Wednesday, April 29, 2020

अश्वत्थामा|

आज भी भटक रहे हैं अश्वत्थामा, सिर्फ ...

महाभारत युद्ध से पुर्व गुरु द्रोणाचार्य अनेक स्थानो में भ्रमण करते हुए हिमालय (ऋषिकेश) प्‌हुचे। वहाँ तमसा नदी के किनारे एक दिव्य गुफा में तपेश्वर नामक स्वय्मभू शिवलिंग है। यहाँ गुरु द्रोणाचार्य और उनकी पत्नी माता कृपि ने शिव की तपस्या की। इनकी तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने इन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। कुछ समय बाद माता कृपि ने एक सुन्दर तेजश्वी बाल़क को जन्म दिया। जन्म ग्रहण करते ही इनके कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी। जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी।

महाभारत युद्ध के समय गुरु द्रोणाचार्य जी ने हस्तिनापुर (मेरठ) राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा। अश्वत्थामा भी अपने पिता की तरह शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपूण थे। महाभारत के युद्ध में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। महाभारत युद्ध में ये कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे। उन्होंने घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु को भी मार डाला था। उन्होंने कुंतीभोज के दस पुत्रों का वध किया। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत युद्ध के समय पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया। पांडवों की सेना की हार देख़कर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कूटनीति सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत यह बात फेला दी गई कि "अश्वत्थामा मारा गया" जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होने जवाब दिया-"अश्वत्थामा मारा गया परन्तु हाथी", परन्तु उन्होंने बड़े धीरे स्वर में "परन्तु हाथी" कहा, और झूट बोलने से बच गए। इस घटना से पूर्व पांडवों और उनके पक्ष के लोगों की श्री कृष्ण के साथ विस्तृत मंथना हुई कि ये सत्य होगा कि नहीं कि "परन्तु हाथी" को इतने स्वर में बोला जाए। श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया, जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य आखरी शब्द नहीं सुन पाए। अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर आपने शस्त्र त्याग दिये और युद्ध भूमि में आखें बन्द कर शोक अवस्था में बैठ गये। गुरु द्रोणाचार्य जी को निहत्ता जानकर द्रोपदी के भाई द्युष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। गुरु द्रोणाचार्य की निर्मम हत्या के बाद पांडवों की जीत होने लगी। इस तरह महाभारत युद्ध में अर्जुन के तीरों एवं भीमसेन की गदा से कौरवों का नाश हो गया। दुष्ट और अभिमानी दुर्योधन की जाँघ भी भीमसेन ने मल्लयुद्ध में तोड़ दी। अपने राजा दुर्योधन की ऐसी दशा देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया। दुर्योधन पानी को बान्धने की कला जानता था। सो जिस तालाब के पास गदायुध्द चल रहा था उसी तालाब में घुस गया और पानी को बान्धकर छुप गया। दुर्योधन के पराजय होते ही युद्ध में पाण्डवो की जीत पक्की हो गई थी सभी पाण्डव खेमे के लोग जीत की खुशी में मतवाले हो रहे थे।

अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए पांडवों पर नारायण अस्त्र का प्रयोग किया था। जिसके आगे सारी पाण्डव सेना ने हथियार डाल दिया था। युद्ध पश्चात अश्वत्थामा ने द्रोपदी के पाँचो पुत्र और द्युष्टद्युम्न का वध कर दिया। अश्वत्थामा ने अभिमन्यु पुत्र परीक्षित पर बह्मशीर्ष अस्त्र का प्रयोग किया। अश्वत्थामा अमर है और आज भी जीवित हैं। भगवान क्रष्ण के श्राप के कारण अश्वत्थामा को कोड रोग हो गया। आज भी वह जीवित है। छुप कर वह पांडवों के शिविर में पहुँचा और घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के बचे हुये वीर महारथियों को मार डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवों के पाँचों पुत्रों के सिर भी अश्वत्थामा ने काट डाले। अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी ने निंदा की यहाँ तक कि दुर्योधन तक को भी यह अच्छा नहीं लगा।

पुत्रों के हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुन कर अर्जुन ने उस नीच कर्म हत्यारे ब्राह्मण के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला। श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था।

उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी श्रृष्टि को रचने वाले परमेश्वर हैं। श्रृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मास्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप हो संहार करते हैं। आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहाँ से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?”

श्रीकृष्ण बोले, “है अर्जुन! ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में है। वह अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्यों कि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।”

श्रीकृष्ण की इस मन्त्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी। इस विनाश को देखकर अर्जुन ने दोंनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा कर शांत कर दिया और झपट कर अश्वत्थामा को पकड़ कर बाँध लिया। श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोये हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोये हुये निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रख कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।”

श्रीकृष्ण के इन शब्दों को सुनने के बाद भी धीरवान अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुये गुरुपुत्र को देख कर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उसने गुरुपुत्र को नमस्कार किया और उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से ही इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।”

द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था जब उसने बालकों की हत्या की थी किन्तु केश मुंड जाने और मणि निकल जाने से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका सिर झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया।

श्री कृष्ण , वेदव्यस जी ,नारदजी इन तीनों लोगों ने मिलकर उसे श्रापित कर दिया और कहा जहाँ जहाँ तुम्हारें इष्टदेव महादेव जी का मंदिर होगा जिसमें साधारण मनुष्य नहीं जा सकेंगे तुम उसी की पूजा करोगे वह भी एक रात्रि में इसके लिए तुम्हारे पास मन के समान तेज गति से जाने की शक्ति सिर्फ तुम्हारे पास होगी बच्चों की हत्या करने के कारण तुम्हारे जैसे पापी का जो चेहरा देखेगा वह भी उसी पाप का भागीदार होगा इसीलिए अश्वस्थामा किसी को अपना चेहरा नहीं दिखाते हैं , और फिर इस पाप के निवारण हेतु भगवान श्री कृष्ण ने कहा जब मैं कल्की अवतार में कलयुग के अंत समय में जब तुम्हें दर्शन दूँगा तो तुम श्राप से मुक्त होकर तुम अपने सम्मानित स्थान पर जाओगे इसीलिए एक श्लोक में इसका वर्णन है अश्वस्थामा :बलि :व्यासों : हनुमानश्च : विभीषण : कृप :परसुरामश्च : सप्तआर्चय चिरंजिवीन: आज भी ये सातों लोग इस कलयुग में साक्ष त मौजूद हैं पर ये लोग किसी के सामने नहीं आते जो इन्हें जबरदस्ती देखने की कोशिश करता है वह पागल हो जाता है या अपना संतुलन खो देता है , इसीलिए ये सातों लोग बाबा धाम , काशीविश्वनाथ मंदिर ,सोमनाथ मंदिर ,केदारनाथ मंदिर ,यहाँ तक की कैलाशमानसरोवर अमरनाथजी जैसे जगहों पर नहीं जाते जहाँ पर साधारण मनुष्य पूजापाठ कर सकता है , ये लोग वहाँ पर शिवलिंग की पूजा करने जाते हैं जहाँ पर साधारण मनुष्य नहीं पहूँच पाता ,भारत में ऐसी बहुत जगह है जहाँ पर सिद्ध शिवलिंग हैं वहाँ पर हम इंन्सान पूजा करने नहीं जा सकते वहाँ सिर्फ यही सातों लोग पूजा अर्चना करते हैं सुबह होने से पहले वह स्थान बदल देतें हैं|

अश्वत्थामा ने एक गर्भ को नष्ट करने का प्रयास किया था, इसी कारण से उनको इतनी भयानक सजा मिली, आज कितने ही लोग गर्भपात करवाते हैं क्या ये सारे कलियुगी अश्वत्थामा भी वैसी ही सजा के हकदार नहीं हैं और जो डॉक्टर अनेक गर्भों को नष्ट करने का पाप कर चुके हैं उनके परिणाम को तो सोचकर ही रूह कांप जाती है।

