Thursday, November 4, 2021

जानिए दीपावली कब से शुरू हुई और उन दिनों में क्या करना चाहिए?

🏹🚩सनातन धर्म संस्कृति🚩🏹
जानिए दीपावली कब से शुरू हुई और उन दिनों में क्या करना चाहिए?
दीपावली शब्द दीप एवं आवली की संधि से बना है । आवली अर्थात पंक्ति । इस प्रकार दीपावली का शाब्दिक अर्थ है, दीपों की पंक्ति । दीपावली के समय सर्वत्र दीप जलाए जाते हैं, इसलिए इस त्यौहार का नाम दीपावली है । 

भारतवर्ष में मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक एवं धार्मिक इन दोनों दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्व है । इसे दीपोत्सव भी कहते हैं । ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय ।’ अर्थात अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदों की आज्ञा है । अपने घर में सदैव लक्ष्मी का वास रहे, ज्ञान का प्रकाश रहे, इसलिए सभी अत्यंत हर्षोउल्लास से दीपावली मनाते हैं । 

प्रभु श्रीराम चौदह वर्ष का वनवास समाप्त कर अयोध्या लौटे, उस समय प्रजा ने दीपोत्सव मनाया । तब से प्रारंभ हुई दीपावली ।श्रीकृष्ण ने आसुरी वृत्ति के नरकासुर का वध कर जनता को भोगवृत्ति, लालसा, अनाचार एवं दुष्टप्रवृत्ति से मुक्त किया एवं प्रभुविचार (दैवी विचार) देकर सुखी किया, यह वही ‘दीपावली’ है । हम अनेक वर्षों से एक रूढ़ि के रूप में ही दीपावली मना रहे हैं ।

🚩दीपावली दृश्यपट:-

🚩1. दीपावली का इतिहास:-
बलिराजा अत्यंत दानवीर थे । द्वार पर पधारे अतिथि को उनसे मुंहमांगा दान मिलता था । दान देना गुण है; परंतु गुणों का अतिरेक दोष ही सिद्ध होता है । किसे क्या, कब और कहां दें, 
इसका निश्चित विचार शास्त्रों में एवं गीता में बताया गया है । सत्पात्र को दान देना चाहिए, अपात्र को नहीं । अपात्र मानवों के हाथ संपत्ति लगने पर वे मदोन्मत्त होकर मनमानी करने लगते हैं ।

बलि राजा से कोई, कभी भी, कुछ भी मांगता, उसे वह देते। 
तब भगवान श्रीविष्णु ने ब्रह्मचारी बालक का (वामन) अवतार लिया । ‘वामन’ अर्थात छोटा । ब्रह्मचारी बालक छोटा होता है और वह ‘ॐ भवति भिक्षां देही ।’ अर्थात ‘भिक्षा दो’ ऐसा कहता है । विष्णु ने वामन अवतार लिया एवं बलिराजा के पास जाकर भिक्षा मांगी । 

बलिराजा ने पूछा, ‘‘क्या चाहिए ?’’ तब वामन ने त्रिपाद भूमिदान मांगा । ‘वामन कौन है एवं इस दान से क्या होगा’, इसका ज्ञान न होने के कारण बलिराजा ने इस वामन को त्रिपाद भूमि दान कर दी । इसके साथ ही वामन ने विराट रूप धारण कर एक पैर से समस्त पृथ्वी नाप ली, दूसरे पैरसे अंतरिक्ष एवं फिर बलिराजा से पूछा ‘‘तीसरा पैर कहां रखूं ?’’ उसने उत्तर दिया ‘‘तीसरा पैर मेरे मस्तक पर रखें’’ । तब तीसरा पैर उसके मस्तक पर रख, उसे पाताल में भेजने का निश्चय कर वामन ने बलिराजासे कहा, ‘‘तुम्हें कोई वर मांगना हो, तो मांगो (वरं ब्रूहि) ।’’बलिराजा ने वर मांगा कि ‘अब पृथ्वी पर मेरा समस्त राज्य समाप्त होनेको है एवं आप मुझे पाताल में भेजनेवाले हैं, ऐसे में तीन कदमों के इस प्रसंग के प्रतीकरूप पृथ्वी पर प्रतिवर्ष कम से कम तीन दिन मेरे राज्य के रूप में माने जाएं । 

