उनके राज्य से वंचित किया गया, उनका, उनके भाइयों व पत्नी का अपमान किया गया, किन्तु वन में जाकर उन्हें दुःख इस बात का हुआ कि जो सहस्त्रों साधुगण व हस्तिनापुर के नागरिक उनके साथ प्रेमवश आ गए हैं, वे उनका भरण पोषण कैसे करेंगे, जो एक राजा का कर्तव्य होता है। उनके इसी भाव के कारण सूर्य ने उन्हें अक्षयपात्र प्रदान किया था।

यदि राम व कृष्ण को भगवान मान उनको इस फ़ेहरिस्त से हटा दें, और चलिए शिबि के त्याग व युधिष्ठिर के गुणों को भी भूल जाएँ, तो भी दुर्योधन ने कभी किसी बात से इसका कोई प्रमाण नहीं दिया कि उसके लिए प्रजा का हित या मत उसकी अपनी हठ से अधिक महत्वपूर्ण है। प्रजा युधिष्ठिर से प्रेम करती थी व उन्हीं को राजा के रूप में देखना चाहती थी, इसी कारणवश पुत्रमोह में अंधे धृतराष्ट्र को युधिष्ठिर को युवराज घोषित करना पड़ा। किन्तु क्या पिता या पुत्र ने प्रजा की इच्छा को सर्वोपरि मान उसका सम्मान किया? नहीं। उन्होंने तो पांडवों को जीवित जला देने की साज़िश कर डाली!

कुरु कुल में यह परम्परा थी ही नहीं कि राजा केवल राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही बन सकता है। भरत के दिखाए हुए मार्ग पर चलते हुए कई राजाओं ने ज्येष्ठ का स्थान अन्य को दिया। शान्तनु स्वयं अपने पिता राजा प्रतिप के तीसरे पुत्र थे। बहुत पहले राजा ययाति ने अपनी दूसरी पत्नी असुर राजकुमारी शर्मिशठा के तीसरे पुत्र पुरु को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, जो ययाति का पाँचवा पुत्र था।

तो कहाँ का अधिकार, व कहाँ का हठ! दुर्योधन ने अपने कार्यों से स्वयं को अयोग्य घोषित कर दिया था। वो तो उसका भाग्य अच्छा था कि सिंहासन पर उस समय उसका बुद्धिहीन पिता विराजमान था, जो उसकी इतने वर्ष तक हर अनुचित माँग पूरी होती रही। वरना राजधर्म के अनुसार तो वो राजगद्दी के सर्वथा अयोग्य था। यदि युधिष्ठिर ना भी होते तो भी उसके जैसे चरित्र वाले पुरुष को राजा नहीं बनाया जा सकता था। स्मरण रहे कि कुरूकुल वधू द्रौपदी का अपमान करने के लिए उसे पुरुषों की सभा में जबरन लाने का आदेश उसी का था। जो व्यक्ति एक राज परिवार की स्त्री का सम्मान नहीं कर सकता व उसके माध्यम से उसके पतियों से अपनी दुश्मनी निकाल सकता है, उसके राजा बनने पर उस राज्य की साधारण स्त्रियाँ कितनी सुरक्षित रहेंगी? और न्याय के लिए कहाँ जाएँगी?

नारद ने कहा है कि दुर्योधन पाप का वृक्ष है, धृतराष्ट्र उसकी जड़, कर्ण उसका तना, शकुनि उसकी शाखाएँ व दुशासन उसपर लगने वाले फल-फूल। क्या पाप के वृक्ष को राजा बनना चाहिए था? उस व्यक्ति को जिसने अपने हठ में लाखों-करोड़ों प्राणों की आहुति दे दी? माँग खिलोने की हो सकती है, राजसिंहासन की नहीं।

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