चलिये अब मे आपको पुराणो के आधार से अश्वत्थामा की जानकारी देता हु|


महाभारत में द्रोण पुत्र अश्‍वत्थामा एक ऐसा योद्धा था, जो अकेले के ही दम पर संपूर्ण युद्ध लड़ने की क्षमता रखता था। कौरवों की सेना में एक से एक योद्धा थे। पांडवों की सेना हर लिहाज से कौरवों की सेना से कमजोर थी लेकिन फिर भी कौरव हार गए।
महाभारत युद्ध के बाद जीवित बचे 18 योद्धाओं में से एक अश्‍वत्थामा भी थे। अश्‍वत्थामा को संपूर्ण महाभारत के युद्ध में कोई हरा नहीं सका था। वे आज भी अपराजित और अमर हैं। आओ जानते हैं अश्‍वत्थामा के जीवन से जुड़े ऐसे 10 रहस्य जिसको हर कोई जानता चाहता है और अंत में ऐसा रहस्य तो अभी तक कोई नहीं जान पाया है।
शारद्वतीं ततो भार्यां कृपीं द्रोणोऽन्वविन्दत्।
अग्रिहोत्रे च धर्मे च दमे च सततं रताम्।। 46 ।। -महाभारत (संभव पर्व)
जन्म का रहस्य : अश्‍वत्थामा का जन्म भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण के यहां हुआ था। उनकी माता ऋषि शरद्वान की पुत्री कृपी थीं। द्रोणाचार्य का गोत्र अंगिरा था। तपस्यारत द्रोण ने पितरों की आज्ञा से संतान प्राप्‍ति हेतु कृपी से विवाह किया। कृपी भी बड़ी ही धर्मज्ञ, सुशील और तपस्विनी थीं। दोनों ही संपन्न परिवार से थे।
जन्म लेते ही अश्‍वत्थामा ने उच्चैःश्रवा (अश्व) के समान घोर शब्द किया, जो सभी दिशाओं और व्योम में गुंज उठा। तब आकाशवाणी हुई कि इस विशिष्ट बालक का नाम अश्‍वत्थामा होगा:-
अलभत गौतमी पुत्रमश्‍वत्थामानमेव च।
स जात मात्रो व्यनदद्‍ यथैवोच्चैः श्रवा हयः।।47।।
तच्छुत्वान्तर्हितं भूतमन्तरिक्षस्थमब्रवीत्।
अश्‍वस्येवास्य यत् स्थाम नदतः प्रदिशो गतम्।।48।।
अश्‍वत्थामैव बाल्तोऽयं तस्मान्नाम्ना भविष्यति।
सुतेन तेन सुप्रीतो भरद्वाजस्ततोऽभवत्।।49।।
बदल गया द्रोण का जीवन : अश्‍वत्थामा के जन्म के बाद द्रोण की आर्थिक स्थिति गिरती गई। घर में कुछ भी खाने को नहीं बचा। विपन्नता आ गई। इस विपन्नता को दूर करने के लिए द्रोण परशुरामजी से विद्या प्राप्‍त करने उनके आश्रम गए।
द्रोण आश्रम से लौटे तो घर में गाय तक न थी। अन्य ऋषि कुमारों को दूध पीते देख अश्‍वत्थामा दूध हेतु रोता था और एक दिन द्रोण ने देखा कि ऋषि कुमार चावल के आटे का घोल बनाकर अश्‍वत्थामा को पिला चुके हैं और अबोध बालक (अश्‍वत्‍थामा) 'मैंने दूध पी लिया' यह कहते हुए आनंदित हो रहा है। यह देख द्रोण स्वयं को धिक्कार उठे।
इससे यह सिद्ध होता है कि अश्‍वत्‍थामा ने अपना बचपन जैसे-तैसे खा-पीकर बिताया। उनके लिए घर में पीने को दूध तक नहीं होता था। लेकिन जब वे अपने मित्रों के बीच रहते थे तो झूठ ही कह देते थे कि मैंने तो दूध ‍पी लिया।
पिता का अपमान : पिता ने जब बालक अश्‍वत्थामा की यह अवस्था देखी तो उन्होंने खुद को इसका दोषी माना और वे उसके लिए गाय की व्यवस्था हेतु स्थान-स्थान पर घूमकर धर्मयुक्त दान के लिए भटके लेकिन उन्हें कोई भी गाय दान में नहीं मिली। अंत में उन्होंने सोचा कि क्यों न अपने बचपन के मित्र राजा द्रुपद के पास जाया जाए।
वे अपने पुत्र अश्‍वत्थामा के साथ राजा द्रुपद के दरबार में जा पहुंचे। राजा द्रुपद की राजसभा में पिता की अवमानना बालक अश्‍वत्थामा ने देखी थी और देखी होगी उनकी विवशता और क्रूर विडंबना कि शस्त्र-शास्त्र के ज्ञाता भी सत्तासीन मदमत्त व्यक्ति द्वारा अपमानित होते हैं। अश्‍वत्थामा के बाल मन पर उस वक्त क्या गुजरी होगी, जब उनके पिता को वहां से धक्के मारकर निकाल दिया गया।
अश्वत्थामा बने शिक्षक और राजा : अश्‍वत्थामा को लेकर द्रोण पाञ्चाल राज्य से कुरु राज्य में हस्तिनापुर आ गए और वहां वे कुरु कुमारों को धनुष-बाण की शिक्षा देने लगे। वहां पर वे कृप शास्त्र की शिक्षा देते थे। अश्‍वत्थामा भी पिता के इस कार्य में मदद करने लगे। वे भी कुरुओं को बाण विद्या सिखाते थे।
बाद में द्रोण कौरवों के आचार्य बन गए। उन्होंने दुर्योधन सहित अर्जुन आदि को शिक्षा दी। आचार्य के प्रति उदारता दिखाते हुए पांडवों ने गुरु दक्षिणा में उनको द्रुपद का राज्य छीनकर दे दिया। बाद में द्रोण ने आधा राज्य द्रुपद को लौटा दिया और आधे को उन्होंने अश्‍वत्‍थामा को दे दिया था। उत्तर पाञ्चाल का आधा राज्‍य लेकर अश्‍वत्‍थामा वहां के राजा बन गए और उन्होंने अपने राज्य की राजधानी अहिच्‍छ्त्र को बनाया।
अब द्रोण भारतभर के सबसे श्रेष्‍ठ आचार्य थे। कुरु राज्‍य में उन्‍हें भीष्‍म, धृतराष्‍ट्र, विदुर आदि से पूर्ण सम्‍मान प्राप्‍त था, अतः अभावों के दिन विदा हो गए थे।
संपूर्ण विद्याओं में पारंगत अश्‍वत्थामा : अश्‍वत्थामा जीवन के संघर्ष की आग में तपकर सोना बना था। महान पिता द्रोणाचार्य से उन्होंने धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था। द्रोण ने अश्‍वत्थामा को धनुर्वेद के सारे रहस्य बता दिए थे। सारे दिव्यास्त्र, आग्नेय, वरुणास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वायव्यास्त्र, ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र, ब्रह्मशिर आदि सभी उसने सिद्ध कर लिए थे। वह भी द्रोण, भीष्म, परशुराम की कोटि का धनुर्धर बन गया। कृप, अर्जुन व कर्ण भी उससे अधिक श्रेष्ठ नहीं थे। नारायणास्त्र एक ऐसा अस्त्र था ‍जिसका ज्ञान द्रोण के अलावा माभारत के अन्य किसी योद्धा को नहीं था। यह बहु‍त ही भयंकर अस्त्र था।
अश्‍वत्थामा के ब्रह्मतेज, वीरता, धैर्य, तितिक्षा, शस्त्रज्ञान, नीतिज्ञान, बुद्धिमत्ता के विषय में किसी को संदेह नहीं था। दोनों पक्षों के महारथी उसकी शक्ति से परिचित थे। महाभारत काल के सभी प्रमुख व्यक्ति अश्‍वत्थामा के बल, बुद्धि व शील के प्रशंसक थे।
भीष्मजी रथियों व अतिरथियों की गणना करते हुए राजा दुर्योधन से अश्‍वत्थामा के बारे में उनकी प्रशंसा करते हैं किंतु वे अश्‍वत्थामा के दुर्गुण भी बताते हैं। उनके जैसा निर्भीक योद्धा कौरव पक्ष में और कोई नहीं था।
अश्‍वत्थामा का भय : जब राक्षसों की सेना ने घटोत्कच के नेतृत्व में भयानक आक्रमण किया तो सभी कौरव वीर भाग खड़े, तब अकेले ही अश्‍वत्थामा वहां अड़े रहे। उन्होंने घटोत्कच के पुत्र अंजनपर्वा को मार डाला। साथ ही उन्होंने पांडवों की एक अक्षौहिणी सेना को भी मार डाला और घटोत्कच को घायल कर दिया।
अश्‍वत्थामा कौरव सेना के प्रधान महारथी थे। कुरुराज ने अपने पक्ष की ग्यारह अक्षौहिणी सेना को ग्यारह महारथियों के सेनापतित्व में संगठित किया था। ये थे- द्रोण, कृप, शल्य, जयद्रथ, सुदक्षिण, कृतवर्मा, अश्‍वत्थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, शकुनि और बाह्‍लीक। अतः अश्‍वत्थामा ग्यारह सेनापतियों में एक प्रमुख स्थान रखता है।
इधर युद्ध में अर्जुन, कृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव, द्रुपद, धृष्टद्युम्न तथा घटोत्कच आदि लड़ रहे थे। उनके रहते हुए भी उनके देखते ही देखते अश्‍वत्थामा ने द्रुपद, सुत सुरथ और शत्रुंजय, कुंतीभोज के 90 पुत्रों तथा बलानीक, शतानीक, जयाश्‍व, श्रुताह्‍य, हेममाली, पृषध्र तथा चन्द्रसेन जैसे वीरों को रण में मार डाला और युधिष्ठिर की सेना को भगा दिया था।
अश्‍वत्थामा द्वारा किए जा रहे इस विध्वंस को देखते हुए पांडव पक्ष में भय और आतंक व्याप्त हो गया था। अब अश्‍वत्‍थामा को रोका जाना बहुत जरूरी हो गया था। सभी इस पर विचार करने लगे थे अन्यथा अगले दिन हार निश्चित थी।
अश्‍वत्‍थामा गज मारा गया : भीष्म के शरशय्या पर लेटने के बाद ग्यारहवें दिन के युद्ध में कर्ण के कहने पर द्रोण सेनापति बनाए जाते हैं। दुर्योधन और शकुनि द्रोण से कहते हैं कि वे युधिष्ठिर को बंदी बना लें तो युद्ध अपने आप खत्म हो जाएगा, तो जब दिन के अंत में द्रोण युधिष्ठिर को युद्ध में हराकर उसे बंदी बनाने के लिए आगे बढ़ते ही हैं कि अर्जुन आकर अपने बाणों की वर्षा से उन्हें रोक देता है। नकुल, युधिष्ठिर के साथ थे व अर्जुन भी वापस युधिष्ठिर के पास आ गए। इस प्रकार कौरव युधिष्ठिर को नहीं पकड़ सके।