प्रभु, 
यमप्रीत्यर्थ दीपदान करनेवालेको यमयातनाएं न हों । 
उसे अपमृत्यु न आए । 
उसके घर पर सदा लक्ष्मीका वास हो । 
यह फल इस तीन दीन प्राप्त हो यह वर प्राप्त हुआ,
ये तीन दिन अर्थात कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी, अमावस्या एवं कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा । इसे ‘बलिराज्य’ कहा जाता है ।

🚩2. दीपावली कब मनाई जाती है ?
दीपावली पर्व के अंतर्गत आनेवाले महत्त्वपूर्ण दिन हैं, 
कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी (धनत्रयोदशी / धनतेरस), 
कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी (नरकचतुर्दशी), 
अमावस्या (लक्ष्मीपूजन) एवं कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा (बलिप्रतिपदा) ये तीन दिन दीपावली के विशेष उत्सव के रूप में मनाए जाते हैं । 

कुछ लोग त्रयोदशी को दीपावली में सम्मिलित न कर, शेष तीन दिनों की ही दीवाली मनाते हैं । वसुबारस अर्थात गोवत्स द्वादशी, धनत्रयोदशी अर्थात धनतेरस तथा भाईदूज अर्थात यमद्वितीया, ये दिन दीपावली के साथ ही आते हैं। इसलिए, भले ही ये त्यौहार भिन्न हों, फिर भी इनका समावेश दीपावली में ही किया जाता है । इन दिनों को दीपावली का एक अंग माना जाता है । कुछ प्रदेशों में वसुबारस अर्थात गोवत्स द्वादशी को ही दीपावली का आरंभदिन मानते है ।

दीपावली आने से पूर्व ही लोग अपने घर-द्वार की स्वच्छता पर ध्यान देते हैं । घर का कूड़ा-करकट साफ करते हैं । घर में टूटी-फूटी वस्तुओं को ठीक करवाकर घर की रंगाई करवाते हैं । इससे उस स्थान की न केवल आयु बढ़ती है, आकर्षण भी बढ़ जाता है।
वर्षाऋतु में फैली अस्वच्छता का भी परिमार्जन हो जाता है । स्वच्छता के साथ ही घर के सभी सदस्य नए कपड़े सिलवाते हैं । विविध मिठाइयां भी बनायी जाती है । ब्रह्मपुराण में लिखा है कि दीपावली को श्री लक्ष्मी सदगृहस्थों के घर में विचरण करती।
घर को सब प्रकार से स्वच्छ, शुद्ध एवं सुशोभित कर दीपावली मनानेसे श्री लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं तथा वहां स्थायीरूप से निवास करती हैं ।

🚩3. दीपावली में बनाई जानेवाली विशेष रंगोलियां:
दीपावली के पूर्वायोजन का ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है, रंगोली । 
दीपावली के शुभ पर्व पर विशेष रूप से रंगोली बनाने की प्रथा है । रंगोली के दो उद्देश्य हैं – सौंदर्य का साक्षात्कार एवं मंगल की सिद्धि । रंगोली देवताओं के स्वागतका प्रतीक है । रंगोली से सजाए आंगन को देखकर देवता प्रसन्न होते हैं । 
इसी कारण दिवाली में प्रतिदिन देवताओं के तत्त्व आकर्षित करने वाली रंगोलियां बनानी चाहिए तथा उस माध्यम से देवतातत्त्व का लाभ प्राप्त करना चाहिए ।

