Sunday, January 26, 2020

अर्जुन के अलग-अलग नाम क्या थे?

महाभारत काल में लोग उनके कर्मों या गुणों के फलस्वरूप कई नामों से जाने जाते थे। कई बार तो उन्हें प्रसिद्धि जिस नाम से मिलती थी वो उनका जन्म के पश्चात दिया गया नाम नहीं होता था। जैसे जिन चक्रवर्ती सम्राट भरत के कारण हमारा देश भारत है, उनका मूल नाम सर्वदमन था।

अर्जुन महाकाव्य महाभारत के महानायक हैं, व पूरी कथा उनके द्वारा किए गए कार्यों से भरी पड़ी है। तो निश्चित तौर पर उनके कई नाम थे। उनमें से दस तो अर्जुन ने विराट पर्व में कुमार उत्तर को स्वयं ही बताए थे।

अर्जुन: इसका अर्थ है श्वेत, स्वच्छ, बिना किसी दाग़ के, या रूपहला। यह नाम अर्जुन को उनके चरित्र व कार्यों के कारण मिला। अर्जुन एक वृक्ष का भी नाम है जो कई रोगों की रोकथाम के लिए जाना जाता है, व उसकी छाल का रंग भी अर्जुन के रंग की तरह कुछ अलग होता है।

फाल्गुन/फाल्गुनी: यह नाम अर्जुन को मिला क्योंकि जब उनका जन्म हुआ तब उत्तर फाल्गुन नक्षत्र का उदय हो रहा था।

जिष्णु: शत्रुओं को परास्त करने वाला जिसे कोई (शत्रु) स्पर्श ना कर सके।

बिभत्सु: जिसने कभी किसी युद्ध में कोई ग़लत कार्य ना किया हो।

विजय: यह नाम अर्जुन को मिला क्योंकि चाहे किसी से भी युद्ध करना हो, वो कभी शत्रु को परास्त किए बिना नहीं लौटे।

श्वेतवाहन: उनके रथ में सदैव श्वेत गंधर्व अश्व जुतते थे।

किरीटिन: दानवों से युद्ध के समय इंद्र ने अर्जुन को एक दिव्य रत्नजड़ित मुकुट पहनाया था जो सूर्य के समान चमकता था, उसके कारण।

सव्यसाची: अर्जुन दोनों हाथों से समान रूप से धनुष खींच कर युद्ध कर सकते थे, इस कारण।

धनंजय: कई राज्यों को जीत सदैव धन जीत कर लाने वाले व सदैव ऐश्वर्य में रहने वाले।

कृष्ण: यह नाम अर्जुन को उनके पिता पाण्डु ने प्रेमवश दिया था उनके अत्यधिक श्याम वर्ण के कारण।

इनके अतिरिक्त अर्जुन को और भी कई नामों से सम्बोधित किया गया है। जैसे:

पार्थ: कुंती का मूल नाम पृथा था, और इस कारण उनके पुत्र पार्थ भी कहलाते थे। प्रेमवश कृष्ण अर्जुन को इसी नाम से बुलाते थे।

परंतप: जो एकाग्रचित्त होकर अपना ध्यान केंद्रित कर सके।

गुड़केश: इसके दो अर्थ हैं। एक, निद्रा पर विजय प्राप्त करने वाला, व दूसरा, घुंघराले केशों वाला।

गांडीवधारी: दिव्य धनुष गांडीव को धारण करने वाला।

कपिध्वजी: जिसके रथ के ध्वज पर विश्वकर्मा द्वारा निर्मित दिव्य वानर था।

इनके अतिरिक्त अर्जुन को मध्यपांडव, महाबाहु, भारत, ताप्ती इत्यादि नामों से भी सम्बोधित किया गया है।

Tuesday, January 7, 2020

महाभारत युद्ध के पश्चात् भीष्म पितामह और योगिराज भगवान श्रीकृष्ण के बीच संवाद।

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था. युद्धभूमि में यत्र-तत्र योद्धाओं के फटे वस्त्र, मुकुट, टूटे शस्त्र, टूटे रथों के चक्के, छज्जे आदि बिखरे हुए थे और वायुमण्डल में पसरी हुई थी घोर उदासी .... !