लेकिन द्रोण की संहारक शक्ति के बढ़ते जाने से पांडवों के ‍खेमे में दहशत फैल जाती है। पिता-पुत्र ने मिलकर महाभारत युद्ध में पांडवों की हार सुनिश्चित कर दी थी। पांडवों की हार को देखकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से छल का सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया', लेकिन युधिष्‍ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं थे। तब अवंतिराज के अश्‍वत्थामा नामक हाथी का भीम द्वारा वध कर दिया गया। इसके बाद युद्ध में यह बाद फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया'।
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होंने जवाब दिया- 'अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथी।' श्रीकृष्ण ने उसी समय शंखनाद किया जिसके शोर के चलते गुरु द्रोणाचार्य आखिरी शब्द 'हाथी' नहीं सुन पाए और उन्होंने समझा कि मेरा पुत्र मारा गया। यह सुनकर उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और युद्ध भूमि में आंखें बंद कर शोक में डूब गए। यही मौका था जबकि द्रोणाचार्य को निहत्था जानकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। यह समाचार अश्‍वत्थामा के लिए भयंकर रूप से दुखद था। पिता की छलपूर्वक हत्या के बाद अश्‍वत्थामा युद्ध के सभी नियमों को तोड़कर ताक में रख देता है।
नारायणास्त्र का प्रयोग : पिता की छलपूर्वक मृत्यु से दुखी होकर अश्‍वत्थामा मजबूर होकर नारायणास्त्र का प्रयोग करता है जिसके चलते एक ही झटके में पांडवों सहित उनकी संपूर्ण सेना नष्ट हो जाती।
सभी नारायणास्त्र से नष्ट हो जाते लेकिन पांडवों को इस अस्त्र से बचने के लिए तुरंत ही कृष्ण उनसे अपने-अपने अस्त्र त्यागकर रथ से ‍नीचे उतरने का आदेश देते हैं और कहते हैं कि सभी नारायणास्त्र के सामने आत्मसमर्पण कर लो अन्यथा मारे जाओगे।
सभी पांडव और सेना ऐसा ही करती है। समर्पण से ही वे सभी बच सके। जब अश्‍वत्थामा यह देखता है कि सभी पांडव बच गए हैं तो उसे उस अस्त्र पर संदेह होता है। तब वह अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रयोग करता है लेकिन श्रीकृष्ण के कारण अर्जुन फिर बच जाता है। तब अश्‍वत्थामा को बड़ा क्रोध आता है वह अपना धनुष फेंक देता है और अपनी विद्या पर संदेह करने लगता है।
अंत में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग : अठारहवें दिन कौरवों के तीन योद्धा शेष बचते हैं- अश्‍वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। इसी दिन अश्वत्थामा द्वारा पांडवों के वध की प्रतिज्ञा ली गई। लेकिन समझ में नहीं आता कि कैसे पांडवों को मारा जाए।
एक उल्लू द्वारा रात्रि को कौवे पर आक्रमण करने पर एक उल्लू उन सभी को मार देता है। यह घटना देखकर अश्‍वत्थामा के मन में भी यही विचार आता है और वह घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के शिविर में पहुंचकर सोते हुए पांडवों के 5 पुत्रों को पांडव समझकर उनका सिर काट देता है। इस घटना से धृष्टद्युम्न जाग जाता है तो अश्‍वत्थामा उसका भी वध कर देता है।
अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी निंदा करते हैं। अपने पुत्रों की हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगती है। उसके विलाप को सुनकर अर्जुन उस नीच-कर्म हत्यारे ब्राह्मण पुत्र अश्‍वत्थामा के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा लेते हैं। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकलता है, तब श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव-धनुष लेकर अर्जुन उसका पीछा करता है। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण वह अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर देता है।
मजबूरी में अर्जुन को भी ब्रह्मास्त्र चलाना पड़ता है। ऋषियों की प्रार्थना पर अर्जुन तो अपना अस्त्र वापस ले लेता है लेकिन अश्वत्थामा अपना ब्रह्मास्त्र अभिमन्यु की विधवा उत्तरा की कोख की तरफ मोड़ देता है। कृष्ण अपनी शक्ति से उत्तरा के गर्भ को बचा लेते हैं।
अंत में श्रीकृष्ण बोलते हैं, 'हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोए हुए, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोए हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रखकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।'
श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनने के बाद भी अर्जुन को अपने गुरुपुत्र पर दया आ गई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के समक्ष खड़ा कर दिया। पशु की तरह बंधे हुए गुरुपुत्र को देखकर द्रौपदी ने कहा, 'हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बंदी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्रशोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरंतर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौटकर तो नहीं आ सकते अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिए।'
द्रौपदी के इन धर्मयुक्त वचनों को सुनकर सभी ने उसकी प्रशंसा की। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, 'हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दंड न देना भी पाप है अतः तुम वही करो जो उचित है।'
उनकी बात को समझकर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। बाद में श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को 6 हजार साल तक भटकने का शाप दिया। अंत में अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया।
कहां चले गए अश्‍वत्थामा : इस प्रकार हिंसा और अभिशाप में क्रोध और विषाद में इस महान विद्वान और दुर्धर्ष वीर की कथा का समापन होता है। युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण के सामने प्रश्‍न रखा था कि अकेले अश्‍वत्थामा ने इतना भयानक कांड कैसे कर दिया-
कथं नु कृष्ण पापेन क्षुद्रणाकृत कर्मणा।
द्रौणिना निहताः सर्वे मम पुत्रा महारथः।।
किन्नु तेन कृतं कर्म तथा युक्तं नरर्षभ।
यदेकः समरे सर्वानवधीन्नो गुरोः सुतः।।
कृष्ण कहते हैं कि यह कर्म अश्‍वत्थामा ने शिवजी से प्राप्त शक्ति से किया:-
न तन्मनसि कर्तव्यं न च तद्‍ द्रौणिना कृतम्।
महादेव प्रसादेन कुरू कार्यमनन्तरम्।।
नूनं स देव देवानामीश्‍वरेश्‍वरमव्ययम्।
जगाम शरणं द्रौणिरेकस्तेन बधीद्‍ बहून्।।
कृप, हार्दिक्य तथा अश्वत्थामा (द्रौणि) तीनों ने महाविनाश कर यह संवाद दुर्योधन से कहा फिर राजा धृतराष्ट्र को बताया और कहा कि हम तीन हैं और पाण्डव पांच हैं और कोई नहीं बचा।
फिर वे तीनों दिशाओं में चले गए। कृप हस्तिनापुर गए। कृतवर्मा द्वारिका तथा द्रौणि (अश्वत्थामा) व्यास के साथ वन चले गए। आज भी भारत के जंगलों में अश्वत्थामा को देखे जाने की घटनाएं दर्ज की जाती है। कभी उसे मध्‍यप्रदेश के जंगलों में देखा गया तो कभी उड़ीसा के और कभी उत्तराखंड के जंगलों में। अश्वत्थामा आज भी जीवित है और वह कल्प के अंत तक जीवित रहेंगे।
अंत में अश्वत्थामा की मस्तक मणि का रहस्य जानिए..
अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य ने शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके उन्हीं के अंश से अश्वत्थामा नामक पुत्र को प्राप्त किया। अश्‍वत्थामा के पास शिवजी के द्वारा दी गई कई शक्तियां थी। वे स्वयं शिव का अंश थे।
जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी, जोकि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। इस मणि के कारण ही उस पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो पाता था।
द्रौपदी ने अश्‍वत्थामा को जीवनदान देत हुए अर्जुन से उसकी मणि उतार लेने का सुझाव दिया। अत: अर्जुन ने इनकी मुकुट मणि लेकर प्राणदान दे दिया। अर्जुन ने यह मणि द्रौपदी को दे दी जिसे द्रौपदी ने युधिष्ठिर के अधिकार में दे दी।
शिव महापुराण (शतरुद्रसंहिता -37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

