Tuesday, March 31, 2020

तक्षक

कैसे हुई नागो की उत्पत्ति, जानिए ...
हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार, तक्षक पाताल के आठ नागों में से एक नाग जो कश्यप का पुत्र था और कद्रु के गर्भ से उत्पन्न हुआ था श्रृंगी ऋषि का शाप पूरा करने के लिये राजा परीक्षित को इसी ने काटा था। इसी कारण राजा जनमेजय इससे बहुत बिगड़े और उन्होंने संसार भर के साँपों का नाश करने के लिये सर्पयज्ञ आरंभ किया। तक्षक इससे डरकर इंद्र की शरण में चला गया। इसपर जनमेजय ने अपने ऋषियों को आज्ञा दी कि इंद्र यदि तक्षक को न छोड़े, तो उसे भी तक्षक के साथ खींच मँगाओ और भस्म कर दो। ऋत्विकों के मंत्र पढ़ने पर तक्षक साथ इंद्र भी खिंचने लगे। तब इंद्र ने डरकर तक्षक को छोड़ दिया। जब तक्षक खिंचकर अग्निकुंड के समीप पहुँचा, तब आस्तीक ने आकर जनमेजय से प्रार्थना की और तक्षक के प्राण बच गए।
कुछ विद्धानों का विश्वास है कि प्राचीन काल में भारत में तक्षक नाम की एक जाति ही निवास करती थी। नाग जाति के लोग अपने आपको तक्षक की संतान ही बतलाते हैं। प्राचीन काल में ये लोग सर्प का पूजन करते थे। कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि प्राचीन काल में कुछ विशिष्ट अनार्यों को हिंदू लोग तक्षक या नाग कहा करते थे। और ये लोग संभवतः शक थे। तिब्बतमंगोलिया और चीन के निवासी अबतक अपने आपको तक्षक या नाग के वंशधर बतलाते हैं। महाभारत के युद्ध के उपरान्त धीरे धीरे तक्षकों का अधिकार बढ़ने लगा और उत्तर-पश्चिम भारत में तक्षक लोगों का बहुत दिनों तक, यहाँ तक कि सिकन्दर के भारत आने के समय तक राज्य रहा। इनका जातीय चिह्न सर्प था। ऊपर परीक्षित और जनमेजय की जो कथा दी गई है, उसके संबंध में कुछ पाश्चात्य विद्वानों का गत है कि तक्षकों के साथ एक बार पांडवों का बड़ा भारी युद्ध हुआ था जिसमें तक्षकों की जीत हुई थी ओर राजा परीक्षित मारे गए थे, और अंत से जनमेजय ने फिर तक्षशिला में युद्ध करके तक्षकों का नाश किया था और यही घटना जनमेजय के सर्पयज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुई है।
गरुड पुराण के अनुसार
गरुड पुराण में महर्षि कश्यप और तक्षक नाग को लेकर एक सुन्दर उपाख्यान दिया गया है। ऋषि शाप से जब राजा परीक्षित को तक्षक नाग डसने जा रहा था, तब मार्ग में उसकी भेंट कश्यप ऋषि से हुई। तक्षक ने ब्राह्मण का वेश धरकर उनसे पूछा कि वे इस तरह उतावली में कहां जा रहे हैं? इस पर कश्यप ने कहा कि तक्षक नाग महाराज परीक्षित को डसने वाला है। मैं उनका विष प्रभाव दूर करके उन्हें पुन: जीवन दे दूंगा। यह सुनकर तक्षक ने अपना परिचय दिया और उनसे लौट जाने के लिए कहा। क्योंकि उसके विष-प्रभाव से आज तक कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं बचा था। तब कश्यप ऋषि ने कहा कि वे अपनी मन्त्र शक्ति से राज परीक्षित का विष-प्रभाव दूर कर देंगे। इस पर तक्षक ने कहा कि यदि ऐसी बात है तो आप इस वृक्ष को फिर से हरा-भरा करके दिखाइए। मैं इसे डसकर अभी भस्म किए देता हूं। तक्षक ने वृक्ष को अपने विष प्रभाव से तत्काल भस्म कर दिया।
इस पर कश्यप ऋषि ने उस वृक्ष की भस्म एकत्र की और अपना मन्त्र फूंका। तभी तक्षक ने आश्चर्य से देखा कि उस भस्म में से कोंपल फूट आई और देखते ही देखते वह हरा-भरा वृक्ष हो गया। हैरान तक्षक ने ऋषि से पूछा कि वे राजा का भला करने किस कारण से जा रहे हैं? ऋषि ने उत्तर दिया कि उन्हें वहां से प्रचुर धन की प्राप्ति होगी। इस पर तक्षक ने उन्हें उनकी सम्भावना से भी अधिक धन देकर वापस भेज दिया। इस पुराण में कहा गया है कि कश्यप ऋषि का यह प्रभाव 'गरुड़ पुराण' सुनने से ही पड़ा था।