गिद्ध , कुत्ते , सियारों की उदास और डरावनी आवाजों के बीच उस निर्जन हो चुकी उस भूमि में *द्वापर का सबसे महान योद्धा* *"देवव्रत" (भीष्म पितामह)* शरशय्या पर पड़ा सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहा था -- अकेला .... !

तभी उनके कानों में एक परिचित ध्वनि शहद घोलती हुई पहुँची , "प्रणाम पितामह" .... !!

भीष्म के सूख चुके अधरों पर एक मरी हुई मुस्कुराहट तैर उठी , बोले , " आओ देवकीनंदन .... ! स्वागत है तुम्हारा .... !!

मैं बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था" .... !!

कृष्ण बोले , "क्या कहूँ पितामह ! अब तो यह भी नहीं पूछ सकता कि कैसे हैं आप" .... !

भीष्म चुप रहे , कुछ क्षण बाद बोले," पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव ... ?

उनका ध्यान रखना , परिवार के बुजुर्गों से रिक्त हो चुके राजप्रासाद में उन्हें अब सबसे अधिक तुम्हारी ही आवश्यकता है" .... !

कृष्ण चुप रहे .... !

भीष्म ने पुनः कहा , "कुछ पूछूँ केशव .... ?

बड़े अच्छे समय से आये हो .... !

सम्भवतः धरा छोड़ने के पूर्व मेरे अनेक भ्रम समाप्त हो जाँय " .... !!

कृष्ण बोले - कहिये न पितामह ....!

एक बात बताओ प्रभु ! तुम तो ईश्वर हो न .... ?

कृष्ण ने बीच में ही टोका , "नहीं पितामह ! मैं ईश्वर नहीं ... मैं तो आपका पौत्र हूँ पितामह ... ईश्वर नहीं ...."

भीष्म उस घोर पीड़ा में भी ठठा के हँस पड़े .... ! बोले , " अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया कृष्ण , सो नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा , पर अब तो इस धरा से जा रहा हूँ कन्हैया , अब तो ठगना छोड़ दे रे .... !! "

कृष्ण जाने क्यों भीष्म के पास सरक आये और उनका हाथ पकड़ कर बोले .... " कहिये पितामह .... !"

भीष्म बोले , "एक बात बताओ कन्हैया ! इस युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या .... ?"

"किसकी ओर से पितामह .... ? पांडवों की ओर से .... ?"

" कौरवों के कृत्यों पर चर्चा का तो अब कोई अर्थ ही नहीं कन्हैया ! पर क्या पांडवों की ओर से जो हुआ वो सही था .... ? आचार्य द्रोण का वध , दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार , दुःशासन की छाती का चीरा जाना , जयद्रथ के साथ हुआ छल , निहत्थे कर्ण का वध , सब ठीक था क्या .... ? यह सब उचित था क्या .... ?"

इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह .... !

इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने यह किया ..... !!

उत्तर दें दुर्योधन का वध करने वाले भीम , उत्तर दें कर्ण और जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन .... !!

मैं तो इस युद्ध में कहीं था ही नहीं पितामह .... !!

"अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण .... ?

अरे विश्व भले कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है , पर मैं जानता हूँ कन्हैया कि यह तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है .... !

मैं तो उत्तर तुम्ही से पूछूंगा कृष्ण .... !"

"तो सुनिए पितामह .... !

कुछ बुरा नहीं हुआ , कुछ अनैतिक नहीं हुआ .... !

वही हुआ जो हो होना चाहिए .... !"

"यह तुम कह रहे हो केशव .... ?

मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है ....? यह छल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे गया ..... ? "

"इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह , पर निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है .... !

हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है .... !!

राम त्रेता युग के नायक थे , मेरे भाग में द्वापर आया था .... !

हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह .... !!"

"नहीं समझ पाया कृष्ण ! तनिक समझाओ तो .... !"

"राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है पितामह .... !

राम के युग में खलनायक भी ' रावण ' जैसा शिवभक्त होता था .... !!

तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण जैसे सन्त हुआ करते थे ..... ! तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्रियाँ और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे .... ! उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था .... !!

इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया .... ! किंतु मेरे युग के भाग में में कंस , जरासन्ध , दुर्योधन , दुःशासन , शकुनी , जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं .... !! उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह .... ! पाप का अंत आवश्यक है पितामह , वह चाहे जिस विधि से हो .... !!"

"तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परम्पराएं नहीं प्रारम्भ होंगी केशव .... ?

क्या भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुशरण नहीं करेगा .... ?

और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा ..... ??"

"भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह .... !

कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा .... !

वहाँ मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा .... नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा .... !

*जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह* .... !

तब महत्वपूर्ण होती है विजय , केवल विजय .... ! *भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह* ..... !!"

"क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव .... ?

और यदि धर्म का नाश होना ही है , तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है ..... ?"

"सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है पितामह .... !

ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता ..... !

सब मनुष्य को ही करना पड़ता है .... !

आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न .... !

तो बताइए न पितामह , मैंने स्वयं इस युद्घ में कुछ किया क्या ..... ?

सब पांडवों को ही करना पड़ा न .... ?

यही प्रकृति का संविधान है .... !

युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से .... ! यही परम सत्य है ..... !!"

भीष्म अब सन्तुष्ट लग रहे थे .... !

उनकी आँखें धीरे-धीरे बन्द होने लगीं थी .... !

उन्होंने कहा - चलो कृष्ण ! यह इस धरा पर अंतिम रात्रि है .... कल सम्भवतः चले जाना हो ... अपने इस अभागे भक्त पर कृपा करना कृष्ण !"

*कृष्ण ने मन मे ही कुछ कहा और भीष्म को प्रणाम कर लौट चले , पर युद्धभूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था* !

जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है।

महाभारत में कही गई कौन सी बातें कलयुग में एकदम सटीक साबित हुई हैं?

सतयुग में शिव, त्रेता में राम, द्वापर में श्रीकृष्ण और कलिकाल में भगवान बुद्ध हिन्दू धर्म के केंद्र में हैं, लेकिन श्रीकृष्ण के धर्म को भूत, वर्तमान और भविष्य का धर्म बताया गया है। श्रीकृष्ण का जीवन ही हर तरह से शिक्षा देने वाला है। महाभारत और गीता विश्‍व की अनुपम कृति है।

महाभारत हिन्दुओं का ही नहीं, समस्त मानव जाति का ग्रंथ है। इससे प्रत्येक मानव को एक अच्छी शिक्षा और मार्ग मिल सकता है। प्रत्येक मनुष्‍य को इसे पढ़ना चाहिए। महाभारत में जीवन से जुड़ा ऐसा कोई सा भी विषय नहीं है जिसका वर्णन न किया गया हो और जिसमें जीवन का कोई समाधान न होगा। महाभारत में देश, धर्म, न्याय, राजनीति, समाज, योग, युद्ध, परिवार, ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म, तकनीकी आदि समस्य विषयों का वर्णन मिलेगा।

वर्तमान युग में महाभारत के एक प्रसंग से आज का मानव कुछ सीख ले सकता है। यह प्रसंग उस वक्त का है जबकि पांचों पांडवों को वनवास हो गया था। वनवास जाने से पूर्व पांडवों ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- 'हे श्रीकृष्ण! अभी यह द्वाप‍र का अंतकाल चल रहा है। आप हमें बताइए कि आने वाले कलियुग में कलिकाल की चाल या गति क्या होगी कैसी होगी?' श्रीकृष्ण कहते हैं- 'तुम पांचों भाई वन में जाओ और जो कुछ भी दिखे वह आकर मुझे बताओ। मैं तुम्हें उसका प्रभाव बताऊंगा।'

पांचों भाई वन में चले गए। वन में उन्होंने जो देखा उसको देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए। आखिर उन्होंने वन में क्या देखा? और श्रीकृष्ण ने क्या जवाब दिया?

