Tuesday, August 25, 2020

श्री कृष्ण और 16 कलाएं

भगवान विष्णु ने जितने भी अवतार लिए सभी में कुछ न कुछ खासियत थीं और वे खासियत उनकी कला ही थी।
भगवान विष्णु के सभी अवतारों में भगवान श्री कृष्ण श्रेष्ठ अवतार थे क्योंकि उन्होंने गुरु सांदीपनि से इन सभी 16 कलाओं को सीखा था।

क्या होती हैं कलाएं?
भगवान श्रीकृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार माने जाते हैं। श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरुष थे। कृष्ण का गीता- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। आइए जानें भगवान श्रीकृष्ण किन 16 कलाओं में थे निपुण.
1 श्री-धन संपदा
प्रथम कला के रूप में धन संपदा को स्थान दिया गया है। जिस व्यक्ति के पास अपार धन हो और वह आत्मिक रूप से भी धनवान हो। जिसके घर से कोई भी खाली हाथ नहीं जाए वह प्रथम कला से संपन्न माना जाता है। यह कला भगवान श्री कृष्ण में मौजूद है।

2 भू-अचल संपत्ति
जिस व्यक्ति के पास पृथ्वी का राज भोगने की क्षमता है। पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग पर जिसका अधिकार है और उस क्षेत्र में रहने वाले जिसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करते हैं वह अचल संपत्ति का मालिक होता है। भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योग्यता से द्वारिका पुरी को बसाया। 

3 कीर्ति-यश प्रसिद्धि
जिसके मान-सम्मान व यश की कीर्ति से चारों दिशाओं में गूंजती हो। लोग जिसके प्रति स्वत: ही श्रद्घा व विश्वास रखते हों वह तीसरी कला से संपन्न होता है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद है। लोग सहर्ष श्री कृष्ण की जयकार करते हैं।

4 इला-वाणी की सम्मोहकता
चौथी कला का नाम इला हैअर्थ है मोहक वाणी। पुराणों में भी ये उल्लेख मिलता है कि श्री कृष्ण की वाणी सुनकर क्रोधी व्यक्ति भी अपना सुध-बुध खोकर शांत हो जाता था। यशोदा मैया के पास शिकायत करने वाली गोपियां भी कृष्ण वाणी सुनकर शिकायत भूलकर तारीफ करनेलगती थी।

5 लीला- आनंद उत्सव
पांचवीं कला का नाम है लीला। इसका अर्थ है आनंद। भगवान श्री कृष्ण धरती पर लीलाधर के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि इनकी बाल लीलाओं से लेकर जीवन की घटना रोचक और मोहक है। इनकी लीला कथाओं सुनकर कामी व्यक्ति भी भावुक और विरक्त होने लगता है।

6 कांति- सौदर्य और आभा
जिनके रूप को देखकर मन स्वत: ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है। जिसके मुखमंडल को देखकर बार-बार छवि निहारने का मन करता है वह छठी कला से संपन्न माना जाता है। भगवान राम में यह कला मौजूद थी। कृष्ण भी इस कला से संपन्न थे। 
कृष्ण की इस कला के कारण पूरा ब्रज मंडल कृष्ण को मोहिनी छवि को देखकर हर्षित होता था। गोपियां कृष्ण को देखकर काम पीडि़त हो जाती थीं और पति रूप में पाने की कामना करने लगती थीं।

7 विद्या- मेधा बुद्धि
सातवीं कला का नाम विद्या है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद थी। कृष्ण वेद, वेदांग के साथ ही युद्घ और संगीत कला में पारंगत थे। राजनीति एवं कूटनीति भी कृष्ण सिद्घहस्त थे।

8 विमला-पारदर्शिता
जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं हो वह आठवीं कला युक्त माना जाता है। महारास के समय भगवान ने अपनी इसी कला का प्रदर्शन किया था। इन्होंने राधा और गोपियों के बीच कोई फर्क नहीं समझा। सभी के साथ सम भाव से नृत्य करते हुए सबको आनंद प्रदान किया था।

