Friday, May 1, 2020

युयुत्सु

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गांधारी जब गर्भवती थी तब धृतराष्ट्र की सेवा आदि कार्य करने के लिए एक वणिक वर्ग की दासी रखी गई थी। धृतराष्ट्र ने उस दासी से ही सहवास कर लिया। सहवास के कारण दासी भी गर्भवती हो गई। उस दासी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम युयुत्सु रखा गया।
क्यों पाला बदला युयुत्सु ने?
युयुत्सु एक धर्मात्मा था, इसलिए दुर्योधन की अनुचित चेष्टाओं को बिल्कुल पसन्द नहीं करता था और उनका विरोध भी करता था। इस कारण दुर्योधन और उसके अन्य भाई उसको महत्त्व नहीं देते थे और उसका हास्य भी उड़ाते थे। युयुत्सु ने महाभारत युद्ध रोकने का अपने स्तर पर बहुत प्रयास किया था लेकिन उसकी नहीं चलती थी। जब युद्ध प्रारंभ हुआ तो पहले तो वह कौरवों की ओर ही था।
युद्ध के प्रारंभ होने वाले दिन एन वक्त पर युधिष्ठिर ने उसे समझाया कि तुम अधर्म का साथ दे रहे हो। ऐसे में युयुत्सु ने विचार किया और वह डंका बजाते हुए कौरवों की सेना से पांडवों की सेना की ओर आ गया। हालांकि किस्सा यह था कि युद्ध प्रारम्भ होने से ठीक पहले युधिष्ठिर ने कौरव सेना को सुनाते हुए घोषणा की- "मेरा पक्ष धर्म का है। जो धर्म के लिए लड़ना चाहते हैं, वे अभी भी मेरे पक्ष में आ सकते हैं। मैं उसका स्वागत करूंगा।" इस घोषणा को सुनकर केवल युयुत्सु कौरव पक्ष से निकलकर आया और पांडव के पक्ष में शामिल हो गया। युधिष्ठिर ने गले लगाकर उसका स्वागत किया।
ये कार्य सौंपा था युयुत्सु को :
अपने खेमे में आने के बाद युधिष्ठिर ने एक विशेष रणनीति के तहत युयुत्सु को सीधे युद्ध के मैदान में नहीं उतारा बल्कि एक महत्वपूर्ण कार्य सौंपा। युधिष्ठिर जानते थे कि वह इस कार्य में सबसे योग्य है। युधिष्ठिर ने उसकी योग्यता को देखते हुए उसे योद्धाओं के लिए हथियारों और रसद की आपूर्ति व्यवस्था का प्रबंध देखने के लिए नियुक्त किया। पांडवों की 7 अक्षौहिणी (9 लाख के आसपास) सेना थी। युयुत्सु ने अपने इस दायित्व को बहुत जिम्मेदारी के साथ निभाया और अभावों के बावजूद पांडव पक्ष को हथियारों और रसद की कमी नहीं होने दी। उल्लेखनीय है कि उडुपी के राजा को भोजन व्यवस्था सौंपी गई थी।
महाभारत युद्ध से पूर्व पांडवों ने अपनी सेना का पड़ाव कुरुक्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में सरस्वती नदी के दक्षिणी तट पर बसे समंत्र पंचक तीर्थ के पास हिरण्यवती नदी (सरस्वती नदी की सहायक नदी) के तट पर डाला। कौरवों ने कुरुक्षेत्र के पूर्वी भाग में वहां से कुछ योजन की दूरी पर एक समतल मैदान में अपना पड़ाव डाला। दोनों ओर के शिविरों में सैनिकों के भोजन और घायलों के इलाज की उत्तम व्यवस्था थी। हाथी, घोड़े और रथों की अलग व्यवस्था थी। हजारों शिविरों में से प्रत्येक शिविर में प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र, यंत्र और कई वैद्य और शिल्पी वेतन देकर रखे गए। दोनों सेनाओं के बीच में युद्ध के लिए 5 योजन (1 योजन= 8 किमी की परिधि, विष्णु पुराण के अनुसार 4 कोस या कोश= 1 योजन= 13 किमी से 16 किमी)= 40 किमी का घेरा छोड़ दिया गया था।
युद्ध में बच गए 18 योद्धाओं में युयुत्सु भी एक थे। युद्ध के बाद महाराजा युधिष्ठिर ने उन्हें अपना मंत्री बनाया था। जब युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग जाने लगे तब उन्होंने परीक्षित को राजा और युयुत्सु को उनका संरक्षक बना दिया था। धृतराष्ट्र की मृत्यु के उपरान्त युयुत्सु ने ही उन्हें मुखाग्नि दे कर पुत्र धर्म निभाया। यह माना जाता है कि उत्तर प्रदेश के पश्चिमी और राजस्थान के पूर्वी भागों में रहने वाले जाट जाति के लोग उन्हीं महात्मा युयुत्सु के वंशज हैं।

महाभारत में "अर्जुन का रथ" जलने का रहस्य

प्रेरक प्रसंग: जब अर्जुन को अहंकार ...