🚩4. तेल के दीप जलाना:-
रंगोली बनाने के साथ ही दीपावली में प्रतिदिन किए जानेवाला यह एक महत्त्वपूर्ण कृत्य है । दीपावली में प्रतिदिन सायंकाल में देवता एवं तुलसी के समक्ष, साथ ही द्वार पर एवं आंगन में विविध स्थानों पर तेल के दीप लगाए जाते हैं । यह भी देवता तथा अतिथियों का स्वागत करने का प्रतीक है । 

आज-कल तेल के दीप के स्थान पर मोम के दीप लगाए जाते हैं अथवा कुछ स्थानों पर बिजली के दीप भी लगाते हैं । परंतु शास्त्र के अनुसार तेल के दीप लगाना ही उचित एवं लाभदायक है । 

तेल का दीप एक मीटर तक की सात्त्विक तरंगें खींच सकता है । इसके विपरीत मोम का दीप केवल रज-तमकणों का प्रक्षेपण करता है, जबकि बिजली का दीप वृत्ति को बहिर्मुख बनाता है । 
इसलिए दीपों की संख्या अल्प ही क्यों न हो, तो भी तेल के दीप की ही पंक्ति लगाएं ।

🚩5. आकाश दीप अथवा आकाश कंडील:-
विशिष्ट प्रकारके रंगीन कागज, थर्माकोल इत्यादिकी विविध कलाकृतियां बनाकर उनमें बिजली के दिये लगाए जाते हैं, उसे आकाशदीप अथवा आकाशकंदील कहते हैं ।
आकाशदीप सुशोभन का ही एक भाग है ।

🚩6. दीपावली पर्व पर बच्चों द्वारा बनाए जानेवाले घरौंदे एवं किले:-
दीपावली के अवसर पर दक्षिण भारत के कुछ स्थानों पर बच्चे आंगन में मिट्टी का घरौंदा बनाते हैं, जिसे कहीं पर ‘हटरी’, तो कहीं पर ‘घरकुंडा’के नाम से जानते हैं । दीप से सजाकर, इसमें खीलें, बताशे, मिठाइयां एवं मिट्टी के खिलौने रखते हैं । महाराष्ट्र में बच्चे किला बनाते हैं तथा उसपर छत्रपति शिवाजी महाराज एवं उनके सैनिकों के चित्र रखते हैं । इस प्रकार त्यौहारों के माध्यमसे पराक्रम तथा धर्माभिमान की वृद्धि कर बच्चों में राष्ट्र एवं धर्म के प्रति कुछ नवनिर्माण की वृत्ति का पोषण किया जाता है ।

🚩7. दीपावली शुभसंदेश देनेवाले दीपावली के शुभेच्छापत्र:-

दीपावली के मंगल पर्व पर लोग अपने सगे-संबंधियों एवं शुभचिंतकों को, आनंदमय दीपावली की शुभकामनाएं देते हैं । इसके लिए वे शुभकामना पत्र भेजते हैं तथा कुछ लोग उपहार भी देते हैं । ये साधन जितने सात्त्विक होंगे, देनेवाले एवं प्राप्त करनेवाले को उतना ही अधिक लाभ होगा । शुभकामना पत्रों के संदेश एवं उपहार, यदि धर्मशिक्षा, धर्मजागृति एवं धर्माचरणसे संबंधित हों, तो प्राप्त करनेवाले को इस दिशा में कुछ करने की प्रेरणा भी मिलती।
हिंदू जनजागृति समिति एवं सनातन संस्था द्वारा इस प्रकार के शुभेच्छापत्र बनाए जाते हैं ।

🚩संदर्भ : सनातनका ग्रंथ, ‘त्यौहार मनाने की उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र’ एवं अन्य ग्रंथ