9 उत्कर्षिणि-प्रेरणा और नियोजन
महाभारत के युद्घ के समय श्री कृष्ण ने नौवी कला का परिचय देते हुए युद्घ से विमुख अर्जुन को युद्घ के लिए प्रेरित किया और अधर्म पर धर्म की विजय पताका लहराई। नौवीं कला के रूप में प्रेरणा को स्थान दिया गया है। 

10 ज्ञान-नीर क्षीर विवेक
भगवान श्री कृष्ण ने जीवन में कई बार विवेक का परिचय देते हुए समाज को नई दिशा प्रदान की जो दसवीं कला का उदाहरण है। गोवर्धन पर्वत की पूजा हो अथवा महाभारत युद्घ टालने के लिए दुर्योधन से पांच गांव मांगना यह कृष्ण के उच्च स्तर के विवेक का परिचय है।

11 क्रिया-कर्मण्यता
जिनकी इच्छा मात्र से दुनिया का हर काम हो सकता है वह कृष्ण सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करते हैं और लोगों को कर्म की प्रेरणा देते हैं। महाभारत युद्घ में कृष्ण ने भले ही हाथों में हथियार लेकर युद्घ नहीं किया लेकिन अर्जुन के सारथी बनकर युद्घ का संचालन किया।

12 योग-चित्तलय
जिनका मन केन्द्रित है, अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है वह बारहवीं कला से संपन्न श्री कृष्ण हैं। इसलिए श्री कृष्ण योगेश्वर भी कहलाते हैं। कृष्ण उच्च कोटि के योगी थे। अपने योग बल से ब्रह्मास्त्र के प्रहार से माता के गर्भ में पल रहे परीक्षित की रक्षा की। 

13 प्रहवि-अत्यंतिक विनय
तेरहवीं कला का नाम प्रहवि है। इसका अर्थ विनय होता है। भगवान कृष्ण संपूर्ण जगत के स्वामी हैं। संपूर्ण सृष्टि का संचलन इनके हाथों में है फिर भी इनमें कर्ता का अहंकार नहीं है। गरीब सुदामा को मित्र बनाकर छाती से लगा लेते हैं। महाभारत युद्घ में विजय का श्रेय पाण्डवों को दे देते हैं। सब विद्याओं के पारंगत होते हुए भी ज्ञान प्राप्ति का श्रेय गुरू को देते हैं। यह कृष्ण की विनयशीलता है।

14 सत्य-यर्थाथ
श्री कृष्ण कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखते और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जानते हैं शिशुपाल की माता ने कृष्ण से पूछा की शिशुपाल का वध क्या तुम्हारे हाथों होगी। कृष्ण नि:संकोच कह देते हैं यह विधि का विधान है और मुझे ऐसा करना पड़ेगा।

15 इसना -आधिपत्य
तात्पर्य-व्यक्ति में उस गुण का मौजूद होना जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है, लोगों को अपने प्रभाव का एहसास दिलाता है। कृष्ण ने अपने जीवन में कई बार इस का भी प्रयोग किया जिसका एक उदाहरण, मथुरा निवासियों को द्वारिका में बसने के लिए तैयार करना।

16 अनुग्रह-उपकार
बिना प्रत्युकार की भावना से लोगों का उपकार करना यह सोलवीं कला है। भगवान कृष्ण कभी भक्तों से कुछ पाने की उम्मीद नहीं रखते हैं लेकिन जो भी इनके पास इनका बनाकर आ जाता है उसकी हर मनोकामना पूरी करते हैं।