Saturday, April 25, 2020

परशुराम कौन थे?

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प्राचीन काल में एक गाधि नाम के राजा थे | उनकी एक अत्यंत ही रूपवती कन्या सत्यवती थी | राजा अपनी पुत्री का विवाह एक अत्यंत ही विद्वान पुरुष से करना चाहते थे | इसलिए राजा ने भृगु ऋषि के पुत्र भृगुनन्दन ऋषी के साथ सत्यवती का विवाह सुनिश्चित किया | इस मंगल अवसर पर भृगु ऋषि अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद देने आये | आशीर्वाद स्वरुप उन्होंने सत्यवती को कोई भी वरदान मांगने को कहा |
इस पर सत्यवती ने स्वयम को तथा अपनी माता को एक एक  यशस्वी पुत्र प्राप्त हो ऐसा वरदान माँगा | तब ऋषि ने सत्यवती को दो पात्र दिए और कहा इनमे से एक अपनी माता को दे देना और एक का सेवन खुद करना | पर सत्यवती की माता ने दोनों पात्रों की अदला बदली कर दी | इस वजह से सत्यवती को ब्राह्मण पुत्र की प्राप्ति तो होती पर उसका आचरण क्षत्रियों जैसा होता | 
ऋषि भृगु ने ये बात सत्यवती को बताई तब सत्यवती ने ऋषि से निवेदन किया की वो उन्हें ऐसा वरदान दे की उनका पुत्र ब्राह्मण जैसा आचरण करे पर उनका पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे |
ऋषि ने सत्यवती की बात मान ली और आगे चलकर भविष्य में सत्यवती को जमदग्नि पुत्र रूप में और परशुराम पौत्र रूप में प्राप्त हुए | 
पौराणिक मान्यता के अनुसार , धरती पर मानवता पर अत्याचार को ख़त्म करने के लिए तथा सुख शांति व् धर्म की स्थापना के लिए ईश्वर स्वरूप भगवान् परशुराम अवतरित हुए । उन्हें श्री हरि विष्णु का छठा अवतार माना जाता है उल्लेख मिलता है कि इनका जन्म सतयुग और त्रेता के संधिकाल मे वैसाख मास के शुक्ल पक्ष की त्रितया तिथि को माता रेणुका तथा पिता जमदग्नि ऋषि के आश्रम में हुआ ।  रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम।
परशुरामजी का उल्लेख रामायणमहाभारतभागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। जिस मे कोंकणगोवा एवं केरल का समावेश है। 
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तिर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पिछे धकेल ते हुए नई भूमि का निर्माण किया। और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला मे भगवान परशुराम वंदनीय है। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।
यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थीँ (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँख्वार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।
उन्होंने सैन्यशिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म और कर्ण
उनके जाने-माने शिष्य थे -
  1. भीष्म
  2. द्रोण (कौरव-पाण्डवों के गुरु व अश्वत्थामा के पिता) एवं
  3. कर्ण
कर्ण को यह ज्ञात नहीं था कि वह जन्म से क्षत्रिय है। वह सदैव ही स्वयं को शुद्र समझता रहा लेकिन उसका सामर्थ्य छुपा न रह सका। उन्होन परशुराम को यह बात नहीं बताई की वह शुद्र वर्ण के है। और भगवान परशुराम से शिक्षा प्राप्त कर ली। किन्तु परशुराम वर्ण व्यवस्था को अनुचित मानते थे। यदि कर्ण उन्हे अपने शुद्र होने की बात बता भी देते तो भी भगवान परशुराम कर्ण के तेज और सामर्थ्य को देख उन्हे सहर्ष शिक्षा देने को तैयार हो जाते। किन्तु जब परशुराम को इसका ज्ञान हुआ तो उन्होंने कर्ण को यह श्राप दिया की उनका सिखाया हुआ सारा ज्ञान उसके किसी काम नहीं आएगा जब उसे उसकी सर्वाधिक आवश्यकता होगी। इसलिए जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने सामने होते है तब वह अर्जुन द्वारा मार दिया जाता है क्योंकि उस समय कर्ण को ब्रह्मास्त्र चलाने का ज्ञान ध्यान में ही नहीं रहा।
रामायण मे शिव धनुष के भंग के प्रति उनका आक्रोश अपने गुरु महादेव के प्रति अनन्य निष्ठा के कारण ही उपजा था । तभी तो श्री राम उन्हें विनम्रतापूर्वक नमन करते है । उन्होंने समयानुकूल आचरण का जो आदर्श स्थापित किया , वह युगों युगों तक मानव मात्र को प्रेरणा देता रहेगा ।परशुराम राजा प्रसेनजीत की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय ऋषि जमदग्नि के पुत्र, विष्णुके अवतार और शिव के परम भक्त थे । इन्हें शिवसे विशेष परशु प्राप्त हुआ था । इनका नाम राम था, किन्तु भगवान शिव द्वारा प्राप्त अमोघ परशु को सदैव धारण कर रखने के कारण ये परशुराम कहलाते थे । विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिना जाता है । इनका जन्म वैशाख शुक्ल तृतीयाको हुआ था । अत: इस दिन परशुराम जयंती एक व्रत और उत्सवके रूपमें मनाई जाती है ।

परशुराम रामायण और महाभारत दोनों में कैसे मौजूद थे?
जब भी "धर्म" और "अधर्म" के बीच असंतुलन होता है तो विष्णु भगवान् धरती पर अवतरित हो कर उसे संतुलित करते हैं।
भगवान परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं जबकि भगवान राम और भगवान कृष्ण क्रमशः सातवें और आठवें अवतार हैं।
ये तीनो ही अवतार मानव के रूप में हैं। भगवान राम और भगवान कृष्ण एक सामान्य इंसान की तरह अपना शरीर छोड़कर इस धरती से विदा हुए।
भगवान परशुराम ने अपने अवतार के दौरान धर्म की स्थापना की, लेकिन आने वाले अवतारों में उनकी सहायता करने का उनका एक और कार्य भी था।
इस प्रकार उन्हें हिंदू संस्कृति में सात चिरंजीवियों में से एक माना जाता है।
उनकी त्रेता युग (भगवान राम की समय अवधि), द्वापर युग (भगवान कृष्ण की समय अवधि) में इन अवतारों की सहायता करने की भूमिका थी और वह फिर कलियुग में कल्कि अवतार के लिए आध्यात्मिक और युद्धःकला के गुरु के रूप में भूमिका निभाएंगे।
ऋषि व्यास, कृपाचार्य और अश्वत्थामा के साथ, परशुराम को ऋषियों में सबसे प्रमुख माना जाता है।
परशुराम 8 वें मनवंतर में इन तीनो के साथ सप्तर्षियों में से एक बन जायेगे।

दन्तकथाएँ

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कथानक मिलता है कि कैलाश स्थित भगवान शंकर के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुराम ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराते हुए गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराके भूतल पर पटक दिया। चेतनावस्था में आने पर कुपित परशुरामजी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदन्त कहलाये।

रामायण काल


उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर प्रथम तो स्वयं को "विश्व-विदित क्षत्रिय कुल द्रोही" बताते हुए "बहुत भाँति तिन्ह आँख दिखाये" और क्रोधान्ध हो "सुनहु राम जेहि शिवधनु तोरा, सहसबाहु सम सो रिपु मोरा" तक कह डाला। तदुपरान्त अपनी शक्ति का संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना करते हुए "अनुचित बहुत कहेउ अज्ञाता, क्षमहु क्षमामन्दिर दोउ भ्राता" तपस्या के निमित्त वन को लौट गये। रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ साक्षी हैं- "कह जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गये वनहिं तप हेतू"। वाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा के अनुसार दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया और परशुराम ने रामचन्द्र की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया।
जाते जाते भी उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविन्दों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की थी।

महाभारत काल 

भीष्म द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुराम के पास आयी। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा। उन दोनों के बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला। किन्तु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम उन्हें हरा न सके।
परशुराम अपने जीवन भर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे। किन्तु दुर्भाग्यवश वे तब तक सब कुछ दान कर चुके थे। तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा। तब चतुर द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं आपके सभी अस्त्र शस्त्र उनके मन्त्रों सहित चाहता हूँ ताकि जब भी उनकी आवश्यकता हो, प्रयोग किया जा सके। परशुरामजी ने कहा-"एवमस्तु!" अर्थात् ऐसा ही हो। इससे द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हो गये।