युधिष्ठिर ने क्या देखा? : पांचों भाई जब वन में रहने लगे तो एक बार चारों भाई अलग-अलग दिशाओं में वन भ्रमण को निकले। युधिष्ठिर भ्रमण पर थे तो उन्होंने एक जगह पर देखा कि किसी हाथी की दो सूंड है। यह देखकर युधिष्ठिर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।

अर्जुन ने क्या देखा? : अर्जुन दूसरी दिशा में भ्रमण पर थे। कुछ दूर जंगल में जाने पर उन्होंने जो देखा उसे देखकर वे आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने देखा कि कोई पक्षी है, उसके पंखों पर वेद की ऋचाएं लिखी हुई हैं, पर वह पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है।

भीम ने क्या देखा? : दोनों भाइयों की तरह भीम भी भ्रमण पर थे। भीम ने जो देखा वह भी आश्चर्यजनक था। उन्होंने देखा कि गाय ने बछड़े को जन्म दिया है। जन्म के बाद वह बछड़े को इतना चाट रही है कि बछड़ा लहुलुहान हो गया।

सहदेव ने क्या देखा? : सहदेव जब भ्रमण पर थे तो उन्होंने चौथा आश्चर्य देखा कि 6-7 कुएं हैं और आसपास के कुओं में पानी है किंतु बीच का कुआं खाली है। बीच का कुआं गहरा है फिर भी पानी नहीं है। उन्हें यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है?

नकुल ने क्या देखा? : नकुल भी भ्रमण पर थे और उन्होंने भी एक आश्चर्यजनक घटना देखी। नकुल ने देखा कि एक पहाड़ के ऊपर से एक बड़ी-सी शिला लुढ़कती हुई आती है और कितने ही वृक्षों से टकराकर उनको नीचे गिराते हुए आगे बढ़ जाती है। विशालकाय वृक्षों भी उसे रोक न सके। इसके अलावा वह शिला कितनी ही अन्य शिलाओं के साथ टकराई पर फिर भी वह रुकी नहीं। अंत में एक अत्यंत छोटे पौधे का स्पर्श होते ही वह स्थिर हो गई।

पांचों भाइयों ने अपने देखे गए दृश्य की चर्चा की और शाम को श्रीकृष्ण को अपने अनुभव सुनाए। सबसे पहले युधिष्ठिर ने कहा कि मैंने तो पहली बार दो सूंड वाला हाथी देखा। यह मेरे लिए बहुत ही आश्चर्यजनक था।

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- 'हे धर्मराज! अब तुम कलिकाल की सुनो। कलियुग में ऐसे लोगों का राज्य होगा, जो दोनों ओर से शोषण करेंगे। बोलेंगे कुछ और करेंगे कुछ। मन में कुछ और कर्म में कुछ। ऐसे ही लोगों का राज्य होगा। इससे तुम पहले राज्य कर लो।'

युधिष्ठिर के बाद अर्जुन ने कहा कि मैंने जो देखा वह तो इससे भी कहीं ज्यादा आश्चर्यजनक था। मैंने देखा कि एक पक्षी के पंखों पर वेद की ऋचाएं लिखी हुई हैं और वह पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है।

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- 'इसी प्रकार कलियुग में ऐसे लोग रहेंगे, जो बड़े ज्ञानी और ध्यानी कहलाएंगे। वे ज्ञान की चर्चा तो करेंगे, लेकिन उनके आचरण राक्षसी होंगे। बड़े पंडित और विद्वान कहलाएंगे किंतु वे यही देखते रहेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और हमारे नाम से संपत्ति कर जाए।'

'हे अर्जुन! 'संस्था' के व्यक्ति विचारेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और संस्था हमारे नाम से हो जाए। हर जाति धर्म के प्रमुख पद पर बैठे विचार करेंगे कि कब किसका श्राद्ध हो। कौन, कब, किस पद से हटे और हम उस पर चढ़े। चाहे कितने भी बड़े लोग होंगे किंतु उनकी दृष्टि तो धन और पद के ऊपर (मांस के ऊपर) ही रहेगी। ऐसे लोगों की बहुतायत होगी, कोई कोई विरला ही संत पुरुष होगा।'