Sunday, August 23, 2020

श्री कृष्ण के तीन बालरूप और हिन्दू मंदिरों में उनका चित्रांकन

 हिन्दू मंदिरों में देवी देवताओं के शिल्पों को हम दो मुख्य विभागों में वर्गीकृत कर सकते हैं; वैदिक देवता और पौराणिक अवतारों की कथाओं के शिल्प। पौराणिक अवतारों के जीवन लीला के प्रसंगों के अनुसार इनमे काफी वैविध्य देखा जाता है। इन कथाओं में सबसे अधिक लीलाधारी अवतार निसंदेह ही श्रीकृष्ण का है इसलिए कृष्ण की प्रतिमाओं में विविधतासभर प्रकारांतर होता है। चलिए कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर आज बालकृष्ण के ऐसे ही तीन स्वरूपों को मंदिर कला के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।

वेणुगोपाल कृष्ण

वेणुगोपाल उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक भारत के सभी प्रदेशों के लोगों के पसंदीदा हैं। इस प्रतिमा में मेघवर्णी श्यामसुन्दर अपने प्रिय गोप-गोपियों से घिरे होते हैं। वृक्षों से आच्छादित पृष्ठभूमि में गायों तथा बछड़ों को दिखाया जाता है। दोनों हाथों में कलात्मक रूप से बांसुरी धारण किए कृष्ण के अधरों पे मंद मंद मुस्कराहट होती है तथा अधबीडे नेत्रों में प्रेम का भाव होता है। दोनों पैरों को नृत्य मुद्रा में मोडे हुए वेणुगोपाल अपने सखा गोप-गोपियों के साथ होने के कारण इन्हें “गण-गोपाल” भी कहा जाता है।


हलेबिडु के शिव मंदिर में स्थित इस वेणुगोपाल की प्रतिमा का बारीकी से निरिक्षण कीजिये, कलाकार ने किस खूबसूरती से आच्छादित पृष्ठभूमि में गोधन और गोप-गोपियों का चित्रण किया है और श्रीकृष्ण के चेहरे पर मुस्कान देखते ही बनती है। आभूषणों से सज्जित कृष्ण प्रतिमा की भाव भंगिमा दर्शनार्थी की दृष्टि को बंधे रखती है।

केरल के कुछ शिल्पों में वेणुगोपाल को शंख तथा चक्र के साथ चतुर्भुज भी दिखाया गया है। एक और रसप्रद बात यह है कि जब बहुभुज वेणुगोपाल के हाथ में बांसुरी के साथ साथ गन्ना और पुष्प भी हों तो उन्हें “मदन गोपाल” कहा जाता है।

कालिया मर्दक कृष्ण

कालियामर्दन का प्रसंग सभी को ज्ञात है इसलिए उसकी पुनरावृत्ति ना करते हुए सीधे इसके प्रतिमा विज्ञान का विवरण देखते हैं। कालिय मर्दक बालकृष्ण को सौम्य मुद्रा में कालिय नाग के मस्तक पर नृत्य करते हुए दिखाया जाता है। बाएं हाथ में सर्प की पुच्छ पकडे कृष्ण का दूसरा हस्त अभय मुद्रा में होता है। यह एक तरह से अनिष्टों से अभय का प्रतीकात्मक चित्रण है। यदि इस प्रतिमा से कालिय नाग निकाल दें तो फिर यह प्रतिमा को “नवनीत नृत्य कृष्ण” प्रतिमा कहा जाएगा। इस प्रतिमा को ज्यादा आभूषणों से नहीं सजाया जाता। तंजौर से एल्लोरा तक के मंदिरों में इस प्रतिमा को उकेरा गया है और सभी प्रतिमाओं की समरूपता ध्यानाकर्षक है।


गोवर्धनधर कृष्ण

व्रजवासियों की रक्षा हेतु अपनी कनिष्ठा अंगुली पर गोवर्धन पर्वत धारण किए कृष्ण की विशेषता यह है कि इन प्रतिमाओं में कालिय मर्दक और वेणुगोपाल की भांति समरूपता नहीं होती। किसी स्थान पर कृष्ण दाएं हाथ से गोवर्धन उठाते हैं तो किसी मंदिर में बाएं हाथ से, इसका सबसे आश्चर्यजनक अवलोकन होयसला स्थापत्य में देखा गया है जहाँ के ही शैली की विभिन्न मूर्तियों में भी विषमताएं देखि गईं है। नुग्गेहल्ली के गोवर्धनधर कृष्ण हालेबिडु के गोवर्धनधर से एकदम अलग तरीके से बनाये गए हैं।