परीक्षित

राजा परीक्षित को तपस्वी ऋषि का अपमान ...
महाभारत के अनुसार परीक्षित अर्जुन के पौत्र, अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा जनमेजय के पिता थे। जब ये गर्भ में तब अश्वथामा ने ब्रम्हशिर अस्त्र से परीक्षित को मारने का प्रयत्न किया था । ब्रम्हशिर अस्त्र का संबंध भी भगवान ब्रम्हा से है तथा ब्रम्हा के ही महान अस्त्र ब्रह्मास्त्र के समान शक्तिशाली, अचूक और घातक कहा गया है। इस घटना के बाद योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने योगबल से उत्तरा के मृत पुत्र को जीवित किया था । महाभारत के अनुसार कुरुवंश के परिक्षीण होने पर जन्म होने से वे 'परीक्षित' कहलाए। युधिष्ठिर आदि पांडव संसार से भली भाँति उदासीन हो चुके थे और तपस्या के अभिलाषी थे। अतः वे शीघ्र ही परीक्षित को हस्तिनापुर के सिंहासन पर बिठा द्रौपदी समेत तपस्या करने चले गए। परीक्षित जब राजसिंहासन पर बैठे तो महाभारत युद्ध की समाप्ति हुए कुछ ही समय हुआ था, भगवान कृष्ण उस समय परमधाम सिधार चुके थे और युधिष्ठिर को राज्य किए ३६ वर्ष हुए थे। राज्यप्राप्ति के अनंतर गंगातट पर उन्होंने तीन अश्वमेघ यज्ञ किए जिनमें अंतिम बार देवताओं ने प्रत्यक्ष आकर बलि ग्रहण किया था। इनके विषय में सबसे मुख्य बात यह है के इन्हीं के राज्यकाल में द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ होना माना जाता है। इस संबंध में भागवत में यह कथा है— एक दिन राजा परीक्षित ने सुना कि कलियुग उनके राज्य में घुस आया है और अधिकार जमाने का मौका ढूँढ़ रहा है। ये उसे अपने राज्य से निकाल बाहर करने के लिये ढूँढ़ने निकले। एक दिन इन्होंने देखा कि एक गाय और एक बैल अनाथ और कातर भाव से खड़े हैं और एक शूद्र जिसका वेष, भूषण और ठाट-बाट राजा के समान था, डंडे से उनको मार रहा है। बैल के केवल एक पैर था। पूछने पर परीक्षित को बैल, गाय और राजवेषधारी शूद्र तीनों ने अपना अपना परिचय दिया। गाय पृथ्वी थी, बैल धर्म ता और शूद्र कलिराज। धर्मरूपी बैल की सत्य, तप और दयारूपी तीन पैर कलियुग ने मारकर तोड़ डाले थे, केवल एक पैर दान के सहारे वह भाग रहा था, उसको भी तोड़ डालने के लिये कलियुग बराबर उसका पीछा कर रहा था। यह वृत्तांत जानकर परीक्षित को कलियुग पर बड़ा क्रोध हुआ और वे उसको मार डालने को उद्यत हुए। पीछे उसके गिड़गिड़ाने पर उन्हें उसपर दया आ गई और उन्होंने उसके रहने के लिये ये स्थान बता दिए—जुआ, स्त्री, मद्य, हिंसा और सोना। इन पाँच स्थानों को छोड़कर अन्यत्र न रहने की कलि ने प्रतिज्ञा की। राजा ने पाँच स्थानों के साथ साथ ये पाँच वस्तुएँ भी उसे दे डालीं—मिथ्या, मद, काम, हिंसा और बैर। इस घटना के कुछ समय बाद महाराज परीक्षित एक दिन आखेट करने निकले। कलियुग बराबर इस ताक में था कि किसी प्रकार परीक्षित का खटका मिटाकर अकंटक राज करें। राजा के मुकुट में सोना था ही, कलियुग उसमें घुस गया। राजा ने एक हिरन के पीछे घोड़े डाला। बहुत दूर तक पीछा करने पर भी वह न मिला। थकावट के कारण उन्हें प्यास लग गई थी। एक वृद्ध मुनि (शमीक) मार्ग में मिले। राजा ने उनसे पूछा कि बताओ, हिरन किधर गया है। मुनि मौनी थे, इसलिये राजा की जिज्ञासा का कुछ उत्तर न दे सके। थके और प्यासे परीक्षित को मुनि के इस व्यवहार से बड़ा क्रोध हुआ। कलियुग सिर पर सवार था ही, परिक्षित ने निश्चय कर लिया कि मुनि ने घमंड के