अर्जुन के सवाल के जवाब के बाद भीम ने अपना अनुभव सुनाया। भीम ने कहा कि मैंने देखा कि गाय अपने बछड़े को इतना चाटती है कि बछड़ा लहुलुहान हो जाता है।

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- 'कलियुग का मनुष्य शिशुपाल हो जाएगा। कलियुग में बालकों के लिए ममता के कारण इतना करेगा कि उन्हें अपने विकास का अवसर ही नहीं मिलेगा। मोह-माया में ही घर बर्बाद हो जाएगा।

किसी का बेटा घर छोड़कर साधु बनेगा तो हजारों व्यक्ति दर्शन करेंगे, किंतु यदि अपना बेटा साधु बनता होगा तो रोएंगे कि मेरे बेटे का क्या होगा? इतनी सारी ममता होगी कि उसे मोह-माया और परिवार में ही बांधकर रखेंगे और उसका जीवन वहीं खत्म हो जाएगा। अंत में बेचारा अनाथ होकर मरेगा।

वास्तव में लड़के तुम्हारे नहीं हैं, वे तो बहुओं की अमानत हैं, लड़कियां जमाइयों की अमानत हैं और तुम्हारा यह शरीर मृत्यु की अमानत है। तुम्हारी आत्मा, परमात्मा की अमानत है। तुम अपने शाश्वत संबंध को जान लो बस।

भीम के बाद सहदेव ने पूछा- 'हे श्रीकृष्ण! मैंने जो देखा उसका क्या मतलब है? मैंने यह देखा कि 5-7 भरे कुओं के बीच का कुआं एकदम खाली है, जबकि ऐसा कैसे संभव हो सकता है?

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- 'कलियुग में धनाढ्‍य लोग लड़के-लड़की के विवाह में, मकान के उत्सव में, छोटे-बड़े उत्सवों में तो लाखों रुपए खर्च कर देंगे, परंतु पड़ोस में ही यदि कोई भूखा-प्यासा होगा तो यह नहीं देखेंगे कि उसका पेट भरा है या नहीं। उनका अपना ही सगा भूख से मर जाएगा और वे देखते रहेंगे। दूसरी और मौज, मदिरा, मांस-भक्षण, सुंदरता और व्यसन में पैसे उड़ा देंगे किंतु किसी के दो आंसू पोंछने में उनकी रुचि न होगी।

कहने का तात्पर्य यह कि कलियुग में अन्न के भंडार होंगे लेकिन लोग भूख से मरेंगे। सामने महलों, बंगलों में एशोआराम चल रहे होंगे लेकिन पास की झोपड़ी में आदमी भूख से मर जाएगा। एक ही जगह पर असमानता अपने चरम पर होगी।'

सहदेव के बाद नकुल ने श्रीकृष्ण को बताया कि मैंने भी एक आश्चर्य देखा। वह यह कि एक बड़ी सी चट्टान पहाड़ पर से लुढ़की, वृक्षों के तने और चट्टानें उसे रोक न पाए किंतु एक छोटे से पौधे से टकराते ही वह चट्टान रुक गई।

तब श्रीकृष्ण ने कहा- 'कलियुग में मानव का मन नीचे गिरेगा, उसका जीवन पतित होगा। यह पतित जीवन धन की शिलाओं से नहीं रुकेगा, न ही सत्ता के वृक्षों से रुकेगा। किंतु हरि नाम के एक छोटे से पौधे से, हरि कीर्तन के एक छोटे से पौधे से मनुष्य जीवन का पतन होना रुक जाएगा। श्रीमन नारायण, नारायण हरि हरि।

Saturday, January 4, 2020

श्रीकृष्ण ने कम सेना के बावजूद पांडवों को युद्ध कैसे जिताया था?