गोवर्धनधर कृष्ण की चर्चा पल्लव स्थापत्यकला के अप्रतिम उदहरण सम महाबलीपुरम के कृष्ण-मंडप गुफा का उल्लेख किए बिना अधूरी है। इस गुफा में ग्रेनाईट पत्थर से कृष्ण की गोवर्धन लीला को जीवंत स्वरुप देने का प्रयास किया गया है। यहां निर्भीक श्रीकृष्ण के साथ भयभीत व्रजवासियों और गायों का अद्भुत चित्रण किया गया है लेकिन इस गुफा को विशेष बनाती है इस दृश्य को जिवंत बनाने के लिए की गई कारीगरी। इसे ध्यान से देखने पर ऐसा महसूस होता है कि भित्तिचित्र को सजीव रूप देनेके लिए गुफा के ऊपरी भाग में जलस्त्रोत का निर्माण किया गया होगा और गुफा की छत में बने छेदों के माध्यम से गुफा में जलवर्षा कर के बारिश का प्रभाव उत्पन्न किया जाता होगा।

सहस्त्र वर्षों में महाबलीपुरम को भूला दिया गया, जलस्त्रोत नष्टप्राय हो गए और शिल्पों की आभा निस्तेज हो गई। जरा सोचिए, दीप प्राकट्य के समय संध्या-आरती के समय दीप प्राकट्य किया गया है और इन लघु तेजपुंजों के प्रकाश से गोवर्धन शरण व्रजवासियों के ऊपर से झरते पानी का अनुपम दृश्य और आपके समक्ष मंद हास्य करते गोवर्धनधारी की मनोरम्य प्रतिमा!

दास मारुति और वीर मारुति


हमारे धर्म में सभी देवी-देवताओं की एक निश्चित प्रकृति होती है। ब्रह्माजी सृष्टि निर्माण करते हैं, विष्णु सृष्टि के चालक हैं तो शिवजी प्रलय के देवता हैं। गणेशजी शुभ कार्यों में प्रथम पूजनीय ‘सुखकर्ता दुखहर्ता’ हैं तो लक्ष्मीजी धन की देवी हैं। सरस्वती ज्ञान का दान करतीं हैं तो भैरव अनिष्ट शक्तियों से रक्षा करते हैं। लेकिन जब हम राम भक्त हनुमान जी की बात करते हैं तब यह विषय रसप्रद हो जाता है। तुलसीदास जी ने हनुमान जी के लिए ‘ज्ञान गुण सागर’ ‘विद्यावान गुणी अति चातुर’ जैसे शब्दों के साथ साथ ‘सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा’ ‘भीम रूप धरि असुर संहारे’ जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है।

यदि गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमानजी को इतने सारे गुणों का भंडार बताया है तो जिज्ञासावश प्रश्न यह उठता है कि उनके किस स्वरुप की पूजा-आराधना करनी चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए चलिए चलते हैं कुछ प्राचीन मंदिरों की ओर… और ढूंढते हैं कुछ सिद्धहस्त कलाकारों के अप्रतिम चित्र!

आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले में चौथी शताब्दी में निर्मित उण्डावल्ली गुफ़ा में मारुति का शिल्प बारीकी से देखिए। मुख पर सौम्य भाव धारण किए मारुति की पुच्छ ज़मीन पर उनके पैरों के पास है। हनुमानजी की इस मुद्रा को ‘दास मारुति’ कहा गया है। जब हनुमानजी को भगवान श्री राम के साथ दिखाया जाता है तब उनका समस्त अस्तित्व राममय होता है और हनुमानजी का यह दास्य भाव हमारे मन मस्तिष्क में एक अनूठी भावमय चेतना का सँचार करता है।

andhra pradesh

इसके विपरित १५वीं शताब्दी में निर्मित विजयनगर-हम्पी के अवशेषों में प्राप्य कुछ प्रतिमाओं में हनुमानजी युद्धरत हैं और इन मूर्तियों में वीर भाव का प्रभुत्व ज्यादा प्रतीत होता है। जब हनुमानजी के चित्र या प्रतिमा में पुच्छ उपर की ओर उठी हो और दाहिना हाथ मस्तिष्क के करीब हो तब इन्हें ‘वीर मारुति’ कहा जाता है।


वीर मारुति और दास मारुति की प्रतिमाओं के अभ्यास का सबसे रसप्रद पहलू यह है कि वीर मारुति के चेहरे पर भी सौम्य भाव दर्शाए जाते हैं और वीरता के भाव स्पष्ट करने के लिए उनकी पुच्छ का सांकेतिक रूप से उपयोग किया जाता है। क्या आप जानते हैं ऐसा क्यों किया जाता है?

प्रतिमा विज्ञान में शिव की संहारमूर्ति, वीरभद्र और महिषासुरमर्दिनी दुर्गा जैसे कुछ एक अपवादों को छोड़कर अन्य सभी देव प्रतिमाओं को सौम्य भाव में दिखाया जाता है। द्रोण पर्वत उठाए, लंका में रावण की सेना के साथ युद्धरत और लंका दहन करते मारुति की मूर्तियां ‘वीर मारुति’ की श्रेणी में आती हैं लेकिन इन प्रतिमाओं में भी हनुमानजी को चेहरे से सौम्य भाव का लोप नहीं होता। भूत-बाधा, विपत्ति या महत्वपूर्ण परीक्षा के समय और जीवन में साहसिक निर्णय लेते समय वीर मारुति की आराधना करते है। महाराष्ट्र के समर्थ स्वामी रामदास जी ने पराधीनता की मानसिकता से ग्रस्त युवाओं को राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए जागृत करने हेतु अनेक गाँवों में वीर मारुति के मंदिरों की स्थापना की थी।


मुंबई में कुछ समय पूर्व ध्यान साधना का अभ्यास कर रहे ३६ युवकों पर एक सर्वे किया गया जिसमें अधिकांश साधकों ने दास मारुति का चित्र ध्यान प्राणायाम के अभ्यास के लिए ज्यादा उपयुक्त पाया। घर के पूजास्थल में दास मारुति का चित्र या शिल्प रखने से एकाग्रता, धैर्य और बुद्धि का विकास होता है।
Maruti


श्री राम का क्रोध और मरुभूमि का रहस्य


अयोध्या के राजकुमार मर्यादा पुरुषोत्तम राम सभी बाधाओं को पार कर अपनी पत्नी की खोज में भारत भूमि के आखरी छोर पर पहुँच चुके थे, अब महाबली दशानन की स्वर्ण नगरी लंका और श्री राम की वानरसेना के मध्य था अगाध समुद्र। मारुती और जामवंत जैसे कुछ सिद्ध योद्धाओं के आलावा कोई समुद्र लांघने में समर्थ नहीं था। अब क्या किया जाए? सीता माता को अशोक वाटिका से मुक्त कराने के लिए युद्ध अनिवार्य था। बिना लंका गए राक्षसराज को पराजित नहीं किया जा सकता था इसीलिए श्री राम ने समुद्र से अपनी लहरों को सेतुबंध का कार्य पूर्ण होने तक शांत रखने का अनुरोध किया।

