Monday, December 28, 2020

दर्शन शास्त्र

हमारे ऋषि-मुनियों ने "निधि ध्यासन" की प्रक्रिया में बहुत सी ऐसी बातें देखीं, अनुभव करीं और उनका साक्षात्कार किया। वो सोचीं नहीं, विचार नहीं किया, संशोधन नहीं किया; उन्होंने साक्षात्कार किया। 

साक्षात्कार होने के बाद कुछ रहस्य ऐसे पता चले जो हम इन्द्रियों के द्वारा नहीं जान सकते वह, जिसका अनुभव इन्द्रियों रूपी साधन द्वारा नहीं हो सकता, उन्हें इन्द्रियातीत कहते हैं। ऐसे ही कुछ इन्द्रियातीत अनुभव ऋषि-मुनियों को हुए। वह पता चला जो सृष्टि के पार है।

इसीलिए तो ‘रिष’ धातु से ऋषि शब्द बना – 
ऋषति संसारस्य पारं दर्शयति, इति ऋषि:। 
ऋषि का अर्थ है, जो संसार से पर की बात बता सके, जो संसार के पार की बात को जान लेते हैं।

अतः निधि ध्यासन की प्रक्रिया में, ऋषि मुनियों के मन में प्रश्न उठे। प्रश्न उठने के पश्चात उन्होंने साधना करी। साधना के पश्चात उसके उत्तर मिले। उन्होंने इन्द्रियातीत अनुभवों से अपने मन में उठे प्रश्नों के उत्तर को जाना – ये शरीर कैसे चलता है ; मन कहाँ से आया है ; कौन प्राण को भेजता है ; मरने के बाद क्या होता है ; आत्मा कहाँ चला जाता है और क्या-क्या जाता है ; सृष्टि कहाँ से उत्पन्न हुई ; क्यों उत्पन्न हुई ; ये सब क्यों हुआ ; मैं संसार में क्यों आया ; मुझे कौन चला रहा है ; मैं कहाँ जाऊँगा ; मैं क्या कर रहा हूँ ; यह सब क्या है ;ये सभी रचना और इसकी विधि क्या है?

वह उत्तर अनुभूति के स्तर पर मिले, शब्द के स्तर पर नहीं! उन्होंने उन उत्तरों को देखा और उसको कहा – दर्शन! 

उसके ऊपर शास्त्र लिखे गये। विभिन्न ऋषियों ने विभिन्न शास्त्र लिखे। मनुष्य के लिए साधना के कई मार्ग हैं, प्राप्तव्य एक है।

इसे एक उदाहरण से समझते हैं : गणित में दो और दो चार होते हैं, एक और तीन भी चार होते हैं तथा आठ में से चार जाएँ, तो भी चार होते हैं। चार तक पहुँचना महत्वपूर्ण है और चार तक बहुत तरह से पहुँचा जा सकता है।

ऐसी ही यदि 100 की संख्या पर पहुँचना हो तो कई मार्ग हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि केवल कोई एक मार्ग ही सही है। ऐसा नहीं है कि केवल दो और दो चार ही उचित है अथवा शुद्ध है, तीन और एक नहीं। यदि कोई ऐसा कहता है तो कहने वाला गणितज्ञ नहीं हो सकता!

ऐसे ही मुक्ति का यही एक मार्ग है और कोई मार्ग नहीं हो सकता, ऐसा कहने वाला ज्ञानी नहीं है। 

ऋषि-मुनियों ने जाना कि परमात्मा की ओर जाने वाले कितने मार्ग हैं और भटकाने वाले कितने मार्ग  हैं। परमात्मा तक ले जाने वाले मार्गों की पूरी प्रक्रिया दी। 

सृष्टि का उद्भव कैसे हुआ।हम कहाँ से आये; जन्म कैसे होता है; जन्म के समय पर गर्भ में हम कैसे आ जाते हैं; वहीं क्यों आते हैं; पूर्व जन्म कैसे होता है; पुनर्जन्म कैसे होता है – ऐसी बहुत सारी बातें लिखीं और उनका नाम बताया गया दर्शन शास्त्र!