Tuesday, April 7, 2020

भगवान कृष्ण ने शिशुपाल के 100 अपराध क्षमा क्यूँ कर दिए थे


कौन था शिशुपाल : शिशुपाल 3 जन्मों से श्रीकृष्ण से बैर-भाव रखे हुआ था। इस जन्म में भी वह विष्णु के पीछे पड़ गया। दरअसल, शिशुपाल भगवान विष्णु का वही द्वारपाल था जिसे कि सनकादि मुनियों ने शाप दिया था। वे जय और विजय अपने पहले जन्म में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा अंतिम तीसरे जन्म में कंस और शिशुपाल बने।
शिशुपाल क्यों करता था अपमान?
क्योंकि शिशुपाल रुक्मणि से विवाह करना चाहता था। रुक्मणि के भाई रुक्म का वह परम मित्र था। रुक्म अपनी बहन का विवाह शिशुपाल से करना चाहता था और रुक्मणि के माता-पिता रुक्मणि का विवाह श्रीकृष्ण के साथ करना चाहते थे, लेकिन रुक्म ने शिशुपाल के साथ रिश्ता तय कर विवाह की तैयारियां शुरू कर दी थीं। कृष्ण रुक्मणि का हरण कर ले आए थे।

दूसरा कारण यह कि चेदि के यादव वंशी राजा शिशुपाल कंस और जरासंध मित्र था। शिशुपाल ने श्रीकृष्ण को घेरने के लिए जरासंध का हर मौके पर साथ दिया था। शिशुपाल को यह भी मालूम था कि श्रीकृष्ण मुझे 100 अपराध करने तक नहीं मारेंगे।
क्यों श्रीकृष्ण ने 100 बार क्षमा करने का प्रण लिया था?
शिशुपाल कृष्ण की बुआ का लड़का था। जब शिशुपाल का जन्म हुआ तब उसके 3 नेत्र तथा 4 भुजाएं थीं। वह गधे की तरह रो रहा था। माता-पिता उससे घबराकर उसका परित्याग कर देना चाहते थे, लेकिन तभी आकाशवाणी हुई कि बालक बहुत वीर होगा तथा उसकी मृत्यु का कारण वह व्यक्ति होगा जिसकी गोद में जाने पर बालक अपने भाल स्थित नेत्र तथा दो भुजाओं का परित्याग कर देगा।
इस आकाशवाणी और उसके जन्म के विषय में जानकर अनेक वीर राजा उसे देखने आए। शिशुपाल के पिता ने बारी-बारी से सभी वीरों और राजाओं की गोद में बालक को दिया। अंत में शिशुपाल के ममेरे भाई श्रीकृष्ण की गोद में जाते ही उसकी 2 भुजाएं पृथ्वी पर गिर गईं तथा ललाटवर्ती नेत्र ललाट में विलीन हो गया। इस पर बालक की माता ने दु:खी होकर श्रीकृष्ण से उसके प्राणों की रक्षा की मांग की। श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं इसके 100 अपराधों को क्षमा करने का वचन देता हूं। कालांतर में शिशुपाल ने अनेक बार श्रीकृष्ण को अपमानित किया और उनको गाली दी, लेकिन श्रीकृष्ण ने उन्हें हर बार क्षमा कर दिया।

शिशुपाल का वध : एक बार की बात है कि जरासंघ का वध करने के बाद श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम इन्द्रप्रस्थ लौट आए, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारी करवा दी। उस यज्ञ के ऋतिज आचार्य होते थे।
यज्ञ में युधिष्ठिर ने भगवान वेद व्यास, भारद्वाज, सुनत्तु, गौतम, असित, वशिष्ठ, च्यवन, कण्डव, मैत्रेय, कवष, जित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिन, क्रतु, पैल, पाराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतहोत्र, मधुद्वंदा, वीरसेन, अकृतब्रण आदि सभी को आमंत्रित किया। इसके अलावा सभी देशों के राजाधिराज को भी बुलाया गया।

यज्ञ पूजा के बाद यज्ञ की शुरुआत के लिए समस्त सभासदों में इस विषय पर विचार होने लगा कि सबसे पहले किस देवता की पूजा की जाए? तब सहदेवजी उठकर बोले- श्रीकष्ण ही सभी के देव हैं जिन्हें ब्रह्मा और शंकर भी पूजते हैं, उन्हीं को सबसे पहले पूजा जाए। पांडु पुत्र सहदेव के वचन सुनकर सभी ने उनके कथन की प्रशंसा की। भीष्म पितामह ने स्वयं अनुमोदन करते हुए सहदेव का समर्थन किया। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने शास्त्रोक्त विधि से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन आरंभ किया।

इस कार्य से चेदिराज शिशुपाल अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और बोला, 'हे सभासदों! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कालवश सभी की मति मारी गई है। क्या इस बालक सहदेव से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति इस सभा में नहीं है, जो इस बालक की हां में हां मिलाकर अयोग्य व्यक्ति की पूजा स्वीकार कर ली गई है? क्या इस कृष्ण से आयु, बल तथा बुद्धि में और कोई भी बड़ा नहीं है? क्या इस गाय चराने वाल ग्वाले के समान कोई और यहां नहीं है? क्या कौआ हविश्यान्न ले सकता है? क्या गीदड़ सिंह का भाग प्राप्त कर सकता है? न इसका कोई कुल है, न जाति, न ही इसका कोई वर्ण है। राजा ययाति के शाप के कारण राजवंशियों ने इस यदुवंश को वैसे ही बहिष्कृत कर रखा है। यह जरासंघ के डर से मथुरा त्यागकर समुद्र में जा छिपा था। भला यह किस प्रकार अग्रपूजा पाने का अधिकारी है?'

इस प्रकार शिशुपाल श्रीकृष्ण को अपमानित कर गाली देने लगा। यह सुनकर शिशुपाल को मार डालने के लिए पांडव, मत्स्य, केकय और सृचयवर्षा नरपति क्रोधित होकर हाथों में हथियार ले उठ खड़े हुए, किंतु श्रीकृष्ण ने उन सभी को रोक दिया। वहां वाद-विवाद होने लगा, परंतु शिशुपाल को इससे कोई घबराहट न हुई। कृष्ण ने सभी को शांत कर यज्ञ कार्य शुरू करने को कहा।

किंतु शिशुपाल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने फिर से श्रीकृष्ण को ललकारते हुए गाली दी, तब श्रीकृष्ण ने गरजते हुए कहा, 'बस शिशुपाल! मैंने तेरे एक सौ अपशब्दों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा की थी इसीलिए अब तक तेरे प्राण बचे रहे। अब तक सौ पूरे हो चुके हैं। अभी भी तुम खुद को बचा सकने में सक्षम हो। शांत होकर यहां से चले जाओ या चुप बैठ जाएं, इसी में तुम्हारी भलाई है।'

लेकिन शिशुपाल पर श्रीकृष्ण की चेतावनी का कोई असर नहीं हुआ अतः उसने काल के वश होकर अपनी तलवार निकालते हुए श्रीकृष्ण को फिर से गाली दी। शिशुपाल के मुख से अपशब्द के निकलते ही श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चला दिया और पलक झपकते ही शिशुपाल का सिर कटकर गिर गया। उसके शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान श्रीकृष्ण के भीतर समा गई।