श्रीराम ने दोनों हाथ जोड़ कर दर्भासन पर शाष्टांग प्रणाम करते हुए समुद्र की आराधना की और सैन्य को लंका तक पहुँचने का मार्ग खाली करने का आह्वान किया इसीलिए रामेश्वरम में आज भी रामचंद्र की शयन प्रतिमा की पूजा की जाती है। समुद्र ने ना कोई प्रत्युत्तर दिया और ना ही प्रत्यक्ष रूप से राम के समक्ष प्रकट हुए। वरुण देव की यह अवहेलना राम के लिए असहनीय थी फिर भी धर्मनिष्ठ और कूटनीतिज्ञ रामचंद्र नदियों के स्वामी की तीन दिनों तक प्रतीक्षा करते रहे। 

तीन दिनों के पश्चात श्रीराम को क्रोध आना स्वाभाविक था। सीता के विरह से व्यथित राम के नेत्रों में क्रोधाग्नि की ज्वालाएं धधक रहीं थीं। उन्होंने अनुज लक्षमण जी से कहा “अब समुद्र के अहंकार की अति हो चुकी है, अब युद्ध ही अंतिम उपाय है। अब मैं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करूँगा और समुद्र को सूखा दूंगा और समुद्र वासी शंख, सीप, मत्स्य और मगरमच्छ जैसे सभी जीवों का अंत करूँगा।” 

राम ने समुद्र को ललकारते हुए कहा “हे अहंकारी सागर, अब मैं अपने बाणों की ज्वालाओं से तुम्हे जल विहीन कर दूंगा और मेरे सैन्य के लिए लंका का मार्ग प्रशश्त करूंगा।” प्रभु राम ने ब्रह्मास्त्र का आह्वान किया और इस महाविनाशकारी अस्त्र को धनुष पर चढ़ा कर प्रत्यंचा खींची। समस्त चराचर जगत में भय व्याप्त हो गया। स्वर्ग, पृथ्वी और आकाश में कोलाहल मच गया। पर्वत कांप गए और तेज आँधियों ने पहाड़ों के शिखरों को ध्वस्त कर दिया। डर के मरे समुद्र एक योजन पीछे चला गया। इस भीषण परिस्थिति में वरुण देव को प्रकट होना ही पड़ा। उन्होंने करबद्ध निवेदन करते हुए राम से कहा “समुद्र की सीमा में बदलाव प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है। यदि वे ऐसा करते हैं तो इसके विपरीत परिणाम हो सकते हैं।”

राम का क्रोध थोड़ा शांत हुआ और उन्होंने वरुण देव से इस समस्या का समाधान पूछा। समुद्र ने राम सेना के अग्रगण्य वास्तुविद विश्वकर्मा पुत्र नल एवं नील को सेतु निर्माण की अनुमति दी। समुद्र ने अपने मगरमच्छ जैसे हिंसक जीवों को राम के सैनिकों का भक्षण न करने का आदेश दिया।

इस तरह से एक समस्या का समाधान हुआ लेकिन एक और समस्या खड़ी हो गई। प्रत्यंचा चढ़ाया गया बाण वापिस उतारा नहीं जा सकता, अब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किस पर किया जाए। वरुणदेव ने इसका समाधान बताते हुए कहा कि ब्रह्मास्त्र का प्रयोग द्रुमकुल्य पर किया जा सकता है। द्रुमकुल्य दस्युओं का निवास है जो बार बार अपने पापकर्मों से समुद्र के पानी को दूषित करते रहते हैं। प्रभु राम ने लवणसमुद्र (लवण = नमक) पर बाण चला दिया, सभी दस्यु मारे गए, वनस्पति का नाश हो गया और उपजाऊ जमीन गर्मी से मरुभूमि में तब्दील हो गई। दस्युओं का अंत होने के पश्चात इस शापित भूमि को राम ने औषधियों और वनस्पतियों से पल्लवित होने का और हमेशा के लिए दूध/दही से भरपूर होने का वरदान दिया। महाभारत में भी इस घटना का उल्लेख मिलता है।