हमारे ऐसे छह दर्शन मुख्य हैं:
(1)न्याय, 
(2) वैशेषिक, 
(3) सांख्य, 
(4) योग, 
(5) पूर्व मीमांसा (मीमांसा शास्त्र) तथा 
(6) उत्तर मीमांसा (वेदांत)।

इन छह दर्शनों के शास्त्र भिन्न ऋषियों ने लिखे हैं। वेदों को आधार मानकर, वेदों के वाक्यों को आधार मानकर लिखे गये ये छह दर्शन वैदिक दर्शन कहलाते हैं।

Tuesday, August 25, 2020

श्री कृष्ण और 16 कलाएं

भगवान विष्णु ने जितने भी अवतार लिए सभी में कुछ न कुछ खासियत थीं और वे खासियत उनकी कला ही थी।
भगवान विष्णु के सभी अवतारों में भगवान श्री कृष्ण श्रेष्ठ अवतार थे क्योंकि उन्होंने गुरु सांदीपनि से इन सभी 16 कलाओं को सीखा था।

क्या होती हैं कलाएं?
भगवान श्रीकृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार माने जाते हैं। श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरुष थे। कृष्ण का गीता- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। आइए जानें भगवान श्रीकृष्ण किन 16 कलाओं में थे निपुण.
1 श्री-धन संपदा
प्रथम कला के रूप में धन संपदा को स्थान दिया गया है। जिस व्यक्ति के पास अपार धन हो और वह आत्मिक रूप से भी धनवान हो। जिसके घर से कोई भी खाली हाथ नहीं जाए वह प्रथम कला से संपन्न माना जाता है। यह कला भगवान श्री कृष्ण में मौजूद है।

2 भू-अचल संपत्ति
जिस व्यक्ति के पास पृथ्वी का राज भोगने की क्षमता है। पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग पर जिसका अधिकार है और उस क्षेत्र में रहने वाले जिसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करते हैं वह अचल संपत्ति का मालिक होता है। भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योग्यता से द्वारिका पुरी को बसाया। 

3 कीर्ति-यश प्रसिद्धि
जिसके मान-सम्मान व यश की कीर्ति से चारों दिशाओं में गूंजती हो। लोग जिसके प्रति स्वत: ही श्रद्घा व विश्वास रखते हों वह तीसरी कला से संपन्न होता है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद है। लोग सहर्ष श्री कृष्ण की जयकार करते हैं।

4 इला-वाणी की सम्मोहकता
चौथी कला का नाम इला हैअर्थ है मोहक वाणी। पुराणों में भी ये उल्लेख मिलता है कि श्री कृष्ण की वाणी सुनकर क्रोधी व्यक्ति भी अपना सुध-बुध खोकर शांत हो जाता था। यशोदा मैया के पास शिकायत करने वाली गोपियां भी कृष्ण वाणी सुनकर शिकायत भूलकर तारीफ करनेलगती थी।

5 लीला- आनंद उत्सव
पांचवीं कला का नाम है लीला। इसका अर्थ है आनंद। भगवान श्री कृष्ण धरती पर लीलाधर के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि इनकी बाल लीलाओं से लेकर जीवन की घटना रोचक और मोहक है। इनकी लीला कथाओं सुनकर कामी व्यक्ति भी भावुक और विरक्त होने लगता है।

6 कांति- सौदर्य और आभा
जिनके रूप को देखकर मन स्वत: ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है। जिसके मुखमंडल को देखकर बार-बार छवि निहारने का मन करता है वह छठी कला से संपन्न माना जाता है। भगवान राम में यह कला मौजूद थी। कृष्ण भी इस कला से संपन्न थे। 
कृष्ण की इस कला के कारण पूरा ब्रज मंडल कृष्ण को मोहिनी छवि को देखकर हर्षित होता था। गोपियां कृष्ण को देखकर काम पीडि़त हो जाती थीं और पति रूप में पाने की कामना करने लगती थीं।

7 विद्या- मेधा बुद्धि
सातवीं कला का नाम विद्या है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद थी। कृष्ण वेद, वेदांग के साथ ही युद्घ और संगीत कला में पारंगत थे। राजनीति एवं कूटनीति भी कृष्ण सिद्घहस्त थे।

8 विमला-पारदर्शिता
जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं हो वह आठवीं कला युक्त माना जाता है। महारास के समय भगवान ने अपनी इसी कला का प्रदर्शन किया था। इन्होंने राधा और गोपियों के बीच कोई फर्क नहीं समझा। सभी के साथ सम भाव से नृत्य करते हुए सबको आनंद प्रदान किया था।