शिखंडी के जन्म की कथा

शिखंडी को एक रात के लिए उधार में मिला था पुरुषत्व



तेरह वर्ष की उम्र में द्रुपद और द्रोण ने एक-दूसरे से वादा किया था, ‘चाहे हम कितनी भी संपत्ति जमा कर लें, अपने जीवन में जो भी उपलब्धि हासिल कर लें, हम उसे एक-दूसरे के साथ बांटेंगे।’
शिक्षा पूरी होने के बाद द्रुपद पांचाल लौट गए और राजा बन गए। द्रोण अपने अलग जीवन में चले गए और कृपाचार्य की बहन कृपी से विवाह कर लिया। उनका अश्वत्थामा नाम का एक पुत्र था। जन्म के समय किसी अश्व यानी घोड़े की तरह हंसने के कारण उसका नाम अश्वत्थामा पड़ गया था। उस समय के कृषि प्रधान समाज में दूध मुख्य भोजन होता था। मगर अश्वत्थामा का परिवार बहुत गरीब था जिसके पास न तो जमीन थी, न ही गायें, इसलिए इस बालक ने कभी दूध देखा ही नहीं था। एक बार शहर जाने पर उसने दूसरे लड़कों को दूध पीते देखा और उनसे पूछा कि वह क्या है। उन्हें एहसास हुआ कि अश्वत्थामा ने पहले कभी दूध नहीं देखा है। इसलिए उन्होंने थोड़ा चावल का आटा पानी में मिलाकर अश्वत्थामा को दे दिया। वह उसे दूध समझ कर खुशी-खुशी पी गया।
दूसरे लड़के उसका मजाक उड़ाने लगे क्योंकि वह दूध के बारे में जानता तक नहीं था। जब द्रोण को इस घटना के बारे में पता चला तो वह बहुत क्रोधित और बेचैन हो गए। फिर उन्हें याद आया कि उनके मित्र द्रुपद, जो अब एक बड़े राजा बन चुके थे, ने उनसे वादा किया था कि वह अपनी हर चीज द्रोण के साथ बांटेंगे। वह द्रुपद के दरबार में पहुंचे और कहा, ‘तुम्हें वह वादा याद है, जो हमने एक-दूसरे से किया था? तुम्हें अपना आधा राज्य मुझे देना चाहिए।’ उस वादे को कई साल हो चुके थे।
द्रुपद ने द्रोण को देख कर कहा, ‘तुम एक गरीब ब्राह्मण हो। तुम इसलिए क्रोधित हुए क्योंकि तुम्हारे पुत्र का अपमान किया गया। मैं तुम्हें एक गाय देता हूं, उसे लेकर चले जाओ। अगर तुम्हें और चाहिए, तो मैं तुम्हें दो गायें देता हूं। मगर एक ब्राह्मण के तौर पर तुम कैसे मेरा आधा राज्य मांग सकते हो?’ द्रोण ने कहा, ‘मैं तुमसे एक गाय नहीं आधा राज्य मांगने आया हूं। मुझे तुम्हारी खैरात की जरूरत नहीं है। मैं यहां मित्रता के नाते आया था।’ फिर द्रुपद ने कहा, ‘मित्रता बराबरी वाले लोगों में होती है। एक राजा और एक भिखारी मित्र नहीं हो सकते। तुम सिर्फ दान ले सकते हो। अगर तुम चाहो तो गाय ले लो, वरना यहां से जाओ।’ गुस्से से उबलते हुए द्रोण वहां से चले गए और इसका बदला लेने का प्रण किया।
द्रोण ने कसम खाई कि वे द्रुपद के हाथों मिले अपमान का बदला जरुर लेंगे। उन्होंने परशुराम से अस्त्र प्राप्त किए और हस्तिनापुर आ कर, कौरवों और पांडवों को युद्ध कला सिखाने लगे।
वे लोग अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी करने के बाद गुरुदक्षिणा देने के लिए उत्सुक थे। द्रोण ने उन्हें सबसे पहले यही कहा कि वे द्रुपद को उनके सामने ला कर खड़ा करें। कौरव और पांडव राजकुमारों ने बस इसी कारण पांचाल देश की राजधानी कांपिल्य पर हमला कर दिया।
हमले के लिए पहले कौरव राजकुमार गए और पांडव पीछे रूक कर देखते रहे। द्रुपद की सेना बिल्कुल तैयार नहीं थी। सभी इस हमले से चैंक गए, क्योंकि इस हमले का कोई स्पष्ट कारण वे समझ नहीं पा रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्हें हमले का अहसास हुआ आम नागरिकों भी अपने घरों से मिलने वाले चाकू, कड़छीए लाठियाँ और जो कुछ भी हाथ आया, उसी के साथ लड़ने आ गए। उन्होंने कौरवों से लड़ाई की और उन्हें पीट कर वापिस भेज दिया। आम लोगों के हाथों परास्त कौरव अपमानित हो कर लौट गए। तब द्रोण ने अर्जुन से कहा, ‘यह गुंरु दक्षिणा तुम्हें देनी होगी। जाओ, जा कर द्रुपद को ले कर आओ।’
भीम और अर्जुन चुपचाप शहर में प्रवेश कर गए, उन्होंने द्रुपद को पकड़ कर बाँधा और उन्हें ले जा कर द्रोण के चरणों में डाल दिया। जैसे ही दु्रपद ने द्रोण को देखा तो वे जान गए कि वे युवक द्रोण के कहने से ही उन्हें बांध कर लाए हैं।
एक महान योद्धा द्रोण के चरणों में कैदी बना पड़ा था। तब द्रोण ने कहा, ‘अब हम आपस में कुछ बाँटने की बात नहीं कर सकते क्योंकि हमारे स्तर समान नहीं रहे। तुम मेरे आगे गुलाम की तरह पड़े हो। तुम मुझे गुरु दक्षिणा के उपहार के तौर पर मिले हो। मैं तुम्हारे साथ जो जी चाहे कर सकता हूँ। लेकिन मैं तुम्हारा मित्र रहा हूँ इसलिए मैं तुम्हारे प्राण नहीं लूँगा।’
एक क्षत्रिय के लिए सबसे बुरा व्यवहार यही होता है कि उसे परास्त करने के बाद जीवित छोड़ दिया जाए। द्रोण यही चाहते थे। वे जानते थे कि द्रुपद को प्राणों का दान देना ही उनके साथ सबसे कठोर व्यवहार होगा। वह भी एक ब्राहम्ण के हाथों मिली हुई भिक्षा! द्रोण ने द्रुपद से कहा दृ आपका आधा राज्य मेरा है। एक दोस्त होने के नाते मैं आपको बाकी का आधा राज्य देता हूँ। बाकी के आधे राज्य पर शासन करो दृ राज्य का एक हिस्सा मेरा है। गुस्से, जलन और लज्जा से सुलग रहे द्रुपद अपने आधे राज्य में वापिस चले गए। वे इस अपमान के बाद नागरिकों को अपना मुख नहीं दिखा सकते थे। उनकी प्रजा यह सहन न कर पाती। वे गुस्से में सुलग रहे थे।
उन्होंने शिव को प्रार्थना करते हुए कहा, ‘मैं एक संतान चाहता हूँ जो मेरा बदला ले।’ द्रुपद युद्ध में परास्त होने के बाद, द्रोण को मल्ल युद्ध के लिए पुकारने का अधिकार भी खो चुके थे।
परंतु उनके यहां जिस संतान का जन्म हुआ, वह एक कन्या थी। द्रुपद को यह देख कर विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने शिव से कहा, ‘मुझे प्रतिशोध लेने के लिए संतान चाहिए थी। यह कन्या कैसे बदला लेगी?’ वे पहले दिन से ही कन्या को पुरुषों की तरह रखने लगे ताकि किसी का पता न चले कि उनके घर एक कन्या का जन्म हुआ था। उस कन्या को पुरुषों की तरह ही युद्ध कला सिखाई गई। वह अंबा का पुनर्जन्म थी, जिसे शिखंडी के नाम से जाना गया।
द्रुपद केवल द्रोण से नहीं बल्कि कुरु वंश से भी बदला लेना चाहते थे क्योंकि उन युवकों नेे ही द्रोण को बंदी बनाया था। वे उन सबको खत्म करना चाहते थे और भीष्म कौरवों के वंश में स्तंभ की तरह खड़े थे। द्रुपद जानते थे कि अगर भीष्म को खत्म कर दिया जाए तो सारे कौरव वंश का नाश हो सकता था। चौदह वर्ष की आयु में शिखंडी गायब हो गयी। वे बहुत दुखी हुए और शिखंडी को हर तरफ खोजने लगे, पर उसे नहीं खोज सके। दरअसल शिखंडी पूर्ण यौवन की आयु पर थी और वह नहीं चाहती थी कि लोग ये समझ जाएं कि वो एक कन्या हैं। इसीलिए वो वन में रहकर अकेली युद्ध कला सीखने लगी। वन में स्तुनकर्ण नामक यक्ष ने शिखंडी की ये स्थिति देखकर सहायता की और कहा, ‘मैं तुम्हें पुरुषत्व प्रदान करता हूँ। अपनी जादुई शक्तियों का इस्तेमाल करके स्तुनकर्ण ने शिखंडी को पुरुष बना दिया। उसने कहा, ‘तुम सामाजिक रूप से पुरुष कहलाओगी, परंतु भीतर से एक स्त्री ही बनी रहोगी।’
द्रुपद का जीवन में एक ही उद्देश्य था - किसी तरह द्रोण को शर्मिन्दा करना और कुरु वंश को बर्बाद करना। उन्होंने किसी ऐसे व्यक्ति को खोजना आरंभ किया जो उन्हें यज्ञ के माध्यम से ऐसी संतान दिलवा सके जिमें द्रोण और कुरु वंश को हराने की क्षमता हो। उनकी भेंट यज व उपयज नामक दो प्रसिद्द तांत्रिकों से हुई जो पुत्रकर्म यज्ञ करने को तैयार थे। द्रुपद ने प्रार्थना की, ‘मुझे ऐसा पुत्र चाहिए जो द्रोण की हत्या करे और ऐसी पुत्री चाहिए जो कुरु वंश के बीच फूट डाल दे।’ बहुत बड़े यज्ञ के बाद, यज्ञ की अग्नि से एक पुत्र और पुत्री ने जन्म लिया - द्रौपदी व धृष्टद्युमन। इन दोनों का जन्म किसी स्त्री व पुरुष के संयोग से नहीं बल्कि अग्नि से हुआ था।

पांडवों का जन्म

महाभारत कथा : हस्तिनापुर में पांडवों ...