युद्ध समाप्त होते ही कृष्ण और हनुमान जी रथ से उतरे कि रथ मै आग लग गयी इसका अध्यात्मिक अर्थ हे
की रथ शरीर हे इसमे आत्मा कृष्ण हे,और श्वास ही हनुमान हे ,शरीर से श्वासरूपी हनुमान और आत्मारूपी कृष्ण के निकलते ही इस शरीर रूपी रथ मै भी चिता के रूप मै आग लग जाती हे।

धर्म की स्थापना के लिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता उपदेश देकर महाभारत युद्ध का चक्रव्यू रचा, इस युद्ध में धर्म-अधर्म, असत्य-सत्य, जीवन से जुड़े कई सार को जानने की रोचक गाथा हैं.महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ से जुड़ी भी बेहद दिलचस्प कथा है। यह ऐसा रथ था जिसके ऊपर पताका में हनुमानजी विराजमान थे और इसके सारथी स्वयं श्रीकृष्ण थे। यही नहीं, शेषनाग ने पृथ्वी के नीचे से अर्जुन के रथ के पहियों को पकड़ रखा था ताकि इस महत्वपूर्ण युद्ध में एक पल के लिए रथ का संतुलन नहीं बिगड़े|

फिर ऐसा क्या हुआ कि अर्जुन का ये दिव्य रथ युद्ध के बाद जलकर खाक हो गया?
ऐसी कथा है कि महाभारत के युद्ध के ठीक बाद अर्जुन के रथ में आग लग गई थी और ये जलकर स्वाहा हो गया। यह ऐसा रथ था जो जररूत पड़ने पर किसी भी दिशा और किसी भी लोक में भ्रमण कर सकता था। महाभारत के अनुसार, जब कौरव सेना का नाश हो गया तो दुर्योधन भाग कर एक तालाब में छिप गया। पांडवों को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने दुर्योधन को युद्ध के लिए ललकारा। दुर्योधन तालाब से बाहर निकला और भीम ने उसे पराजित कर दिया। दुर्योधन को मरणासन्न अवस्था में छोड़कर पांडव अपने-अपने रथों पर कौरवों के शिविर में आए। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पहले रथ से उतरने को कहा, बाद में वे स्वयं उतरे।
अर्जुन का रथ युद्ध के बाद इसलिए जल गया था, श्रीकृष्ण ने बताया राज़
श्रीकृष्ण के उतरते ही अर्जुन के रथ पर बैठे हनुमानजी भी उड़ गए। तभी देखते ही देखते अर्जुन का रथ जल कर राख हो गया। यह देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से इसका कारण पूछा? तब श्रीकृष्ण ने बताया कि ये रथ तो दिव्यास्त्रों के वार से पहले ही जल चुका था, सिर्फ मेरे बैठे रहने के कारण ही अब तक यह भस्म नहीं हुआ था। जब तुम्हारा काम पूरा हो गया, तभी मैंने इस रथ को छोड़ा। इसलिए यह अभी भस्म हुआ है।

महाभारत में शकुनि ने बदला लेने का षड्यंत्र क्यों बनाया था?

महाभारत में शकुनि पर हुआ था अत्याचार ...

यह लोकमान्यता है और सम्भवतः कुछ पुराणों में भी आया है कि शकुनि ने कुरुवंश के कारण हुए अपने अपमान का बदला लेने के लिए कौरव पाण्डवों में फूट डाली और इस प्रकार भारत के इस सबसे प्रतिष्ठित राजवंश को विनाश के कगार पर पहुँचाकर अपना बदला लिया। यह अपमान क्या था इस बारे में दो मत हैं। एक मत के अनुसार शकुनि अपनी बहिन का अन्धे धृतराष्ट्र से विवाह होने से नाराज था और इसे वह अपना अपमान मानता था। (इस मत के अनुसार यह विवाह भीष्म के दबाव में हुआ था।) दूसरे मत के अनुसार कुरुवंशियों ने शकुनि के पूरे परिवार को जेल में डालकर और निराहार रखकर खत्म कर दिया था। केवल शकुनि बचा था जिसने अपने परिवार की इस दुर्दशा का बदला लेने का संकल्प किया था। यह भी कहा जाता है कि कारागार में मरते समय सुबल (शकुनि के पिता) ने उसे अपनी हड्डी से पासा बनाने को कहा था और इस पासे की चमत्कारिक शक्ति से ही शकुनि जुए में हर बार जीतता था।