श्रीकृष्ण की 1 अक्षौहिणी नारायणी सेना मिलाकर कौरवों के पास 11 अक्षौहिणी सेना थी तो पांडवों ने 7 अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली थी। इस तरह सभी महारथियों की सेनाओं को मिलाकर कुल 45 लाख से ज्यादा लोगों ने इस युद्ध में भाग लिया था।

कौरवों की सेना में एक से बढ़कर एक महारथी थे। भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, मद्रनरेश शल्य, भूरिश्र्वा, अलम्बुष, कृतवर्मा, कलिंगराज, श्रुतायुध, शकुनि, भगदत्त, जयद्रथ, विन्द-अनुविन्द, काम्बोजराज, सुदक्षिण, बृहद्वल, दुर्योधन व उसके 99 भाई सहित अन्य हजारों यौद्धा थे।

पांडवों की ओर भीम, नकुल, सहदेव, अर्जुन, युधिष्टर, द्रौपदी के पांचों पुत्र, सात्यकि, उत्तमौजा, विराट, द्रुपद, धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, पाण्ड्यराज, घटोत्कच, शिखण्डी, युयुत्सु, कुन्तिभोज, उत्तमौजा, शैब्य और अनूपराज नील जैसे योद्ध थे।

कहने का मतलब यह कि कौरव सैन्य बल, शारीरिक आदि शक्ति में हर तरह से पांडवों से कहीं ज्यादा शक्तिशाली और पराक्रमी थे लेकिन फिर भी वे हार गए। उनकी हार के कई कारण हो सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण यह था कि कौरवों की ओर कृष्ण जैसा कोई भगवान नहीं था। और भगवान सिर्फ उधर ही होते हैं जिधर सत्य होता है। अब जानते हैं कि श्री कृष्ण ने पांडवों को किस तरह जिताया, जबकि हर दिन युद्ध में पांडव पक्ष के हजारों सैनिक मारे जाते थे।

युद्ध की घोषणा से कहीं पहले ही श्री कृष्ण ने इस युद्ध में पांडवों की विजय सुनिश्चित करने के लिए अपनी रणनीति पर काम करने प्रारंभ कर दिया था। श्री कृष्ण चाहते थे कि युद्ध उनके अनुसार ही संचालित हो। इसीलिए उन्होंने सबसे पहले उन योद्धाओं को रास्ते से हटाना शुरू किया जो युद्ध में तबाही मचा सकते थे।

कर्ण भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। तब श्रीकृष्ण ने देवराज इंद्र के साथ मिलकर एक योजना बनाई। इंद्र एक विप्र के वेश में कर्ण से दान मांगने पहुंच गए। दानवीर कर्ण ने कहा, मांगों क्या मांगते हो?

विप्र बने इंद्र ने कहा कि मैं जो मागूंगा वह तुम दे न सकोगे। कर्ण ने कहा कि इस दर से कभी कोई खाली नहीं गया है।...विप्र ने कहा तब फिर पहले आप संकल्प लें। कर्ण संकल्प ले लेता है। फिर विप्र बने इंद्र कर्ण से उनके कवच और कुंडल मांग लेते हैं। एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर दानवीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाएं अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और विप्र बने इंद्र को सौंप दिए।

इंद्र वह कवच और कुंडल लेकर तुरंत भाग लेते हैं। लेकिन आगे जाकर उनका रथ भूमि में धंस जाता है और आकाशवाणी होती है कि इंद्र तुमने छल किया है इसलिए तुम और तुम्हारा रथ इसी भूमि में धंसा रहेगा। तब इंद्र कहते हैं कि इससे मुक्ति का कोई उपाय। आकाशवाणी होती है कि तुम इसी वक्त जाओं और कर्ण को कुछ देकर आओ। इंद्र जाते हैं और कर्ण को अपना अमोघ अस्त्र देकर कहते हैं कि यह अस्त्र तुम एक बार किसी पर भी चला देना वह तुरंत ही मारा जाएगा। यह अस्त्र अचूक है। इसके कोई रोक नहीं पाएगा और यह खाली नहीं जाएगा। जिस पर भी चलाओगे उसकी मौत तय है। कर्ण उस अस्त्र को युद्ध में अर्जुन पर चलाने की सोच कर रख लेता है।