पांडु ने कुंतीभोज की दत्तक पुत्री कुंती और माद्रा की राजकुमारी माद्री से विवाह किया। वह एक युवा राजा थे, जिनकी दो युवा पत्नियां थीं। वह अब तक बहुत से युद्ध जीत चुके थे, मगर उनकी कोई संतान नहीं थी। राजा और राज्य के भविष्य के लिए, संतान का न होना एक बड़ी समस्या थी। भावी राजा कौन होगा? जैसे ही दूसरे लोगों को पता चलता कि सिंहासन का कोई उत्तराधिकारी राजकुमार नहीं है, तो कोई भी उस राज्य को हड़पने की महत्वाकांक्षा रख सकता था। यह एक राजनीतिक समस्या थी।
एक दिन, पांडु शिकार खेलने गए। उन्हें वहां हिरणों का एक जोड़ा प्रेम में रत दिखा। उन्हें लगा कि यह बेखबर जोड़ा आसान शिकार होगा और उन्होंने तीर चला दिया। वह इतने अच्छे तीरंदाज थे कि उन्होंने एक ही तीर से दोनों का शिकार कर लिया। उस हिरण, जो वास्तव में हिरण का रूप धरे एक ऋषि थे, ने मरने से पहले श्राप दिया, ‘शिकारियों में एक नियम होता है कि वे किसी गर्भवती पशु या प्रेमरत पशु को नहीं मारते क्योंकि उनके जरिये एक भावी पीढ़ी दुनिया में आती है। तुमने इस नियम को तोड़ा। इसलिए अगर तुम कभी भी प्रेम के वशीभूत होकर अपनी पत्नी को छुओगे तो तत्काल तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।’ इसलिए पांडु के बच्चे नहीं थे। उनकी दो पत्नियां थीं, मगर इस श्राप के कारण वह उनके करीब नहीं जा सकते थे।
एक बार फिर से पिछली पीढ़ी की तरह कुरु वंश संतानविहीन था। पांडु इस स्थिति से इतने निराश हुए कि वह राज्य में अपनी सारी दावेदारी और अधिकार त्याग कर अपनी पत्नियों के साथ वन में रहने चले गए। वह जंगल में रहने वाले ऋषि-मुनियों से बातचीत करके खुद को व्यस्त रखने और यह भूलने की कोशिश करते कि वह एक राजा हैं। मगर उनके अंदर की निराशा गहराती चली गई। एक दिन हताशा के चरम पर पहुंच कर वह कुंती से बोले, ‘मैं क्या करूं? मैं आत्महत्या करना चाहता हूं। अगर तुम दोनों में से किसी ने संतान नहीं पैदा की, तो कुरुवंश खत्म हो जाएगा। धृतराष्ट्र के भी बच्चे नहीं हैं। इसके अलावा, वह सिर्फ नाम के राजा हैं और चूंकि वह नेत्रहीन हैं, इसलिए उनके बच्चों को वैसे भी राजा नहीं बनना चाहिए।’
जब वह हताश होकर आत्महत्या की बात करने लगे, तो कुंती ने उन्हें अपने बारे में कुछ बताया। वह बोलीं, ‘एक उपाय है।’ पांडु ने पूछा, ‘क्या?’ कुंती बोलीं, ‘जब मैं छोटी थी, तो दुर्वासा ऋषि मेरे पिता के पास आए थे और मैंने उनका आदर-सत्कार किया था। वह मुझसे इतने खुश हुए कि उन्होंने मुझे एक मंत्र दिया। उन्होंने कहा कि इस मंत्र से मैं किसी भी देवता का आह्वान करके अपने पास बुला सकती हूं और उनकी संतान को पैदा कर सकती हूं।
कुंती ने उन्हें यह नहीं बताया कि वह पहले भी इस तरह किसी को बुला चुकी हैं। पांडु ने इसके लिए बहुत उत्सुकता दिखाई और बोले, ‘कृपया ऐसा ही करो। हम किसे बुलाएं?’ उन्होंने पल भर सोचा, फिर पांडु ने कहा, ‘हमें धर्म को बुलाना चाहिए। धर्मपुत्र को हम कुरु वंश का राजा बना सकते हैं।’ धर्म को यमराज के नाम से भी जाना जाता है, जो मृत्यु और न्याय के देवता हैं।
कुंती जंगल में चली गईं और धर्म का आह्वान किया। फिर उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया और उन्हें पांडु का पहला पुत्र माना गया। एक साल बीत जाने पर पांडु के मन में फिर लोभ आया और वह बोले, ‘एक और बच्चा पैदा करते हैं।’ कुंती बोलीं, ‘नहीं, हमारे पास एक पुत्र है। अब कुरु वंश को अपना उत्तराधिकारी मिल चुका है। इतना काफी है।’ पांडु बोले, ‘नहीं, हमें एक और बच्चा पैदा करना चाहिए।’ उन्होंने कुंती से प्रार्थना की, ‘अगर मेरा सिर्फ एक पुत्र होगा, तो लोग क्या सोचेंगे। कृपया एक और बच्चा पैदा करो।’ ‘उसका पिता कौन होगा?’ पांडु ने कहा, ‘हमारे पास धर्म है, मगर हमें ताकत भी चाहिए। इसलिए वायु देवता को बुलाते हैं।’ कुंती ने जंगल में जाकर वायु देवता का आह्वान किया। वायु आए। उनकी मौजूदगी इतनी प्रचंड थी कि वे एक जगह पर टिक नहीं पा रहे थे। वह कुंती को लेकर वहां से उड़ गए।
महाभारत में इसका विस्तार से सुंदर वर्णन किया गया है कि किस तरह उन्होंने पहले पहाड़ पार किए, फिर समुद्र और उसके बाद वे क्षीर सागर पहुंचे। उन्होंने कुंती को दिखाया कि पृथ्वी वास्तव में गोल है, जबकि उस समय हर कोई यह समझता था कि पृथ्वी चपटी है। उन्होंने कुंती को बताया कि भारतवर्ष में जब दिन होता है, तो दुनिया के दूसरी ओर रात होती है। और जब यहां रात होती है, तो वहां दिन होता है। उन्होंने पांच हजार वर्ष पहले ही स्पष्ट रूप से कह दिया था कि पृथ्वी गोल है और पृथ्वी के दूसरी ओर एक और महान सभ्यता है। उन्होंने बताया कि उस ओर किस तरह के लोग रहते हैं और वे किन चीजों में निपुण और दक्ष हैं। उन्होंने बताया कि इस धरती पर महान ऋषि-मुनि और योद्धा भी हैं। कुंती ने वायु पुत्र भीम के रूप में अपनी दूसरी संतान को जन्म दिया। भीम बड़े होकर दुनिया के सबसे शक्तिशाली मनुष्य बने।
कुछ समय बाद, पांडु ने कहा, ‘मैं जानता हूं कि मैं लालच में पड़ रहा हूं, मगर इन दो सुंदर पुत्रों को देखने के बाद, मैं कैसे रुक सकता हूं? मैं सिर्फ एक और पुत्र चाहता हूं – सिर्फ एक और।’ कुंती बोली, ‘नहीं, नहीं।’ समय बीतता गया, मगर पांडु ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। आखिरकार कुंती बोलीं, ‘ठीक है, अब कौन?’ वह बोले, ‘अब देवताओं के राजा इंद्र को बुलाते हैं, उनसे कम पर बात नहीं बनेगी।’ कुंती ने अब इंद्र के पुत्र को अपनी कोख में धारण किया और महान तीरंदाज तथा योद्धा अर्जुन को जन्म दिया। महाभारत में उन्हें क्षत्रिय कहा गया, जिसका मतलब योद्धा होता है। उनके जैसा कोई और योद्धा नहीं हुआ और न होगा। उन्हें सिर्फ युद्ध में संतुष्टि मिलती थी।
तीनों बच्चे बड़े हुए और उन्होंने अद्भुत कौशल, क्षमताओं और बुद्धि का प्रदर्शन किया। सभी का ध्यान उन पर और उनकी माता कुंती पर था। पांडु की दूसरी युवा पत्नी जिसके पास अपना कहने के लिए न पति था और न ही बच्चे, वह दिन-ब-दिन कड़वाहट से भरती चली गईं। एक दिन पांडु ने ध्यान दिया कि माद्री अब वह सुंदर युवती नहीं रही थी, जिससे उन्होंने विवाह किया था, उसका चेहरा द्वेषपूर्ण लगने लगा था। उन्होंने पूछा, ‘क्या बात है? क्या तुम खुश नहीं हो?’ माद्री ने कहा, ‘मैं कैसे खुश हो सकती हूं? बस आप, आपके तीन बेटे और आपकी दूसरी पत्नी ही सब कुछ है। मेरे लिए क्या है?’ थोड़ी देर बहस करने के बाद, वह बोलीं, ‘अगर आप कुंती से मुझे मंत्र सिखाने के लिए कहें, तो मैं भी मां बन सकती हूं। फिर आप मुझ पर भी ध्यान देंगे। वरना, मैं सिर्फ‍ पिछलग्गू बन कर रह जाऊंगी।’