9 उत्कर्षिणि-प्रेरणा और नियोजन
महाभारत के युद्घ के समय श्री कृष्ण ने नौवी कला का परिचय देते हुए युद्घ से विमुख अर्जुन को युद्घ के लिए प्रेरित किया और अधर्म पर धर्म की विजय पताका लहराई। नौवीं कला के रूप में प्रेरणा को स्थान दिया गया है। 

10 ज्ञान-नीर क्षीर विवेक
भगवान श्री कृष्ण ने जीवन में कई बार विवेक का परिचय देते हुए समाज को नई दिशा प्रदान की जो दसवीं कला का उदाहरण है। गोवर्धन पर्वत की पूजा हो अथवा महाभारत युद्घ टालने के लिए दुर्योधन से पांच गांव मांगना यह कृष्ण के उच्च स्तर के विवेक का परिचय है।

11 क्रिया-कर्मण्यता
जिनकी इच्छा मात्र से दुनिया का हर काम हो सकता है वह कृष्ण सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करते हैं और लोगों को कर्म की प्रेरणा देते हैं। महाभारत युद्घ में कृष्ण ने भले ही हाथों में हथियार लेकर युद्घ नहीं किया लेकिन अर्जुन के सारथी बनकर युद्घ का संचालन किया।

12 योग-चित्तलय
जिनका मन केन्द्रित है, अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है वह बारहवीं कला से संपन्न श्री कृष्ण हैं। इसलिए श्री कृष्ण योगेश्वर भी कहलाते हैं। कृष्ण उच्च कोटि के योगी थे। अपने योग बल से ब्रह्मास्त्र के प्रहार से माता के गर्भ में पल रहे परीक्षित की रक्षा की। 

13 प्रहवि-अत्यंतिक विनय
तेरहवीं कला का नाम प्रहवि है। इसका अर्थ विनय होता है। भगवान कृष्ण संपूर्ण जगत के स्वामी हैं। संपूर्ण सृष्टि का संचलन इनके हाथों में है फिर भी इनमें कर्ता का अहंकार नहीं है। गरीब सुदामा को मित्र बनाकर छाती से लगा लेते हैं। महाभारत युद्घ में विजय का श्रेय पाण्डवों को दे देते हैं। सब विद्याओं के पारंगत होते हुए भी ज्ञान प्राप्ति का श्रेय गुरू को देते हैं। यह कृष्ण की विनयशीलता है।

14 सत्य-यर्थाथ
श्री कृष्ण कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखते और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जानते हैं शिशुपाल की माता ने कृष्ण से पूछा की शिशुपाल का वध क्या तुम्हारे हाथों होगी। कृष्ण नि:संकोच कह देते हैं यह विधि का विधान है और मुझे ऐसा करना पड़ेगा।

15 इसना -आधिपत्य
तात्पर्य-व्यक्ति में उस गुण का मौजूद होना जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है, लोगों को अपने प्रभाव का एहसास दिलाता है। कृष्ण ने अपने जीवन में कई बार इस का भी प्रयोग किया जिसका एक उदाहरण, मथुरा निवासियों को द्वारिका में बसने के लिए तैयार करना।

16 अनुग्रह-उपकार
बिना प्रत्युकार की भावना से लोगों का उपकार करना यह सोलवीं कला है। भगवान कृष्ण कभी भक्तों से कुछ पाने की उम्मीद नहीं रखते हैं लेकिन जो भी इनके पास इनका बनाकर आ जाता है उसकी हर मनोकामना पूरी करते हैं।


Sunday, August 23, 2020

श्री कृष्ण के तीन बालरूप और हिन्दू मंदिरों में उनका चित्रांकन

 हिन्दू मंदिरों में देवी देवताओं के शिल्पों को हम दो मुख्य विभागों में वर्गीकृत कर सकते हैं; वैदिक देवता और पौराणिक अवतारों की कथाओं के शिल्प। पौराणिक अवतारों के जीवन लीला के प्रसंगों के अनुसार इनमे काफी वैविध्य देखा जाता है। इन कथाओं में सबसे अधिक लीलाधारी अवतार निसंदेह ही श्रीकृष्ण का है इसलिए कृष्ण की प्रतिमाओं में विविधतासभर प्रकारांतर होता है। चलिए कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर आज बालकृष्ण के ऐसे ही तीन स्वरूपों को मंदिर कला के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।