किन्तु लोकमान्यताएँ और मिथक सत्य का मानदण्ड नहीं होतीं। यद्यपि यह सच है कि महाभारत के प्रमाण मुख्यतः साहित्यिक हैं तभी भी प्रामाणिक और अप्रामाणिक स्रोतों में अन्तर होता है। महाभारत की घटनाओं की प्रामाणिकता का आधार वेदव्यास रचित महाभारत ही हो सकती है न कि बी आर चोपड़ा व अन्य धारावाहिक निर्माताओं द्वारा बनाये गये धारावाहिकों में प्रस्तुत महाभारत का विवरण। इस प्रकार से और मापदण्ड भी हो सकते हैं जिनसे महाभारत की तमाम घटनाओं का प्रामाणिक रूप समझने का प्रयास किया जा सकता है।
मेरे विचार से न तो शकुनि के किसी अपमान की घटना प्रामाणिक समझी जा सकती है न ही उसके द्वारा किसी प्रकार का बदला लेने की बात को सच माना जा सकता है। इस बात के निम्न आधार हैं।
१- वेदव्यास रचित महाभारत में ऐसी किसी भी घटना का उल्लेख नहीं है। गान्धार पर कुरुवंशियों के आक्रमण, शकुनि के पूरे परिवार की दुःखद मृत्यु व शकुनि द्वारा इसका बदला लेने की बात न तो महाभारत में आती है न ही विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, भागवत पुराण व वायु पुराण जैसे प्रामाणिक पुराणों में। स्वयं महाभारत में भीष्म के पराक्रम की घटनाओं के सन्दर्भ में परशुराम से युद्ध और काशिराज की कन्याओं के अपहरण के सम्बन्ध में हुए युद्ध की चर्चा की गयी है पर गान्धार या अन्य किसी देश में उनके किसी सैनिक अभियान का जिक्र नहीं आया है। हरिवंश पुराण व अन्य कुछ पुराणों में यह भी आया है कि भीष्म ने उग्रायुध नाम के राजा का सुरक्षात्मक युद्ध में वध किया था पर गान्धार से हुए उनके किसी भी युद्ध की कोई भी चर्चा नहीं है। अतः इन घटनाओं में कोई सच्चाई नहीं प्रतीत होती।
शकुनि के परिवार का कुरुवंशियों द्वारा विनाश कराने की बात गलत है क्योंकि स्वयं महाभारत के अनुसार युद्ध के सातवें दिन अर्जुन के पुत्र इरावान के हाथ शकुनि के छह छोटे भाई गज, गवाक्ष, वृषभ, चर्मवान, आर्जव और शुक मारे गये थे। यदि कुरुवंशियों ने पहले ही शकुनि के सभी भाइयों को मरवा डाला था तो इन भाइयों का जीवित रहना सम्भव ही नहीं था। अतः कुरुवंशियों द्वारा शकुनि के परिवार का संहार कराने की बात निश्चित रूप से गलत है।
२- अक्सर यह कहा जाता है कि भीष्म ने अपनी शक्ति के बल पर सुबल पर दबाव डालकर गान्धारी का विवाह धृतराष्ट्र से करने के लिए उसे विवश किया। शकुनि ने इसे अपना व्यक्तिगत अपमान माना और उसने इसका बदला लिया। पर इस बात को मानना कठिन है। भीष्म पितामह के बारे में जो भी हमें पता चलता है उससे यही सिद्ध होता है कि उनकी विदेश नीति कभी भी इतनी आक्रामक नहीं थी कि उनसे भय का कोई कारण हो। दूसरे देशों पर किये उनके किसी भी अभियान की चर्चा नहीं आती। और तो और अपने भाई चित्राङ्गद के हत्यारे गन्धर्वों तक से उनके बदला लेने की कोई बात हमें नहीं सुनाई पड़ती। (चित्राङ्गद गन्धर्वों से युद्ध करते हुए मारा गया था।) काशीराज की कन्याओं के अपहरण की घटना स्मरण करके गान्धारनिवासी इस बात की आशंका कर सकते थे कि भीष्म उनकी राजकुमारी का जबरन अपहरण कर सकते हैं पर उस समय जबकि राक्षस विवाह असामान्य नहीं थे यह भय का कारण नहीं हो सकता था। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यद्यपि उस समय युद्ध बहुत होते थे तभी भी युद्धों में राजाओं को मारने की घटनाएँ कम ही होती थीं और किसी राजा को हराने के बाद उसका राज्य हड़पने की घटनाएँ तो न के बराबर होती थीं। यह भी स्मरणीय है कि उस समय के राजा वीरभाव से भरे होते थे और बल के भय पर उन्हें बेटी समर्पित करने के लिए बाध्य करना सरल नहीं था। अतः यह मानने का आधार नहीं है कि भीष्म ने दबाव डालकर सुबल को गान्धारी का विवाह धृतराष्ट्र से करने को विवश किया।
यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि बिना किसी दबाव के सुबल गान्धारी का विवाह धृतराष्ट्र से करने को कैसे तैयार हो गया। मेरे विचार से इसका कारण यह रहा होगा कि भीष्म और सुबल दोनों ही इस बात की पूरी सम्भावना कर रहे थे कि कुरु राजसिंहासन का उत्तराधिकारी धृतराष्ट्र का पुत्र ही होगा और इस बात पर दोनों में बातचीत हुई होगी। कुरु राजवंश की इतनी प्रतिष्ठा थी कि उसका उत्तराधिकारी अपना नाती हो यह कल्पना सुबल के लिए बड़ी सुखद थी। राजवंशों में हुए विवाहों में राजनीतिक आकांक्षाएँ ही सर्वोपरि होती हैं यह एक जाना माना सच है।
३- इस बात के महाभारत या प्रामाणिक पुराणों में कोई संकेत नहीं हैं कि शकुनि कुरुवंश से कोई शत्रुता मानता था या बदला लेने का कोई संकल्प उसके मन में था। उसने जो भी किया वह अपने भानजों के लिए किया। उनके हित के लिए उसने अपने जीवन का अधिकांश भाग अपने राज्य से दूर हस्तिनापुर में बितायाऔर उन्हीं के लिए लड़ते हुए उसकी मृत्यु भी हुई।
शकुनि को महाभारत के सबसे बुरे चरित्र के रूप में जाना जाता है पर उसमें कम से कम दो गुण बेहद सकारात्मक थे। पहला गुण अपने भानजों के हित के प्रति उसका समर्पण था जिसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। दूसरा गुण उसकी नीतिकुशलता थी।(यद्यपि उसकी षड्यन्त्रकारी प्रकृति और सिद्धान्तहीन छलनीति की प्रशंसा नहीं की जा सकती।) वह इस बात को समझता था कि युद्ध से पाण्डवों को नहीं जीता जा सकता अतः उसने पाण्डवों को मारने के लिए लाक्षागृह काण्ड जैसे षड्यन्त्र रचे और उनका राज्य हड़पने के लिए जुए की सलाह दी। बाद में घोषयात्रा युद्ध में दुर्योधन की पराजय और अपमान के बाद उसने दुर्योधन को पाण्डवों से सन्धि करने की राय भी दी। दुर्योधन के मन में पाण्डवों के प्रति इतना द्वेष भरा था कि उसने यह बात नहीं मानी और इसके बाद शकुनि द्वारा दुर्योधन को सलाह देने की कोई चर्चा नहीं आती।
यह एक निश्चित सम्भावना है कि यदि दुर्योधन कर्ण जैसे अदूरदर्शी मित्र की अपेक्षा शकुनि और अश्वत्थामा जैसे अपने असली हितचिन्तकों की राय पर ध्यान देता तो पाण्डवों के साथ उसकी स्थायी सन्धि हो सकती थी और महाभारत का विनाशकारी युद्ध टाला जा सकता था।