भौगोलिक दृष्टि से देखें तो यह मरुभूमि अरावली से पुष्कर के प्रदेश में होने के संकेत मिलते है। अरावली की पर्वत श्रृंखला औषधीय वनस्पतियों से भरपूर है। इस प्रदेश में गौपालन भी किया जाता है और मरुभूमि होते हुए भी यह प्रदेश राम कृपा से समृद्ध है। एक और रोचक बात यह भी है कि प्राचीन काल में राम ने जिस स्थान पर ब्रह्मास्त्र प्रयोग किया था उसी जगह अर्वाचीन में पोखरण के परमाणु प्रयोग भी किये गए। समस्त भारत में अपवाद स्वरुप पुष्कर में ब्रह्माजी का देवालय कहीं ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का प्रतीक तो नहीं?

हालाँकि कुछ जानकारों के मतानुसार यह द्रुमकुल्य प्रदेश कज़ाख़िस्तान के निकट होने की सम्भावना भी जताई गई है।

कथावस्तु और भौगोलिक स्थान के उपरांत यहाँ एक और पहलू का विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। मर्यादापुरुषोत्तम और नित्य शांत रहने वाले राम को क्रोध क्यों आया? रामायण में स्वयंवर के पश्चात राम परशुरामजी पर क्रोधित हुए थे। वनवास में चित्रकूट निवास के समय काकासुर सीता जी की मर्यादा से खिलवाड़ करने की कोशिश करता है और तब राम क्रोधित हो जाते हैं। ऐसे ही कुछ अपवाद प्रसंगों में राम का क्रोधित होना इस बात का प्रमाण है कि धर्म पालन एवं कर्तव्य निर्वहन करने में आने वाली कोई भी रूकावट सर्वथा अस्वीकार्य है। मर्यादा का अर्थ कायरता कतई नहीं होना चाहिए। अति की परिस्थितियों में क्रोध भी आवश्यक है और श्रीराम ने वही किया।

Friday, August 7, 2020

विश्व पटल पर श्री राम की महिमा ।

 

प्रभु श्री राम के महिमा सिर्फ़ भारत, श्रीलंका या नेपाल तक ही सीमित नहीं है, किंतु श्री राम का प्रभुत्व समग्र विश्व में विराजमान है और बौद्ध, जैन,सिख समुदाए में भी राम के चरित्र का वर्णन मिलता है।

1. Itlay and rome

कुछ विद्वानो की माने तो संस्कृत में कई जगह पर ‘अ’ को ‘ओ’ के रूप में लिखा जाता है। तो लोग दावा करते हैं कि रोम का तात्पर्य राम से है। इतिहास के पन्नो में रोम की स्थापना 21 अप्रैल 753 ईसा पूर्व बताईं गई है। इस तारीख को दर्ज करने का कारण यह बताया जाता है कि 21 अप्रैल को 753 ईसा पूर्व में रामनवमी थी। लेकिन, इटली के संस्थापक कौन थे? Etruscans civilization, जो की रोम की प्राचीन सभ्यता मानी गई है, उन्हें ही इटली का संस्थापक माना गया है। इटली में ईसा पूर्व 7वी शताब्दी में खुदाई के समय जो मिला उसका चित्र नीचे देख सकते हैं आप।


2. Russia- 

1948 में अलेक्जेंडर बारानिकोव ने पहली बार रामायण का रूसी भाषा में अनुवाद किया। तब से रूस शायद एकमात्र यूरोपीय देश है जहां वाल्मीकि रामायण ने रूसी में कई हज़ार प्रतियाँ बेची हैं। रामनवमी समारोह में कई हजार लोगों  भगवान राम को प्रार्थना और श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।


राम का महत्व आप इस बात से लगा सकते है कि रूस के वोल्गा क्षेत्र के एक पुराने गाँव में खुदाई के दौरान एक प्राचीन विष्णु की मूर्ति मिली जो की 7वी शताब्दी की बताई जाती है।