वेणुगोपाल कृष्ण

वेणुगोपाल उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक भारत के सभी प्रदेशों के लोगों के पसंदीदा हैं। इस प्रतिमा में मेघवर्णी श्यामसुन्दर अपने प्रिय गोप-गोपियों से घिरे होते हैं। वृक्षों से आच्छादित पृष्ठभूमि में गायों तथा बछड़ों को दिखाया जाता है। दोनों हाथों में कलात्मक रूप से बांसुरी धारण किए कृष्ण के अधरों पे मंद मंद मुस्कराहट होती है तथा अधबीडे नेत्रों में प्रेम का भाव होता है। दोनों पैरों को नृत्य मुद्रा में मोडे हुए वेणुगोपाल अपने सखा गोप-गोपियों के साथ होने के कारण इन्हें “गण-गोपाल” भी कहा जाता है।


हलेबिडु के शिव मंदिर में स्थित इस वेणुगोपाल की प्रतिमा का बारीकी से निरिक्षण कीजिये, कलाकार ने किस खूबसूरती से आच्छादित पृष्ठभूमि में गोधन और गोप-गोपियों का चित्रण किया है और श्रीकृष्ण के चेहरे पर मुस्कान देखते ही बनती है। आभूषणों से सज्जित कृष्ण प्रतिमा की भाव भंगिमा दर्शनार्थी की दृष्टि को बंधे रखती है।

केरल के कुछ शिल्पों में वेणुगोपाल को शंख तथा चक्र के साथ चतुर्भुज भी दिखाया गया है। एक और रसप्रद बात यह है कि जब बहुभुज वेणुगोपाल के हाथ में बांसुरी के साथ साथ गन्ना और पुष्प भी हों तो उन्हें “मदन गोपाल” कहा जाता है।

कालिया मर्दक कृष्ण

कालियामर्दन का प्रसंग सभी को ज्ञात है इसलिए उसकी पुनरावृत्ति ना करते हुए सीधे इसके प्रतिमा विज्ञान का विवरण देखते हैं। कालिय मर्दक बालकृष्ण को सौम्य मुद्रा में कालिय नाग के मस्तक पर नृत्य करते हुए दिखाया जाता है। बाएं हाथ में सर्प की पुच्छ पकडे कृष्ण का दूसरा हस्त अभय मुद्रा में होता है। यह एक तरह से अनिष्टों से अभय का प्रतीकात्मक चित्रण है। यदि इस प्रतिमा से कालिय नाग निकाल दें तो फिर यह प्रतिमा को “नवनीत नृत्य कृष्ण” प्रतिमा कहा जाएगा। इस प्रतिमा को ज्यादा आभूषणों से नहीं सजाया जाता। तंजौर से एल्लोरा तक के मंदिरों में इस प्रतिमा को उकेरा गया है और सभी प्रतिमाओं की समरूपता ध्यानाकर्षक है।


गोवर्धनधर कृष्ण

व्रजवासियों की रक्षा हेतु अपनी कनिष्ठा अंगुली पर गोवर्धन पर्वत धारण किए कृष्ण की विशेषता यह है कि इन प्रतिमाओं में कालिय मर्दक और वेणुगोपाल की भांति समरूपता नहीं होती। किसी स्थान पर कृष्ण दाएं हाथ से गोवर्धन उठाते हैं तो किसी मंदिर में बाएं हाथ से, इसका सबसे आश्चर्यजनक अवलोकन होयसला स्थापत्य में देखा गया है जहाँ के ही शैली की विभिन्न मूर्तियों में भी विषमताएं देखि गईं है। नुग्गेहल्ली के गोवर्धनधर कृष्ण हालेबिडु के गोवर्धनधर से एकदम अलग तरीके से बनाये गए हैं।