रावण के अपने निकट आने पर माँ सीता अपने हाथ में तिनका क्यों उठा लेती थी?

Choose the Right Grass For Your Lawn

एक संत कहा करते थे

"ज्ञानी का मैं गुरु हूँ और अज्ञानी का चेरा"
ये कहानी उनके लिए एक काल्पनिक प्रसंग मात्र हे जो आज के दौर में केवल पके पकाए भोजन मात्र सी उम्मीद करते हुए काल्पनिकता को तहज़ीब देते हैं..बाकी सबके अपने मत हैं
"जाकी रही भावना जैसी ता देखी प्रभुमूर्ति तैसी"
अब आते हैं अपने सही मकसद पर…
घास के तिनके का रहस्य हर किसी को नहीं मालूम क्योंकि आज तक हमने हमारे ग्रंथो को सिर्फ पढ़ा, समझने की कोशिश नहीं की
रावण ने जब माँ सीता जी का हरण करके लंका ले गया तब लंका मे सीता जी अशोक वृक्ष के नीचे बैठ कर चिंतन करने लगी। रावण बार बार आकर माँ सीता जी को धमकाता था, लेकिन माँ सीता जी कुछ नहीं बोलती थी। यहाँ तक की रावण ने श्री राम जी के वेश भूषा मे आकर माँ सीता जी को
भ्रमित करने की भी कोशिश की लेकिन फिर भी सफल नहीं हुआ,
रावण थक हार कर जब अपने शयन कक्ष मे गया तो मंदोदरी ने उससे कहा आप तो राम का वेश धर कर गये थे, फिर क्या हुआ?
रावण बोला- जब मैं राम का रूप लेकर सीता के समक्ष गया तो सीता मुझे नजर ही नहीं आ रही थी ।
रावण अपनी समस्त ताकत लगा चुका था लेकिन जिस जगत जननी माँ को आज तक कोई नहीं समझ सका, उन्हें रावण भी कैसे समझ पाता !
रावण एक बार फिर आया और बोला मैं तुमसे सीधे सीधे संवाद करता हूँ लेकिन तुम कैसी नारी हो कि मेरे आते ही घास का तिनका उठाकर उसे ही घूर-घूर कर देखने लगती हो,
क्या घास का तिनका तुम्हें राम से भी ज्यादा प्यारा है?
रावण के इस प्रश्न को सुनकर माँ सीता जी बिलकुल चुप हो गयी और उनकी आँखों से आसुओं की धार बह पड़ी।
इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि
जब श्री राम जी का विवाह माँ सीता जी के साथ हुआ,तब सीता जी का बड़े आदर सत्कार के साथ गृह प्रवेश भी हुआ। बहुत उत्सव मनाया गया।
*प्रथानुसार नव वधू विवाह पश्चात जब ससुराल आती है तो उसके हाथ से कुछ मीठा पकवान बनवाया जाता है, ताकि जीवन भर घर में मिठास बनी रहे।*
इसलिए माँ सीता जी ने उस दिन अपने हाथों से घर पर खीर बनाई और समस्त परिवार, राजा दशरथ एवं तीनों रानियों सहित चारों भाईयों और ऋषि संत भी भोजन पर आमंत्रित थे।
माँ सीता ने सभी को खीर परोसना शुरू किया, और भोजन शुरू होने ही वाला था की ज़ोर से एक हवा का झोका आया। सभी ने अपनी अपनी पत्तलें सम्भाली,सीता जी बड़े गौर से सब देख रही थी।
ठीक उसी समय राजा दशरथ जी की खीर पर एक छोटा सा घास का तिनका गिर गया, जिसे माँ सीता जी ने देख लिया। लेकिन अब खीर मे हाथ कैसे डालें? ये प्रश्न आ गया। माँ सीता जी ने दूर से ही उस तिनके को घूर कर देखा वो जल कर राख की एक छोटी सी बिंदु बनकर रह गया। सीता जी ने सोचा 'अच्छा हुआ किसी ने नहीं देखा'।
लेकिन राजा दशरथ माँ सीता जी के इस चमत्कार को देख रहे थे। फिर भी दशरथ जी चुप रहे और अपने कक्ष पहुचकर माँ सीता जी को बुलवाया ।
फिर उन्होंने सीताजी से कहा कि मैंने आज भोजन के समय आप के चमत्कार को देख लिया था ।
आप साक्षात जगत जननी स्वरूपा हैं, लेकिन एक बात आप मेरी जरूर याद रखना।
आपने जिस नजर से आज उस तिनके को देखा था उस नजर से आप अपने शत्रु को भी कभी मत देखना।
इसीलिए माँ सीता जी के सामने जब भी रावण आता था तो वो उस घास के तिनके को उठाकर राजा दशरथ जी की बात याद कर लेती थी।
*तृण धर ओट कहत वैदेही*
*सुमिरि अवधपति परम् सनेही*
*यही है उस तिनके का रहस्य* !
इसलिये माता सीता जी चाहती तो रावण को उस जगह पर ही राख़ कर
सकती थी, लेकिन राजा दशरथ जी को दिये वचन एवं भगवान श्रीराम को रावण-वध का श्रेय दिलाने हेतु वो शांत रही !
ऐसी विशालहृदया थीं हमारी जानकी माता !

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...