मारे हमारी बात का जवाब नही दिया है और इस अपराध का उन्हें कुछ दंड होना चाहिए। पास ही एक मरा हुआ साँप पड़ा था। राजा ने कमान की नोक से उसे उठाकर मुनि के गले में डाल दिया और अपनी राह ली। (महा., आदि. ३६, १७-२१) मुनि के श्रृंगी नाम का एक महातेजत्वी पुत्र था। वह किसी काम से बाहर गया था। लौटते समय रास्ते में उसने सुना कि कोई आदमी उसके पिता के गले में मृत सर्प की माला पहना गया है। कोपशील श्रृंगी ने पिता के इस अपमान की बात सुनते ही हाथ में जल लेकर शाप दिया कि जिस पापत्मा ने मेरे पिता के गले में मृत सर्प की माला पहनाया है, आज से सात दिन के भीतर तक्षक नाम का सर्प उसे डस ले। आश्रम में पहुँचकर श्रृंगी ने पिता से अपमान करनेवाले को उपर्युक्त उग्र शाप देने की बात कही। ऋषि को पुत्र के अविवेक पर दुःख हुआ और उन्होंने एक शिष्य द्वारा परीक्षित को शाप का समाचार कहला भेजा जिसमें वे सतर्क रहें। परीक्षित ने ऋषि के शाप को अटल समझकर अपने पुत्र जनमेजय को राज पर बिठा दिया और एक खंभे पर ऊंची महल पर सब ओर से सुरक्षित होकर रहने लगे । सातवें दिन तक्षक ने आकर उन्हें डस लिया और विष की भयंकर ज्वाला से उनका शरीर भस्म हो गया। कहते हैं, तक्षक जब परीक्षित को डसने चला तब मार्ग में उसे कश्यप ऋषि मिले। पूछने पर मालूम हुआ कि वे उसके विष से परीक्षित की रक्षा करने जा रहे हैं। तक्षक ने एक वृक्ष पर दाँत मारा, वह तत्काल जलकर भस्म हो गया। कश्यप ने अपनी विद्या से फिर उसे हरा कर दिया। इसपर तक्षक ने बहुत सा धन देकर उन्हें लौटा दिया। देवी भागवत में लिखा हैं, शाप का समाचार पाकर परीक्षित ने तक्षक से अपना रक्षा करने के लिये एक सात मंजिल ऊँचा मकान बनवाया और उसके चारों ओर अच्छे अच्छे सर्प-मंत्र-ज्ञाता और मुहरा रखनेवालों को तैनात कर दिया। तक्षक को जब यह मालूम हुआ तब वह घबराया। अंत को परीक्षित तक पहुँचने को उसे एक उपाय सूझ पड़ा। उसने एक अपने सजातीय सर्प को तपस्वी का रूप देकर उसके हाथ में कुछ फल दे दिए और एक फल में एक अति छोटे कीड़े का रूप धरकर आप जा बैठा। तपस्वी बना हुआ सर्प तक्षक के आदेश के अनुसार परीक्षित के उपर्युक्त सुरक्षित प्रासाद तक पहुँचा। पहरेदारों ने इसे अंदर जाने से रोका, पर राजा को खबर होने पर उन्होंने उसे अपने पास बुलवा लिया और फल लेकर उसे बिदा कर दिया। एक तपस्वी मेरे लिये यह फल दे गया है, अतः इसके खाने से अवश्य उपकार होगा, यह सोचकर उन्होंने और फल तो मंत्रियों में बाँट दिए, पर उसको अपने खाने के लिये काटा। उसमें से एक छोटा कीड़ा निकला जिसका रंग तामड़ा और आँखें काली थीं। परीक्षित ने मंत्रियों से कहा—सूर्य अस्त हो रहा है, अब तक्षक से मुझे कोई भय नहीं। परन्तु ब्राह्मण के शाप की मानरक्षा करना चाहिए। इसलिये इस कीड़ी से डसने की विधि पूरी करा लेता हूँ। यह कहकर उन्होंने उस कीड़े को गले से लगा लिया। परीक्षित के गले से स्पर्श होते ही वह नन्हा सा कीड़ा भयंकर सर्प हो गया और उसके दंशन के साथ परीक्षित का शरीर भस्मसात् हो गया। इस समय परीक्षित की अवस्था ९६ वर्ष की थी। परीक्षित की मृत्यु के बाद, फिर कलियुग की रोक टोक करनेवाला कोई न रहा और वह उसी दिन से अकंटक भाव से शासन करने लगा। पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिये जनमेजय ने सर्पसत्र किया जिसमें सारे संसार के सर्प मंत्रबल से खिंच आए और यज्ञ की अग्नि में उनकी आहुति हुई।