कुंती ने माद्री को मन्त्र सिखाया

पांडु उसका दुख समझ गए। वह कुंती के पास गए और कहा, ‘माद्री को बच्चे की जरूरत है।’ कुंती ने कहा, ‘क्यों? मेरे बच्चे भी तो उसके बच्चे हैं।’ पांडु बोले, ‘नहीं, वह अपने बच्चे चाहती है। क्या तुम उसे मंत्र सिखा सकती हो?’ कुंती ने कहा, ‘मैं मंत्र नहीं सिखा सकती, लेकिन अगर यह जरूरी है तो मैं मंत्र का प्रयोग करूंगी और वह जिस देवता को चाहे बुला सकती है।’ वह माद्री को जंगल की एक गुफा में ले गई और बोलीं, ‘मैं मंत्र का प्रयोग करूंगी। तुम जिस देवता को चाहो, बुला सकती हो।’ माद्री असमंजस में पड़ गई, ‘मैं किसे बुलाऊं? मैं किसे बुलाऊं?’ उसे दोनों अश्विनों का ख्याल आया, जो देवता नहीं, परंतु आधे देवता हैं। अश्व का मतलब है घोड़ा, ये दोनों दिव्य अश्वारोही थे, जो अश्व विशेषज्ञों के कुल से संबंध रखते थे। माद्री ने इन अश्विनों के जुड़वां बच्चों – नकुल और सहदेव को जन्म दिया।

पांडू की पुत्रों की चाह

अब कुंती के तीन बच्चे – युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन थे और माद्री के दो बच्चे – नकुल और सहदेव थे। मगर पांडु को और भी बच्चों की इच्छा थी। एक राजा के नाते उसके जितने बेटे होते, उतना ही बेहतर होता। युद्धों में बेटों की संख्या कम हो सकती थी, इसलिए राज्यों को जीतने या सिर्फ राज करने के लिए भी जितने संभव हो, उतने बेटे होना बेहतर था। कुंती ने अब हाथ खड़े कर दिए, ‘अब मैं और बच्चे पैदा नहीं कर सकती।’ पांडु ने प्रार्थना की, ‘ठीक है, अगर तुम नहीं चाहतीं, तो माद्री के लिए इस मंत्र का प्रयोग करो।’ कुंती ने इंकार कर दिया क्योंकि ज्यादा बेटों वाली रानी ही पटरानी बनती। उसके तीन बेटे थे और माद्री के दो। वह इस फायदेमंद स्थिति को हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी। उसने साफ मना कर दिया, ‘यह बिल्कुल नहीं हो सकता। हम अब इस मंत्र का प्रयोग नहीं करेंगे।’
ये लड़के पांच पांडवों के रूप में बड़े हुए। पांडु के बेटों को पांडव कहा गया। वे राजकुमार और शाही परिवार के सदस्य थे मगर वे जंगल में पैदा और बड़े हुए। 15 वर्ष की उम्र तक वे जंगल में ही पले-बढ़े।

शांतनु का जन्म कैसे हुआ?

शांतनु की कथा रोचक है।
प्राचीन काल में महाभिष नामक एक प्रतापी राजा हुए थे। उन्होंने इतने सारे पुण्य-कार्य किये कि उन्हें स्वर्ग बुला लिया गया एवं उन्हें देवताओं जैसे अधिकार एवं मान-सम्मान के योग्य माना गया। वे कल्पतरु, कामधेनु, चिंतामणि आदि कामना पूरी कर सकनेवाले वृक्ष, गाय एवं रत्न, जो देवलोक में, इन्द्र के पास सुरक्षित थे, वहाँ भी बेरोकटोक आ-जा सकते थे।
एक दिन इन्द्र की सभा में गंगा, जो एक अप्सरा थींं, आईं। अचानक हवा के झोंके से उनका आँचल खिसक गया और वे शरीर के ऊपरी हिस्से से अनावृत-सी हो गईंं। सभी देवताओं ने, शिष्टाचार-वश, तत्काल अपनी आँखें नीची कर लीं, किंतु महाभिष गंगा के सौंदर्य में, इतने खो गए कि बस देखते ही रह गए।
सभा की, संसद की मर्यादा भंग होने से, इंद्र कूपित हो गए।
उन्होंने महाभिष को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया और पृथ्वी पर मनुष्य-योनि में जन्म लेने का आदेश दिया। गंगा को भी मनुष्य-योनि में जन्म लेने एवं महाभिष का दिल तोड़ने का आदेश दिया गया।
महाभिष ने ब्रह्मा जी से अनुरोध किया कि, उन्हें हस्तिनापुर के पुरुवंशी सम्राट प्रतीप के घर, उनके पुत्र-रूप में जन्म लेने की सुविधा प्रदान की जाए। ऐसा ही हुआ। वे प्रतीप के छोटे बेटे शांतनु कहलाये।
प्रतीप के वानप्रस्थ-जीवन में प्रवेश करने के बाद, उन्हें सिंहासन पर बैठाया गया, क्योंकि बड़े भाई देवापि, कुष्ठ-रोग से पीड़ित होने के कारण, सिंहासन के अयोग्य बताए गये। वे वन में चले गए। मंझले भाई वाह्लीक, अपने मामा के राज्य, बाल्ख के उत्तराधिकारी बने।
इधर एक दिन, प्रतीप, जब एक नदी किनारे, ध्यान-मग्न बैठे थे, तभी, एक सुंदर युवती, आकर, उनकी दाँयी जाँघ पर बैठ गई।
प्रतीप ने आश्चर्य से पूछा कि तुम यदि मेरी बाँयी जाँघ पर बैठती, तो इसका अभिप्राय होता कि तुम मेरी पत्नी बनना चाहती हो, किंतु तुम मेरी दाँयी जंघा पर बैठी हो, इसका अभिप्राय हुआ तुम मेरी पुत्री-समान हो। तुम कौन हो ? क्या चाहती हो ?
गंगा ने शांतनु की पत्नी एवं उनके पुत्र-वधू. होने की इच्छा जताई। प्रतीप ने इसकी स्वीकृति दे दी।
संयोग से नदी किनारे टहलते हुए, शांतनु ने, एक दिन, गंगा को देखा और आकर्षित होकर, उन्होंने विवाह का प्रस्ताव दिया।
गंगा ने इस शर्त पर इसे स्वीकार किया कि शांतनु, उसे कभी, किसी कार्य से रोकेंगे नहीं, टोकेंगे नहीं, अन्यथा वह, उन्हें छोड़ कर चली जाएगी।
समय के साथ उनके आठ बच्चे हुए, किंतु जन्म के बाद, गंगा, उन्हें नदी डुबोती गई और शांतनु मन मसोस कर रह गए।
इस प्रकार सात पुत्रों को खोने के पश्चात्, आठवें पुत्र को बचाने के लिए, वे आगे आए।
उन्होंने गंगा को रोका और पूछा कि तुम ऐसा क्यों कर रही हो ?
गंगा ने, उन्हें बताया कि, उसके आठों पुत्र, पूर्व जन्म में आठ वसु थे, जिन्हें, वशिष्ठ मुनि की गाय चुराने के आरोप में, मनुष्य-योनि में जन्म लेने का शाप मिला था।
उन सबों ने गंगा से प्रार्थना की थी कि वे, उन्हें, उनके शाप से शीघ्र मुक्ति दिला दें, ताकि उन्हें पृथ्वी पर अधिक समय के लिए टिकना नहीं पड़े।
गंगा ने माँ बन कर, उनकी इच्छा पूरी की और उन्हें जन्म के साथ ही डुबोती रहीं। आठवां वसु का दोष अधिक था। अतः उसे लम्बी अवधि की सजा, धरती पर, रह कर काटनी है।
अतः उनका आठवां पुत्र जीवित रहेगा, किंतु उसके समुचित लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा के लिए, वह उसे अपने साथ ले जाएगी। जब वह अठारह वर्ष का हो जाएगा, तो उसे, उसके पिता के पास, भेज देगी।
वही बालक देवव्रत आगे चल कर भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुआ।

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...