3. Thailand

थाईलैंड में रामायण को रामकियेन कहा जाता है जो थाईलैंड की राष्ट्रीय पुस्तक भी है।प्रारंभिक थाईलैंड की राजधानी को अयोध्या कहा जाता था, जिसका नाम अयोध्या रखा गया था। थाईलैंड के राजा खुद को श्री राम के वंशज मानते थे।थाईलैंड के अंतिम शासक वंश को राम कहा जाता है


4. Cambodia

raemeker जिसे रामाकीर्ति भी कहा जाता है, कम्बोडियन महाकाव्य कविता है,जो संस्कृत के रामायण महाकाव्य पर आधारित है। नाम का अर्थ है "राम की महिमा"। यह बौद्ध विषयों के लिए हिंदू विचारों को स्वीकार करता है और दुनिया में अच्छाई और बुराई के संतुलन को दर्शाता है।


5. Myanmar (burma)

म्यांमार में रामायण को 'यमायण' कहा जाता है जो अनौपचारिक रूप से बर्मा का राष्ट्रीय महाकाव्य है, इसे यम (राम) ज़ताडव (जातक) भी कहा जाता है। बर्मा में, राम को 'यम' के रूप में उच्चारित किया जाता है, और सीता को 'मी थिदा' कहा जाता है।


6. Japan -

जापान में रामायण के दो संस्करण हैं, एक को 'Hobutsushu' कहा जाता है, और दूसरे को 'Sambo-Ekotoba' कहा जाता है।


7. China

राम की अरिष्ट जातक कथाएँ चीन में लोकप्रिय हैं, रामायण का सबसे पहला ज्ञात ज्ञान बौद्ध ग्रन्थ Liudu ji jing में पाया गया था।चीनी समाज पर रामायण का प्रभाव एक वानर राजा, सूर्य Wukong के लोकप्रिय लोकगीत से स्पष्ट होता है, जो रामायण से हनुमान के समान है।


8. Philippines

फिलीपींस में रामायण को Maharadia Lawana कहा जाता है। फिलीपींस का Singkil का प्रसिद्ध नृत्य वहाँ के रामायण से प्रेरित है।


9. Laos

लाओस में लोगों की मान्यता के अनुसार लाओस, राम का पुत्र, लाव का शहर हैPhra Lak Phra Ram लाओ लोगों का राष्ट्रीय महाकाव्य है, और वाल्मीकि की रामायण से अनुकूलित है। लाओस में अभी भी मंदिर हैं जो रामायण के दृश्यों को चित्रित करते हैं।

10. Malayasia

हिकायत सेरी राम हिंदू महाकाव्य 'रामायण' का मलय संस्करण है, हिकायत सेरी राम की मुख्य कहानी मूल संस्कृत संस्करण के समान है, लेकिन इसके कुछ पहलुओं को स्थानीय स्तर पर थोड़ा संशोधित किया गया है।

11. Indonesia

दुनिया का सबसे बड़ा इस्लामिक देश पर यहाँ भी लोग प्रबु राम से अछूते नहीं है। यह पर चार प्रकार की रामायण प्रचलित है- Kakawin Ramayana, Yogesvara Ramayana,Ramakavaca, Ramayana Swarnadwipa.

12. USA

अमेरिका में रामायण के  उपदेश पर एक कहानी प्रचलित है, जिसमें हनुमान को मध्य प्रदेश में एक सुरंग के माध्यम से पाताल लोक (दक्षिण अमेरिका) की यात्रा करने की कहानी सुनाते हैं, जबकि रावण के सौतेले भाई महिरावण द्वारा अपहरण किए गए राम और लक्ष्मण को बचाने की कोशिश करते हैं।

इसके अलावा mongolia, Egypt, Africa इत्यादि में  भी राम या रामायण की कथाएँ मिल जाती है।


हमारी संस्कृति सबसे पुरानी ओर शुद्ध हे , 
इस लिए राम ओर उन का नाम हर जगह है 
गर्व कीजिये की आप भारत मे जन्मे हे ओर हिन्दू है। 

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...