अभिमन्यु चक्रव्यूह से क्या कोई भी रण नीति अपनाकर बच सकता था ?

मेरे विचार से अभिमन्यु की मृत्यु निश्चित थी और तर्कसंगत भी।
अभिमन्यु वास्तव में चंद्र देव के पुत्र अवतार थे। जब चंद्र देव से कहा गया कि वह अपने पुत्र को पृथ्वी पर जन्म लेने दें तो उन्होंने एक शर्त रखी। उन्होंने कहा कि पुत्र मोह के कारण वह सिर्फ 16 वर्षों तक अपने पुत्र से दूर रह सकते हैं। अतः सोलह वर्ष बाद उनके पुत्र को वापस लौटना होगा। इसलिए 16 वर्षीय अभिमन्यु की मृत्यु तर्कसंगत थी। और मौत को कभी टाला नहीं जा सकता।
अभिमन्यु सिर्फ सोलह वर्ष जीवित रहेंगे , यह बात श्रीकृष्ण को पहले से ही पता थी। इसलिए सुभद्रा के गर्भ धारण के समय , जब अर्जुन सुभद्रा को चक्रव्यूह के बारे में बता रहे थे तो कृष्ण ने अर्जुन को सिर्फ चक्रव्यूह में घुसने तरीका सुभद्रा को बताने दिया जो कि अभिमन्यु ने गर्भ में सुन लिया। जैसे ही चक्रव्यूह तोड़ने की बात शुरू हुई , तब सुभद्रा सो गए ओर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को किसी काम से बाहर बुला लिया और बात अधूरी ही रह गई। अतः चक्रव्यूह तोड़ने का ज्ञान अभिमन्यु को नहीं मिल सका।
एक और भी दृष्टिकोण से देखें तो भी अभिमन्यु की मौत ज़रूरी थी। कृष्ण अर्जुन को क्रोध से भरना चाहते थे , तभी अर्जुन कौरवों की विशाल सेना का सफाया कर सकते थे।परन्तु अर्जुन दुविधा में थे क्योंकि अपने सगे संबंधियों से लड़ना नहीं चाहते थे। वह अपने गुरुजन और बड़ों से भी नहीं लड़ना चाहते थे। इसलिए अर्जुन में क्रोध और उग्रता उत्पन्न करने के लिए श्रीकृष्ण ने यह तरकीब सोची। अभिमन्यु की मौत के बाद ही युद्ध पांडवों के पक्ष में मुड़ा और कोरवों को हराने में उन्होंने अपनी पूरी जान लगा दी।
देखिए अभिमन्यु एक तेजस्वी , बुद्धिमान और जोशीले योद्धा थे।उनकी महानता उस समय तक विश्व भर में प्रसिद्ध थी।तो जाहिर सी बात है कि उनकी रण नीति सर्वोत्तम ही रही होगी। जो योद्धा पितामह भीष्म को चुनौती दे सकता था , वह अपने प्रयास में कोई कमी कैसे छोड़ सकता था? बस बात इतनी सी है कि मौत को टालना असंभव है। अगर चक्रव्यूह के रूप में नहीं तो मौत और किसी रूप में अभिमन्यु के सामने प्रकट हो जाती
हो सकता है कि हममें से ही कोई बुद्धिमान व्यक्ति कोई रण नीति बता भी दें जोकि सुनने में अच्छी लगे। परन्तु वास्तव में महाभारत एक ऐसी उत्तम कथा है जिसमें हर घटना के पीछे कोई ना कोई कारण ,या आगे कोई कोई मकसद अवश्य होता था। तो जो कुछ भी महाभारत में हुआ उससे बेहतर और कुछ संभव ही नहीं था। यही सच है।