🔚🏹🇮🇳⛳🔱🌞⚜️🐚🕉️🙏🏻


Monday, September 13, 2021

भगवान श्री गणेश ओर तुलसी संक्षिप्त कथा

पौराणिक काल की बात है | भगवान श्री गणेश गंगा के तट पर भगवान विष्णु के ध्यान में मग्न थे | गले में सुन्दर माला , शरीर पर चन्दन लिपटा हुआ था और वे रत्न जडित सिंहासन पर विराजित थे | उनके मुख पर करोडों सूर्यों का तेज चमक रहा था | इस तेज को धर्मात्मज की युवा कन्या तुलसी ने देखा और वे पूरी तरह गणेश जी पर मोहित हो गयी | तुलसी स्वयं भी भगवान विष्णु की परम भक्त थी| उन्हें लगा की यह मोहित करने वाले दर्शन हरि की इच्छा से ही हुए हैं | उसने गणेश से विवाह करने की इच्छा प्रकट की।
भगवान गणेश ने कहा कि वह ब्रम्हचर्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं और विवाह के बारे में अभी बिलकुल नहीं सोच सकते | विवाह करने से उनके जीवन में ध्यान और तप में कमी आ सकती है | इस तरह सीधे सीधे शब्दों में गणेश ने तुलसी के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया |

धर्मात्मज पुत्री तुलसी यह सहन नही कर सकी और उन्होंने क्रोध में आकर उमापुत्र गजानंद को श्राप दे दिया की उनकी शादी तो जरुर होगी और वो भी उनकी इच्छा के विरुद्ध ।

ऐसे वचन सुनकर गणेशजी भी क्रोधित हो उठे।गणेश जी ने उन्हें श्राप दे दिया कि तेरा विवाह एक असुर शंखचूड़ जलंधर से होगा। 

राक्षस से विवाह का श्राप सुनकर तुलसी विलाप करने लगी और गणेश जी से माफी मागी। दया के सागर भगवान गणेश ने उन्हें माफ कर दिया पर कहा कि मैं श्राप वापस तो नहीं ले सकता पर मैं तुम्हें एक वरदान देता हूँ।

इसके बाद गणेश जी ने कहा कि वह भगवान विष्णु और कृष्ण  प्रिय रहेगी और कलयुग में भी जीवन और मोक्ष देने का काम करेंगी लेकिन मेरी पूजा में तुम्हारा भोग कभी नहीं लगेगा। इसके बाद तुलसी जी का भोग कभी भी गणेश जी को नहीं लगाया जाता है। 
गणेश जी ने तुलसी को कहा कि दैत्य के साथ विवाह होने के बाद भी तुम विष्णु की प्रिय रहोगी और एक पवित्र पौधे के रूप में पूजी जाओगी। तुम्हारे पत्ते विष्णु के पूजन को पूर्ण करेंगे। चरणामृत में तुम हमेशा साथ रहोगी । मरने वाला यदि अंतिम समय में तुम्हारे पत्ते मुंह में डाल लेगा तो उसे वैकुण्ठ प्राप्त होगा। 

आगे गणेश जी का दिया श्राप पूरा होने लगा। शंखचूड़ नाम के राक्षस की शादी व़ृंदा नाम की युवती से हुई जो असल में  तुलसी थीं। वह पूरे संसार पर राज करना चाहता था।

वृंदा के पति का देवताओं ने कई बार वध करने का प्रयास किया लेकिन तुलसी के सतीत्व की वजह से ऐसा संभव नहीं हो पा रहा था।
इस समस्या से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान विष्णु के पास पहुंचे।उन्होंने समस्या का हल मांगा।भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रुप धारण किया और वृंदा के पास पहुंचे। 
अपने पति को देख उसने विष्णु के पैर छू लिए। वृंदा का सतीत्व भंग हो गया। देवताओं ने शंखचूड़ का वध कर दिया। अपने आपको छला मानकर उसने विष्णु जी को पत्थर बनजाने का श्राप दिया। लक्ष्मी मां को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने तुलसी को श्राप वापस लेने को कहा।