घटोत्कच : घटोत्कच एक ऐसा योद्ध था जो अकेले ही सभी कौरव सैनिकों को मारने की क्षमता रखता था। कृष्ण ये बात जानते थे। लेकिन तब फिर युद्ध करने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। फिर तो अकेले घटोत्कच को ही भेज देते नाहक इतनी सेना लगाने का क्या मतलब। लेकिन कृष्ण जानते थे कि कब किसी युद्ध में लगाने और कब किसे मरना है। जैसे शतरंज की चाल में कई देफे किसी पड़ी सफलता के लिए अपने ही प्यादे को मरने के लिए छोड़ देना होता है वैसे ही श्रीकृष्ण ने किया।

तब युद्ध में कौरव पक्ष ने बढ़त हासिल कर ली थी और चारों और पांडवों की सेना में हाहाकार मचा हुआ था तब श्रीकृष्ण ने घटोत्कच को युद्ध में उतार दिया। युद्ध में जब घटोत्कच ने कौरवों की सेना को कुचलना शुरू किया तो दुर्योधन घबरा गया और ऐसे में उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। तब कृष्ण ने दुर्योधश्र के सामने कर्ण से कहा कि आपके पास तो अमोघ अस्त्र है जिसके प्रयोग से कोई बच नहीं सकता तो आप उसे क्यों नहीं चलाते?

कर्ण कहने लगा नहीं ये अस्त्र तो मैंने अर्जुन के लिए बचा कर रखा है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन पर तो तुम तब चलाओंगे जब ये कौरव सेना बचेगी, ये दुर्योधन बचेगा। जब ये सभी घटोत्कच के हाथों मारे जाएंगे तो फिर उस अस्त्र के चलाने का क्या फायदा? दुर्योधन को ये बात समझ में आती है और वह कर्ण से अमोघ अस्त्र चलाने की जिद करने लगता है। कर्ण मजबूरन इंद्र द्वारा दिया गया वह अमोघ अस्त्र घटोत्कच के उपर चला देता है। इस तरह भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बचा लेते हैं।

जयद्रथ : महाभारत युद्ध में जयद्रथ के कारण अकेला अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस गया था और दुर्योधन आदि योद्धाओं ने एक साथ मिलकर उसे मार दिया था। इस जघन्नय अपराध के बाद अर्जुन प्रण लेते हैं कि अगले दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध नहीं कर पाया तो मैं स्वयं अग्नि समाधि ले लूंगा। इस प्रतिज्ञा से कौरवों में हर्ष व्याप्त हो जाता है और पांडवों में निराशा फैल जाती है।

कौरव किसी भी प्रकार से जयद्रथ को सूर्योस्त तक बचाने और छुपाने में लग जाते हैं। जब काफी समय तक अर्जुन जयद्रथ तक नहीं पहुंच पाया तो श्रीकृष्ण ने अपनी माया से सूर्य को कुछ देर के लिए छिपा दिया, जिससे ऐसा लगने लगा कि सूर्यास्त हो गया। सूर्यास्त समझकर जयद्रथ खुद ही अर्जुन के सामने हंसता हुआ घमंड से आ खड़ा होता है। तभी उसी समय सूर्य पुन: निकल आता है और अर्जुन तुरंत ही पलटकर जयद्रथ का वध कर देता है।

भीष्म : महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से सेनापति थे। भीष्म घोर युद्ध करते हुए न केवल पांडवों की सेना के हजारों सैनिकों का संहार कर दिया बल्कि अर्जुन को घायल कर उनके रथ को भी जर्जर कर दिया था। ऐसे में श्रीकृष्ण को एक युक्ति समझ में आती है और कृष्ण के कहने पर पांडव भीष्म के सामने हाथ जोड़कर उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछते हैं। भीष्म कुछ देर सोचने पर उपाय बता देते हैं।

दरअसल, भीष्म ने अपनी मृत्यु का रहस्य यह बताया था कि वे किसी नपुंसक व्यक्ति के समक्ष हथियार नहीं उठाएंगे। इसी दौरान उन्हें मारा जा सकता है। इस नीति के तरह युद्ध में भीष्म के सामने शिखंडी को उतारा जाता है और उसी दौरान भीष्म को अर्जुन तीरों से छेद देते हैं। वे कराहते हुए नीचे गिर पड़ते हैं और भीष्म बाणों की शरशय्या पर लेट जाते हैं।