सुदर्शन चक्र

सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का शस्त्र है। इसको उन्होंने स्वयं तथा उनके कृष्ण अवतार ने धारण किया है। किंवदंती है कि इस चक्र को विष्णु ने गढ़वाल के श्रीनगर स्थित कमलेश्वर शिवालय में तपस्या कर के प्राप्त किया था।
सुदर्शन चक्र अस्त्र के रूप में प्रयोग किया जाने वाला एक चक्र, जो चलाने के बाद अपने लक्ष्य पर पहुँचकर वापस आ जाता है। यह चक्र भगवानविष्णु को 'हरिश्वरलिंग' (शंकर) से प्राप्त हुआ था।[1] सुदर्शन चक्र को विष्णु ने उनके कृष्ण के अवतार में धारण किया था। श्रीकृष्ण ने इस चक्र से अनेक राक्षसों का वध किया था। सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का अमोघ अस्त्र है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इस चक्र ने देवताओं की रक्षा तथा राक्षसों के संहार में अतुलनीय भूमिका का निर्वाह किया था।
सुदर्शन चक्र एक ऐसा अचूक अस्त्र था कि जिसे छोड़ने के बाद यह लक्ष्य का पीछा करता था और उसका काम तमाम करके वापस छोड़े गए स्थान पर आ जाता था। चक्र को विष्णु की तर्जनी अंगुली में घूमते हुए बताया जाता है। सबसे पहले यह चक्र उन्हीं के पास था। सिर्फ देवताओं के पास ही चक्र होते थे। चक्र सिर्फ उस मानव को ही प्राप्त होता था जिसे देवता लोग नियुक्त करते थे।
भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति से सम्बन्धित एक अन्य प्रसंग निम्नलिखित है-
एक बार जब दैत्यों के अत्याचार बहुत बढ़ गए, तब सभी देवता श्रीहरि विष्णु के पास आए। तब भगवान विष्णु ने कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव की विधिपूर्वक आराधना की। वे हजार नामों से शिव की स्तुति करने लगे। वे प्रत्येक नाम पर एक कमल पुष्प भगवान शिव को चढ़ाते। तब भगवान शंकर ने विष्णु की परीक्षा लेने के लिए उनके द्वारा लाए एक हजार कमल में से एक कमल का फूल छिपा दिया। शिव की माया के कारण विष्णु को यह पता न चला। एक फूल कम पाकर भगवान विष्णु उसे ढूँढने लगे। परंतु फूल नहीं मिला। तब विष्णु ने एक फूल की पूर्ति के लिए अपना एक नेत्र निकालकर शिव को अर्पित कर दिया। विष्णु की भक्ति देखकर भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए और श्रीहरि के समक्ष प्रकट होकर वरदान मांगने के लिए कहा। तब विष्णु ने दैत्यों को समाप्त करने के लिए अजेय शस्त्र का वरदान माँगा। तब भगवान शंकर ने विष्णु को सुदर्शन चक्र प्रदान किया। विष्णु ने उस चक्र से दैत्यों का संहार किया। इस प्रकार देवताओं को दैत्यों से मुक्ति मिली तथा सुदर्शन चक्र उनके स्वरूप के साथ सदैव के लिए जुड़ गया।
भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण ने इस चक्र से अनेक राक्षसों का वध किया था। भगवान विश्वकर्मा की बेटी का विवाह भगवान सूर्य से हुआ था। शादी के बाद भी उनकी बेटी खुश नहीं थी, कारण, सूर्य की गर्मी और उनका ताप जिसके कारण वो अपना वैवाहिक जीवन नहीं जी पा रही थी, और फिर बेटी के कहने पर भगवान ने सूर्य से थोड़ी सी चमक और ताप ले के पुष्पक विमान का निर्माण किया। इसके साथ ही साथ भगवान शिव के त्रिशूल और भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र का निर्माण किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्री विष्णु को सौंप दिया था।
सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु को कैसे प्राप्त हुआ, इस विषय में एक कथा प्रचलित है, जो इस प्रकार है-
प्राचीन समय में 'वीतमन्यु' नामक एक ब्राह्मण थे। वह वेदों के ज्ञाता थे। उनकी 'आत्रेयी' नाम की पत्नी थी, जो सदाचार युक्त थीं। उन्हें लोग 'धर्मशीला' के नाम से भी बुलाते थे। इस ब्राह्मण दंपति का एक पुत्र था, जिसका नाम 'उपमन्यु' था। परिवार बेहद निर्धनता में पल रहा था। गरीबी इस कदर थी कि धर्मशीला अपने पुत्र को दूध भी नहीं दे सकती थी। वह बालक दूध के स्वाद से अनभिज्ञ था। धर्मशीला उसे चावल का धोवन ही दूध कहकर पिलाया करती थी। एक दिन ऋषि वीतमन्यु अपने पुत्र के साथ कहीं प्रीतिभोज में गये। वहाँ उपमन्यु ने दूध से बनी हुई खीर का भोजन किया, तब उसे दूध के वास्तविक स्वाद का पता लग गया। घर आकर उसने चावल के धोवन को पीने से इंकार कर दिया। दूध पाने के लिए हठ पर अड़े बालक से उसकी माँ धर्मशीला ने कहा- "पुत्र, यदि तुम दूध को क्या, उससे भी अधिक पुष्टिकारक तथा स्वादयुक्त पेय पीना चाहते हो तो विरूपाक्ष महादेव की सेवा करो। उनकी कृपा से अमृत भी प्राप्त हो सकता है।" उपमन्यु ने अपनी माँ से पूछा- "माता, आप जिन विरूपाक्ष भगवान की सेवा-पूजा करने को कह रही हैं, वे कौन हैं?"
धर्मशीला ने अपने पुत्र को बताया कि प्राचीन काल में श्रीदामा नाम से विख्यात एक महान असुर राज था। उसने सारे संसार को अपने अधीन करके लक्ष्मी को भी अपने वश में कर लिया। उसके यश और प्रताप से तीनों लोक श्रीहीन हो गये। उसका मान इतना बढ़ गया था कि वह भगवान विष्णु के श्रीवत्स को ही छीन लेने की योजना बनाने लगा। उस महाबलशाली असुर की इस दूषित मनोभावना को जानकर उसे मारने की इच्छा से भगवान विष्णु महेश्वर शिव के पास गये। उस समय महेश्वर हिमालय की ऊंची चोटी पर योगमग्न थे। तब भगवान विष्णु जगन्नाथ के पास जाकर एक हजार वर्ष तक पैर के अंगूठे पर खड़े रह कर परब्रह्म की उपासना करते रहे। भगवान विष्णु की इस प्रकार कठोर साधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें 'सुदर्शन चक्र' प्रदान किया। उन्होंने सुदर्शन चक्र को देते हुए भगवान विष्णु से कहा- "देवेश! यह सुदर्शन नाम का श्रेष्ठ आयुध बारह अरों, छह नाभियों एवं दो युगों से युक्त, तीव्र गतिशील और समस्त आयुधों का नाश करने वाला है। सज्जनों की रक्षा करने के लिए इसके अरों में देवता, राशियाँ, ऋतुएँ, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण, शचीपति इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति, हनुमान,धन्वन्तरि, तप तथा चैत्र से लेकर फाल्गुन तक के बारह महीने प्रतिष्ठित हैं। आप इसे लेकर निर्भीक होकर शत्रुओं का संहार करें। तब भगवान विष्णु ने उस सुदर्शन चक्र से असुर श्रीदामा को युद्ध में परास्त करके मार डाला।[2]
इस आयुध की खासियत थी कि इसे तेजी से हाथ से घुमाने पर यह हवा के प्रवाह से मिल कर प्रचंड़ वेग से अग्नि प्रज्जवलित कर दुश्मन को भस्म कर देता था। यह अत्यंत सुंदर, तीव्रगामी, तुरंत संचालित होने वाला एक भयानक अस्त्र था।
भगवान श्री कृष्ण के पास यह देवी की कृपा से आया। यह चांदी की शलाकाओं से निर्मित था। इसकी ऊपरी और निचली सतहों पर लौह शूल लगे हुए थे। इसके साथ ही इसमें अत्यंत विषैले किस्म के विष, जिसे द्विमुखी पैनी छुरियों मे रखा जाता था, इसका भी उपयोग किया गया था। इसके नाम से ही विपक्षी सेना में मौत का भय छा जाता था।

