Saturday, April 25, 2020

परशुराम कौन थे?

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प्राचीन काल में एक गाधि नाम के राजा थे | उनकी एक अत्यंत ही रूपवती कन्या सत्यवती थी | राजा अपनी पुत्री का विवाह एक अत्यंत ही विद्वान पुरुष से करना चाहते थे | इसलिए राजा ने भृगु ऋषि के पुत्र भृगुनन्दन ऋषी के साथ सत्यवती का विवाह सुनिश्चित किया | इस मंगल अवसर पर भृगु ऋषि अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद देने आये | आशीर्वाद स्वरुप उन्होंने सत्यवती को कोई भी वरदान मांगने को कहा |
इस पर सत्यवती ने स्वयम को तथा अपनी माता को एक एक  यशस्वी पुत्र प्राप्त हो ऐसा वरदान माँगा | तब ऋषि ने सत्यवती को दो पात्र दिए और कहा इनमे से एक अपनी माता को दे देना और एक का सेवन खुद करना | पर सत्यवती की माता ने दोनों पात्रों की अदला बदली कर दी | इस वजह से सत्यवती को ब्राह्मण पुत्र की प्राप्ति तो होती पर उसका आचरण क्षत्रियों जैसा होता | 
ऋषि भृगु ने ये बात सत्यवती को बताई तब सत्यवती ने ऋषि से निवेदन किया की वो उन्हें ऐसा वरदान दे की उनका पुत्र ब्राह्मण जैसा आचरण करे पर उनका पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे |
ऋषि ने सत्यवती की बात मान ली और आगे चलकर भविष्य में सत्यवती को जमदग्नि पुत्र रूप में और परशुराम पौत्र रूप में प्राप्त हुए | 
पौराणिक मान्यता के अनुसार , धरती पर मानवता पर अत्याचार को ख़त्म करने के लिए तथा सुख शांति व् धर्म की स्थापना के लिए ईश्वर स्वरूप भगवान् परशुराम अवतरित हुए । उन्हें श्री हरि विष्णु का छठा अवतार माना जाता है उल्लेख मिलता है कि इनका जन्म सतयुग और त्रेता के संधिकाल मे वैसाख मास के शुक्ल पक्ष की त्रितया तिथि को माता रेणुका तथा पिता जमदग्नि ऋषि के आश्रम में हुआ ।  रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम।
परशुरामजी का उल्लेख रामायणमहाभारतभागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। जिस मे कोंकणगोवा एवं केरल का समावेश है। 
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तिर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पिछे धकेल ते हुए नई भूमि का निर्माण किया। और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला मे भगवान परशुराम वंदनीय है। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।
यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थीँ (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँख्वार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।
उन्होंने सैन्यशिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म और कर्ण
उनके जाने-माने शिष्य थे -
  1. भीष्म
  2. द्रोण (कौरव-पाण्डवों के गुरु व अश्वत्थामा के पिता) एवं
  3. कर्ण
कर्ण को यह ज्ञात नहीं था कि वह जन्म से क्षत्रिय है। वह सदैव ही स्वयं को शुद्र समझता रहा लेकिन उसका सामर्थ्य छुपा न रह सका। उन्होन परशुराम को यह बात नहीं बताई की वह शुद्र वर्ण के है। और भगवान परशुराम से शिक्षा प्राप्त कर ली। किन्तु परशुराम वर्ण व्यवस्था को अनुचित मानते थे। यदि कर्ण उन्हे अपने शुद्र होने की बात बता भी देते तो भी भगवान परशुराम कर्ण के तेज और सामर्थ्य को देख उन्हे सहर्ष शिक्षा देने को तैयार हो जाते। किन्तु जब परशुराम को इसका ज्ञान हुआ तो उन्होंने कर्ण को यह श्राप दिया की उनका सिखाया हुआ सारा ज्ञान उसके किसी काम नहीं आएगा जब उसे उसकी सर्वाधिक आवश्यकता होगी। इसलिए जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने सामने होते है तब वह अर्जुन द्वारा मार दिया जाता है क्योंकि उस समय कर्ण को ब्रह्मास्त्र चलाने का ज्ञान ध्यान में ही नहीं रहा।
रामायण मे शिव धनुष के भंग के प्रति उनका आक्रोश अपने गुरु महादेव के प्रति अनन्य निष्ठा के कारण ही उपजा था । तभी तो श्री राम उन्हें विनम्रतापूर्वक नमन करते है । उन्होंने समयानुकूल आचरण का जो आदर्श स्थापित किया , वह युगों युगों तक मानव मात्र को प्रेरणा देता रहेगा ।परशुराम राजा प्रसेनजीत की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय ऋषि जमदग्नि के पुत्र, विष्णुके अवतार और शिव के परम भक्त थे । इन्हें शिवसे विशेष परशु प्राप्त हुआ था । इनका नाम राम था, किन्तु भगवान शिव द्वारा प्राप्त अमोघ परशु को सदैव धारण कर रखने के कारण ये परशुराम कहलाते थे । विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिना जाता है । इनका जन्म वैशाख शुक्ल तृतीयाको हुआ था । अत: इस दिन परशुराम जयंती एक व्रत और उत्सवके रूपमें मनाई जाती है ।