द्रोण : भीष्म के शरशय्या पर लेटने के बाद अश्‍वत्थामा के पिता द्रोण सेनापति बनकर युद्ध में कोहराम मचा देते हैं। पिता पुत्र की जोड़ी मिलकर युद्ध में मौत का तांडव खेलते हैं। इससे पांडवों के खेमे में दहशत फैल जाती है। पांडवों की हार होते हुए देखकर श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से भेद का सहारा लेने को कहते हैं। इस योजना के तहत युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया', लेकिन युधिष्‍ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं थे। तब अवंतिराज के अश्‍वत्थामा नामक हाथी का भीम द्वारा वध कर दिया गया। इसके बाद युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया'।

जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा के मारे जाने की सत्यता जानना चाही तो जवाब दिया- 'अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथी।' श्रीकृष्ण ने उसी समय जोर से शंखनाद किया जिसके शोर के चलते गुरु द्रोणाचार्य आखिरी शब्द 'हाथी' नहीं सुन पाए और उन्होंने समझा मेरा पुत्र मारा गया। यह सुनकर उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और युद्ध भूमि में आंखें बंद कर शोक में डूब गए। यही मौका था जबकि द्रोणाचार्य को निहत्था जानकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। यह सब कृष्ण की नीति के चलते हुआ, जिसकी बाद में बहुत आलोचना हुई।

कर्ण : कवच कुंडल उतर जाने के बाद, अमोघ अस्त्र नहीं होने के बावजूद कर्ण में अपार शक्तियां थी। युद्ध के सत्रहवें दिन शल्य को कर्ण का सारथी बनाया गया। इस दिन कर्ण भीम और युधिष्ठिर को हराकर कुंती को दिए वचन को स्मरण कर उनके प्राण नहीं लेता। बाद में वह अर्जुन से युद्ध करने लग जाता है। कर्ण तथा अर्जुन के मध्य भयंकर युद्ध होता है। तभी अचानक कर्ण के रथ का पहिया भूमी में धंस जाता है। इसी मौके का लाभ उठाने के लिए श्रीकृष्ण अर्जुन से तीर चलाने को कहते हैं। बड़े ही बेमन से अर्जुन असहाय अवस्था में कर्ण का वध कर देता है। इसके बाद कौरव अपना उत्साह हार बैठते हैं। उनका मनोबल टूट जाता है। फिर शल्य प्रधान सेनापति बनाए जाते हैं, परंतु उनको भी युधिष्ठिर दिन के अंत में मार देते हैं।

दुर्योधन:
यदि दुर्योधन का संपूर्ण शरीर वज्र के समान बन जाता तो फिर उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। दरअसल, दुर्योधन की माता गांधारी ने अपने पुत्र को अपने पास नग्न अवस्था में बुलाया था ताकि वह अपनी आंखों के तेज से अपने पुत्र का शरीर वज्र के समान कठोर कर दें। माता की आज्ञा का पालन करने के लिए दुर्योधन भी नग्न अवस्था में ही जा रहा था, तभी रास्ते में श्री कृष्ण ने दुर्योधन को रोककर कहा कि इस अवस्था में माता के सामने जाओगे तो तुम्हें शर्म नहीं आएगी? क्या यह पाप नहीं होगा?

यह सुनकर दुर्योधन ने अपने पेट के नीचे जांघ वाले हिस्से पर केले का पत्ता लपेट लिया और इसी अवस्था में गांधारी के सामने पहुंच गया। गांधारी ने अपनी आंखों पर बंधी पट्टी खोलकर दुर्योधन के शरीर पर दिव्य दृष्टि डाली। इस दिव्य दृष्टि के प्रभाव से दुर्योधन की जांघ के अलावा पूरा शरीर लोहे के समान हो गया। युद्ध में भीम ने दुर्योधन की जांघ उखाड़ कर फेंक दी थी जिसके चलते उसकी मृत्यु हो गई थी।

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...