कृष्ण और शकुनि के बीच एक बेहतर राजनीतिज्ञ कौन है?

कृष्ण और शकुनि के बीच बेहतर राजनीतिज्ञ कौन था? निस्सन्देह कृष्ण। उस युग के किसी भी अन्य राजनीतिज्ञ की तुलना में सदैव कृष्ण ही श्रेष्ठ रहे।
मेरे ऐसा सोचने के कई कारण हैं।
पहला तो यह, कि शकुनि राजनीतिज्ञ था ही नहीं। उससे धुरंधर राजनीतिज्ञ दुर्योधन, विदुर, धृतराष्ट्र व कर्ण थे। TV पर गूफ़ी पेंटल व प्रणीत भट्ट की अदाकारी लोगों के मस्तिष्क पर छाई हुई है, किन्तु महाभारत का शकुनि ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। ना वो लँगड़ा था व ना कुरूप, और ना ही उसका हस्तिनापुर से बैर था। ना वो षड्यंत्र बनाता था व ना दुर्योधन उसके कहने पर चलता था।
शकुनि हस्तिनापुर में रहता था, मात्र इसलिए क्योंकि वो अपने भांजों की परवरिश व उनकी देखभाल कर सके, क्योंकि उसके भांजों का पिता आँखों से अंधा था व माता अक़्ल से, जो उसने ज़बरदस्ती अंधापन ओढ़ लिया था। शकुनि सत्य में दुर्योधन से प्रेम करता था, व उसके अंदर हस्तिनापुर या भीष्म या धृतराष्ट्र के प्रति कोई बदले की भावना नहीं थी। उसकी बुद्धि कुटिल अवश्य थी, इसलिए उसने दुर्योधन को पांडवों से वैमनस्य सिखाया व दुर्योधन के हर षड्यंत्र में शामिल हुआ। किन्तु आज्ञा सदैव दुर्योधन की होती थी। शकुनि का ध्येय था दुर्योधन को हस्तिनापुर का सम्राट बनाना, व इसके लिए जो दुर्योधन ने उससे करवाया, उसने किया। वो एक कुशल द्यूत का खिलाड़ी था, किन्तु राजनीतिज्ञ नहीं था। द्यूत खेलने की सलाह उसकी थी, क्योंकि वो द्यूत में कुशल था व जानता था कि युधिष्ठिर को द्यूत में हराकर उनका राज्य बिना युद्ध के जीता जा सकता है। अतः उसने सुझाव दिया था, किन्तु योजना दुर्योधन की थी। द्रौपदी को दाँव पर लगाने के लिए युधिष्ठिर को आदेश उसने दिया था, क्योंकि दुर्योधन की ओर से वही खेल रहा था, व कदाचित यही दुर्योधन की योजना रही हो। किन्तु जैसा TV पर दिखाया जाता है कि सारी कुटिल योजनाएँ शकुनि बनाता था व दुर्योधन उसका अनुसरण करता था व कर्ण कोई अन्य रास्ता ना देख कर चुप हो जाता था, महाभारत ग्रंथ की वास्तविकता उससे बहुत भिन्न है।
सत्य यह है, कि चार दुशचरित्रों- दुर्योधन, कर्ण, शकुनि व दुशासन- में सबसे बड़ा राजनीतिज्ञ दुर्योधन था। जिस तरह युधिष्ठिर को बाल्यकाल से राजा बनने की शिक्षा मिली थी, उसी तरह दुर्योधन को भी मिली थी। अंतर यह था कि युधिष्ठिर का मन व आचरण धर्म की ओर था व वे अपने फ़ायदे के लिए किसी का बुरा नहीं सोचते थे, और दुर्योधन अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कुछ भी कर सकता था। राजनीति एक भावी राजा को आरम्भ से सिखाई जाती है, और दुर्योधन ने उसका उपयोग पांडवों पर करना आरम्भ कर दिया था। भीम को मारने की अनगिनत साज़िशें, रंगभूमि का नाटक, लाक्षागृह, यह सब दुर्योधन के मस्तिष्क की उपज थे, शकुनि के नहीं। शकुनि आरम्भ में दुर्योधन का सलाहकार रहा होगा, किन्तु बाद में यह स्थान कर्ण ने ले लिया था व शकुनि इनके आदेशों का पालन करता था।
TV पर शकुनि को कुटिल व कुशल राजनीतिज्ञ दिखाने के कई कारण हैं। एक तो यह, कि दुर्योधन को उन्हें एक घृणित खलनायक के रूप में दिखाना है, व यदि उसे शातिर दिमाग़ वाला दिखाया जाएगा तो लोग उसके प्रशंसक बन सकते हैं। अतः वो बलवान, किन्तु शकुनि के कथनों पर चलने वाला एक अधर्मी बेवक़ूफ़ दिखाया जाता है। दूसरे, उन्हें कर्ण को हर हालत में एक क़िस्मत का मारा बेचारा दिखाना है, जो नियति से बुरे लोगों के बीच फँस गया किन्तु जिसका अपना चरित्र उज्जवल है। यदि शकुनि के चरित्र को खलनायक नहीं बनाएँगे तो कर्ण का असली रूप सामने आ जाएगा, जो था दुर्योधन के मुख्य सलाहकार व उसके बराबर के षड्यंत्रकारी का। तीसरा कारण है पैसा व प्रसिद्धि। यदि सत्य दिखाने जाएँगे तो या तो जनता कहेगी कि झूठ दिखा रहे हैं, या जाति की राजनीति करने वाले खड़े हो जाएँगे कि हमारे नायक को बुरा बता रहे हैं! और उनका सीरीयल ठप्प हो जाएगा।