परशुराम रामायण और महाभारत दोनों में कैसे मौजूद थे?
जब भी "धर्म" और "अधर्म" के बीच असंतुलन होता है तो विष्णु भगवान् धरती पर अवतरित हो कर उसे संतुलित करते हैं।
भगवान परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं जबकि भगवान राम और भगवान कृष्ण क्रमशः सातवें और आठवें अवतार हैं।
ये तीनो ही अवतार मानव के रूप में हैं। भगवान राम और भगवान कृष्ण एक सामान्य इंसान की तरह अपना शरीर छोड़कर इस धरती से विदा हुए।
भगवान परशुराम ने अपने अवतार के दौरान धर्म की स्थापना की, लेकिन आने वाले अवतारों में उनकी सहायता करने का उनका एक और कार्य भी था।
इस प्रकार उन्हें हिंदू संस्कृति में सात चिरंजीवियों में से एक माना जाता है।
उनकी त्रेता युग (भगवान राम की समय अवधि), द्वापर युग (भगवान कृष्ण की समय अवधि) में इन अवतारों की सहायता करने की भूमिका थी और वह फिर कलियुग में कल्कि अवतार के लिए आध्यात्मिक और युद्धःकला के गुरु के रूप में भूमिका निभाएंगे।
ऋषि व्यास, कृपाचार्य और अश्वत्थामा के साथ, परशुराम को ऋषियों में सबसे प्रमुख माना जाता है।
परशुराम 8 वें मनवंतर में इन तीनो के साथ सप्तर्षियों में से एक बन जायेगे।

दन्तकथाएँ

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कथानक मिलता है कि कैलाश स्थित भगवान शंकर के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुराम ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराते हुए गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराके भूतल पर पटक दिया। चेतनावस्था में आने पर कुपित परशुरामजी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदन्त कहलाये।

रामायण काल


उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर प्रथम तो स्वयं को "विश्व-विदित क्षत्रिय कुल द्रोही" बताते हुए "बहुत भाँति तिन्ह आँख दिखाये" और क्रोधान्ध हो "सुनहु राम जेहि शिवधनु तोरा, सहसबाहु सम सो रिपु मोरा" तक कह डाला। तदुपरान्त अपनी शक्ति का संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना करते हुए "अनुचित बहुत कहेउ अज्ञाता, क्षमहु क्षमामन्दिर दोउ भ्राता" तपस्या के निमित्त वन को लौट गये। रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ साक्षी हैं- "कह जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गये वनहिं तप हेतू"। वाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा के अनुसार दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया और परशुराम ने रामचन्द्र की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया।
जाते जाते भी उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविन्दों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की थी।

महाभारत काल 

भीष्म द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुराम के पास आयी। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा। उन दोनों के बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला। किन्तु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम उन्हें हरा न सके।
परशुराम अपने जीवन भर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे। किन्तु दुर्भाग्यवश वे तब तक सब कुछ दान कर चुके थे। तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा। तब चतुर द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं आपके सभी अस्त्र शस्त्र उनके मन्त्रों सहित चाहता हूँ ताकि जब भी उनकी आवश्यकता हो, प्रयोग किया जा सके। परशुरामजी ने कहा-"एवमस्तु!" अर्थात् ऐसा ही हो। इससे द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हो गये।

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