तुलसी ने अपना श्राप वापस ले लिया और अपने पति के साथ सति हो गई। भगवान विष्णु को पश्चाताप हुआ। उन्होंने खुद को पहले जैसे एक पत्थर के रुप में बनाया और शालिग्राम नाम दिया।साथ ही कहा कि आज से उन्हें जब भी भोग लगेगा तो वह तुलसी के साथ ही लगेगा। 
इसके बाद से भगवान विष्णु की पूजा में हमेशा से तुलसी का उपयोग होने लगा। साथ ही रविवार भगवान विष्णु का प्रिय दिन होता है इसलिए इस दिन तुलसी का पत्ता नहीं तोड़ा जाता।

Saturday, June 19, 2021

कल्कि अवतार का वर्णन

कल्कि अवतार का वर्णन 
युधिष्ठिर द्वारा मार्कण्डेय से पूछने पर मार्कण्डेय युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव के बारे में युधिष्ठिर को बताते हैं और तब कल्कि अवतार का वर्णन के बारे में बताया गया।

जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 190 में बताया गया है

मार्कण्डेय कहते हैं- युधिष्ठिर युगान्तकाल आने पर सब ओर आग जल उठेगी। उस समय पापीयों को मांगने पर कहीं अन्न, जल या ठहरने के लिये स्थान नहीं मिलेगा। वे सब ओर से कड़वा जवाब पाकर निराश हो सड़कों पर ही सोए रहेंगे। युगान्तकाल उपस्थित होने पर बिजली की कड़क के समान कड़वी बोली बोलने वाले कौवे, हाथी, शकुन, पशु और पक्षी आदि बड़ी कठोर वाणी बोलेंगे। उस समय के मनुष्य अपने मित्रों, सम्बन्धियों, सेवकों तथा कुटुम्बीजनों की भी अकारण त्याग देंगे।

प्रायः लोग स्वदेश छोड़कर दूसरे देशों, दिशाओं, नगरों और गांवों का आश्रय लेंगे और हे तात! हे पुत्र! इत्यादि रूप से अत्यन्त दुःखद वाणी में एक-दूसरे को पुकारते हुए इस पृथ्वी पर विचरेंगे। युगान्तकाल में संसारकी यही दशा होगी। उस समय एक ही साथ समस्त लोकों का भयंकर संहार होगा। तदन्तर कालान्तर में सत्ययुग का आरम्भ होगा और फिर क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्ण प्रकट होकर अपने प्रभाव का विस्तार करेंगे। उस समय लोक के अभ्युदय के लिये पुनः अनायास दैव अनुकूल होगा।

कल्कि अवतार का वर्णन

जब सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति एक साथ पुष्य नक्षत्र एवं तदनुरूप एक राशि कर्क में पदार्पण करेंगे, तब सत्ययुग का प्रारम्भ होगा। उस समय मेघ समय पर वर्षा करेगा। नक्षत्र शुभ एवं तेजस्वी हो जायेंगे। ग्रह प्रदक्षिणाभाव से अनुकूल गति का आश्रय ले अपने पथ पर अग्रेसर मैं होगा विष्णुयशा कल्कि। वह महान बुद्धि एवं पराक्रम से सम्पन्न महात्मा, सदाचारी तथा प्रजावर्ग का हितैषी होगा। मन के द्वारा चिन्तन करते ही उसके पास इच्छानुसार वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और कवच उपस्थित हो जायंगे। वह धर्म-विजयी चक्रवर्ती राजा होगा। वह उदारबुद्धि, तेजस्वी ब्राह्मण, दुःख से व्याप्त हुए इस जगत को आनन्द प्रदान करेगा। कलियुग का अन्त करने के लिये ही उसका प्रभाव होगा। वही सम्पूर्ण कलियुग का संहार करके नूतन सत्ययुग का प्रवर्तक होगा। वह ब्राह्मणों से घिरा हुआ सर्वत्र विचरेगा और भूमण्डल में सर्वत्र फैले हुए नीच स्वभाव वाले सम्पूर्ण म्लेच्छों का संहार कर ड़ालेगा।

ईश्वर का जन्म उत्तर प्रदेश के सम्भल मैं ब्राह्मण परिवार मै होगा

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...