शकुनि का दुर्योधन के प्रति लगाव व दुर्योधन के गुट में उसका स्थान इसी बात से ही साफ़ हो जाता है कि पांडवों के निर्वासन के १०वें वर्ष में जब घोषयात्रा के बहाने दुर्योधन अपने मित्रों, भाइयों व स्त्रियों को लेकर पांडवों को अपनी समृद्धि दिखाकर ईर्ष्या से जलाने के लिए वन में गया था, जहाँ गंधर्वों से उसका युद्ध हो गया था व उसे व उसकी स्त्रियों को बंदी बना लिया गया था, तब कर्ण के पलायन करने के बाद युधिष्ठिर की आज्ञा से अर्जुन ने उसे बचाया था। इसके पश्चात अर्जुन ने उसे व उसकी स्त्रियों को मुक्त करा कर सम्मान के साथ हस्तिनापुर की ओर भेज दिया था, व बदले में ना कुछ कहा, ना माँगा, व ना कोई उलाहना या गाली दी। इससे दुर्योधन को बहुत लज्जा आयी व वो आत्मग्लानि व शर्म के मारे आत्महत्या करने की सोचने लगा। वो वन में ही बैठ गया व उसने दुशासन को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। किन्तु उसे छोड़कर जाने को ना दुशासन तैयार था व ना शकुनि। दोनों ही दुर्योधन की बातों से द्रवित हो गए थे। शकुनि ने दुर्योधन के प्राण बचाने के लिए उस समय उसे सलाह दी कि वो युधिष्ठिर को उनका राज्य लौटा कर संधि कर ले, जिससे उसका पश्चाताप पूर्ण हो जाए व उसके प्राण भी बच जाएँ। तभी कर्ण ने कहा कि दुर्योधन के प्राण बचाना तो पांडवों का कर्तव्य था, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। फिर उसने अर्जुन का वध करने का वचन दिया, इससे दुर्योधन को यह सोचकर दुखी होने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी कि अर्जुन ने उसके प्राण बचाए थे! दुर्योधन कर्ण की बात मानकर प्रसन्न होकर हस्तिनापुर लौट गया। यह था दुर्योधन के गुट में शकुनि का महत्व!
स्त्रोत: आरण्यक पर्व, घोषयात्रा पर्व, सातवालेकर द्वारा सम्पूर्ण महाभारत का हिंदी अनुवाद।
अब आते हैं कृष्ण की राजनीति पर।
कृष्ण जैसी राजनीति पर पकड़ व दूर दृष्टि उस समय किसी के पास नहीं थी। कंस के वध के बाद मथुरा पर चारों ओर से जरासंध व उसके मित्र आक्रमण करते थे। जरासंध के साथ शाल्व, शिशुपाल, एकलव्य, पौंद्रक, रुक्मि, इत्यादि बहुत राजा थे। कृष्ण उस समय एक किशोर थे, किन्तु उन्होंने तब भी यह देख लिया था कि बार बार के आक्रमण झेलने से प्रजा को कितना दुःख उठाना पड़ रहा है। वो जान गए कि ना तो वे इतने सारे शत्रुओं का एक साथ नाश करने की स्थिति में थे, व ना निरंतर आक्रमणों से जूझते हुए उनकी प्रजा कभी ख़ुशहाल हो पाएगी। अतः उन्होंने वो निर्णय लिया जो एक क्षत्रिय योद्धा कभी नहीं सोचता-उस जगह को छोड़ सुदूर बसने का निर्णय। द्वारिका पहुँचकर समुद्र से व्यापार के रास्ते खुल गए, व शांति से रहते हुए यदुकुल समृद्धि की पराकाष्ठा तक पहुँच गया। फिर कृष्ण ने आराम से, अपने तय किए हुए समय व स्थान पर, अपने सभी शत्रुओं का एक-एक करके वध कर दिया। कुरुक्षेत्र के युद्ध तक कृष्ण का कोई भी शत्रु जीवित नहीं था।
द्रौपदी के स्वयंवर में उन्होंने अर्जुन व भीम का पराक्रम देखा, व अपनी शक्ति व सामर्थ्य उनके पीछे लगा दिया। युधिष्ठिर के धर्म से प्रभावित हो उन्हें सम्राट बनाने में कृष्ण का बहुत बड़ा हाथ था। द्यूत के समय वो शाल्व से लड़ने में व्यस्त थे, और तभी उनकी युक्ति से व पांडवों के बल से बनाया हुआ साम्राज्य दुर्योधन ने हड़प लिया। किन्तु कृष्ण ने युधिष्ठिर को पुनः स्थापित करने के लिए अपने भाई व कुल के विरुद्ध जाकर पांडवों की सहायता की। कदाचित बलराम की भावनाओं का मान रखते हुए उन्होंने शस्त्र ना उठाने का निर्णय लिया, किन्तु उनका मस्तिष्क किसी शस्त्र से कम नहीं था। अर्जुन को उनसे अधिक कोई नहीं समझता था, और उन्होंने अर्जुन से हर वो कार्य करा लिया जो वो नहीं करना चाहते थे। युधिष्ठिर भी उनके वर्चस्व, उनकी रणनीति व राजनीति पर पकड़ को पहचानते थे, जिसके कारण विजय का श्रेय उन्होंने शस्त्र ना उठाने वाले कृष्ण को दिया। क्योंकि यदि अर्जुन का मार्गदर्शन कृष्ण ना करते तो अर्जुन युद्ध लड़ते ही नहीं, और यह युधिष्ठिर जानते थे। युद्ध के पश्चात उन्होंने पुनः युधिष्ठिर को सम्राट बनाया। अब तनिक सोचिए, यह सब कार्य एक ऐसे व्यक्ति ने किया जिसे जन्म के समय ही त्याग दिया गया था, जो किशोरावस्था तक विद्या व शास्त्रों के ज्ञान से वंचित रहा, जिसका बचपन ग़्वालों के संग गाय चराते बीता, जो ना भाइयों में ज्येष्ठ था व ना राजा, जिसकी अनेकों बार हत्या के प्रयास हुए, जिसका दुश्मन आधा आर्यवर्त था, जिसे अपना ही राज्य छोड़कर दूर बसना पड़ा, व एक समय जिसका कोई शक्तिशाली मित्र नहीं था।
दुर्योधन या धृतराष्ट्र की राजनीति मात्र हस्तिनापुर के राजसिंहासन तक ही सीमित थी, कृष्ण की राजनीति के घेरे में सम्पूर्ण आर्यवर्त था। दुर्योधन दूर की सोच सकता तो युधिष्ठिर का राज्य जीत कर चुप हो जाता, द्रौपदी का अपमान ना करता। किन्तु द्रौपदी का अपमान कर उसने पांडवों के साथ कृष्ण से भी बैर मोल ले लिया जो उसके विनाश का कारण बना। कृष्ण ने अपमान करने वालों तो क्या, चुपचाप बैठने वालों में से भी किसी को जीवित नहीं रहने दिया। कृष्ण से शकुनि तो क्या, किसी का कोई मुक़ाबला नहीं था।
फुटनोट:

Monday, March 23, 2020

क्या दुर्योधन के लिए हस्तिनापुर के सिंहासन की माँग उचित थी? यदि हाँ तो क्यों?

जहाँ तक माँग करने का प्रश्न है, तो एक राजकुमार होने के नाते माँग तो वो कर ही सकता था। किन्तु क्या यह माँग उचित थी? नहीं।

राजगद्दी कोई मोह की वस्तु नहीं होती जिसे पाने की लालसा की जाए या जिसपर अपना अधिकार जताया जाय। राजा अपनी प्रजा का पालक पिता होता है, राज करना उसका अधिकार नहीं कर्तव्य होता है, और राजा बनने का अधिकार उसी को मिलना चाहिए जिसमें स्वयं से ऊपर अपनी प्रजा को रखने का गुण हो। ‘मैं मैं’ तो बकरी भी कर लेती है, किन्तु इस सिद्धांत को मानने वाले को ना सत्ता देनी चाहिए ना शक्ति।

‘मैं’ से ऊपर प्रजा को रखने का गुण किन लोगों में था आइए देखें व तब दुर्योधन की माँग के विषय में सोचें:

  • श्रीराम, जिन्होंने अपनी पत्नी के लिए अपने प्रेम से ऊपर अपनी प्रजा के हित को रखा, व अपनी प्राणों से भी अधिक प्रिय जीवनसंगिनी को कटु वचन कहे।
  • चक्रवर्ती महाराज भरत, जिनके कई पुत्र थे, किन्तु उन सबको राजा बनने के अयोग्य पा एक योग्य व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी बनाया।
  • राजा शिबि, जिन्होंने प्रजा की प्राण रक्षा को परम धर्म मानते हुए एक कबूतर के लिए अपने स्वयं के शरीर की आहुति दे दी।
  • श्रीकृष्ण, जिन्होंने अपनी प्रजा के हित के लिए रणभूमि का त्याग किया, कायर कहे गए किन्तु अपनी प्रजा व कुल को मथुरा से द्वारका में ले जाकर उन्हें यादवों के स्वर्णिम युग में पहुँचा दिया।
  • युधिष्ठिर, जिन्हें धूर्तता से उनके राज्य से वंचित किया गया, उनका, उनके भाइयों व पत्नी का अपमान किया गया, किन्तु वन में जाकर उन्हें दुःख इस बात का हुआ कि जो सहस्त्रों साधुगण व हस्तिनापुर के नागरिक उनके साथ प्रेमवश आ गए हैं, वे उनका भरण पोषण कैसे करेंगे, जो एक राजा का कर्तव्य होता है। उनके इसी भाव के कारण सूर्य ने उन्हें अक्षयपात्र प्रदान किया था।

यदि राम व कृष्ण को भगवान मान उनको इस फ़ेहरिस्त से हटा दें, और चलिए शिबि के त्याग व युधिष्ठिर के गुणों को भी भूल जाएँ, तो भी दुर्योधन ने कभी किसी बात से इसका कोई प्रमाण नहीं दिया कि उसके लिए प्रजा का हित या मत उसकी अपनी हठ से अधिक महत्वपूर्ण है। प्रजा युधिष्ठिर से प्रेम करती थी व उन्हीं को राजा के रूप में देखना चाहती थी, इसी कारणवश पुत्रमोह में अंधे धृतराष्ट्र को युधिष्ठिर को युवराज घोषित करना पड़ा। किन्तु क्या पिता या पुत्र ने प्रजा की इच्छा को सर्वोपरि मान उसका सम्मान किया? नहीं। उन्होंने तो पांडवों को जीवित जला देने की साज़िश कर डाली!

कुरु कुल में यह परम्परा थी ही नहीं कि राजा केवल राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही बन सकता है। भरत के दिखाए हुए मार्ग पर चलते हुए कई राजाओं ने ज्येष्ठ का स्थान अन्य को दिया। शान्तनु स्वयं अपने पिता राजा प्रतिप के तीसरे पुत्र थे। बहुत पहले राजा ययाति ने अपनी दूसरी पत्नी असुर राजकुमारी शर्मिशठा के तीसरे पुत्र पुरु को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, जो ययाति का पाँचवा पुत्र था।

तो कहाँ का अधिकार, व कहाँ का हठ! दुर्योधन ने अपने कार्यों से स्वयं को अयोग्य घोषित कर दिया था। वो तो उसका भाग्य अच्छा था कि सिंहासन पर उस समय उसका बुद्धिहीन पिता विराजमान था, जो उसकी इतने वर्ष तक हर अनुचित माँग पूरी होती रही। वरना राजधर्म के अनुसार तो वो राजगद्दी के सर्वथा अयोग्य था। यदि युधिष्ठिर ना भी होते तो भी उसके जैसे चरित्र वाले पुरुष को राजा नहीं बनाया जा सकता था। स्मरण रहे कि कुरूकुल वधू द्रौपदी का अपमान करने के लिए उसे पुरुषों की सभा में जबरन लाने का आदेश उसी का था। जो व्यक्ति एक राज परिवार की स्त्री का सम्मान नहीं कर सकता व उसके माध्यम से उसके पतियों से अपनी दुश्मनी निकाल सकता है, उसके राजा बनने पर उस राज्य की साधारण स्त्रियाँ कितनी सुरक्षित रहेंगी? और न्याय के लिए कहाँ जाएँगी?

नारद ने कहा है कि दुर्योधन पाप का वृक्ष है, धृतराष्ट्र उसकी जड़, कर्ण उसका तना, शकुनि उसकी शाखाएँ व दुशासन उसपर लगने वाले फल-फूल। क्या पाप के वृक्ष को राजा बनना चाहिए था? उस व्यक्ति को जिसने अपने हठ में लाखों-करोड़ों प्राणों की आहुति दे दी? माँग खिलोने की हो सकती है, राजसिंहासन की नहीं।

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...