गोवर्धनधर कृष्ण की चर्चा पल्लव स्थापत्यकला के अप्रतिम उदहरण सम महाबलीपुरम के कृष्ण-मंडप गुफा का उल्लेख किए बिना अधूरी है। इस गुफा में ग्रेनाईट पत्थर से कृष्ण की गोवर्धन लीला को जीवंत स्वरुप देने का प्रयास किया गया है। यहां निर्भीक श्रीकृष्ण के साथ भयभीत व्रजवासियों और गायों का अद्भुत चित्रण किया गया है लेकिन इस गुफा को विशेष बनाती है इस दृश्य को जिवंत बनाने के लिए की गई कारीगरी। इसे ध्यान से देखने पर ऐसा महसूस होता है कि भित्तिचित्र को सजीव रूप देनेके लिए गुफा के ऊपरी भाग में जलस्त्रोत का निर्माण किया गया होगा और गुफा की छत में बने छेदों के माध्यम से गुफा में जलवर्षा कर के बारिश का प्रभाव उत्पन्न किया जाता होगा।

सहस्त्र वर्षों में महाबलीपुरम को भूला दिया गया, जलस्त्रोत नष्टप्राय हो गए और शिल्पों की आभा निस्तेज हो गई। जरा सोचिए, दीप प्राकट्य के समय संध्या-आरती के समय दीप प्राकट्य किया गया है और इन लघु तेजपुंजों के प्रकाश से गोवर्धन शरण व्रजवासियों के ऊपर से झरते पानी का अनुपम दृश्य और आपके समक्ष मंद हास्य करते गोवर्धनधारी की मनोरम्य प्रतिमा!

दास मारुति और वीर मारुति


हमारे धर्म में सभी देवी-देवताओं की एक निश्चित प्रकृति होती है। ब्रह्माजी सृष्टि निर्माण करते हैं, विष्णु सृष्टि के चालक हैं तो शिवजी प्रलय के देवता हैं। गणेशजी शुभ कार्यों में प्रथम पूजनीय ‘सुखकर्ता दुखहर्ता’ हैं तो लक्ष्मीजी धन की देवी हैं। सरस्वती ज्ञान का दान करतीं हैं तो भैरव अनिष्ट शक्तियों से रक्षा करते हैं। लेकिन जब हम राम भक्त हनुमान जी की बात करते हैं तब यह विषय रसप्रद हो जाता है। तुलसीदास जी ने हनुमान जी के लिए ‘ज्ञान गुण सागर’ ‘विद्यावान गुणी अति चातुर’ जैसे शब्दों के साथ साथ ‘सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा’ ‘भीम रूप धरि असुर संहारे’ जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है।

यदि गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमानजी को इतने सारे गुणों का भंडार बताया है तो जिज्ञासावश प्रश्न यह उठता है कि उनके किस स्वरुप की पूजा-आराधना करनी चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए चलिए चलते हैं कुछ प्राचीन मंदिरों की ओर… और ढूंढते हैं कुछ सिद्धहस्त कलाकारों के अप्रतिम चित्र!

आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले में चौथी शताब्दी में निर्मित उण्डावल्ली गुफ़ा में मारुति का शिल्प बारीकी से देखिए। मुख पर सौम्य भाव धारण किए मारुति की पुच्छ ज़मीन पर उनके पैरों के पास है। हनुमानजी की इस मुद्रा को ‘दास मारुति’ कहा गया है। जब हनुमानजी को भगवान श्री राम के साथ दिखाया जाता है तब उनका समस्त अस्तित्व राममय होता है और हनुमानजी का यह दास्य भाव हमारे मन मस्तिष्क में एक अनूठी भावमय चेतना का सँचार करता है।

andhra pradesh

इसके विपरित १५वीं शताब्दी में निर्मित विजयनगर-हम्पी के अवशेषों में प्राप्य कुछ प्रतिमाओं में हनुमानजी युद्धरत हैं और इन मूर्तियों में वीर भाव का प्रभुत्व ज्यादा प्रतीत होता है। जब हनुमानजी के चित्र या प्रतिमा में पुच्छ उपर की ओर उठी हो और दाहिना हाथ मस्तिष्क के करीब हो तब इन्हें ‘वीर मारुति’ कहा जाता है।


वीर मारुति और दास मारुति की प्रतिमाओं के अभ्यास का सबसे रसप्रद पहलू यह है कि वीर मारुति के चेहरे पर भी सौम्य भाव दर्शाए जाते हैं और वीरता के भाव स्पष्ट करने के लिए उनकी पुच्छ का सांकेतिक रूप से उपयोग किया जाता है। क्या आप जानते हैं ऐसा क्यों किया जाता है?

प्रतिमा विज्ञान में शिव की संहारमूर्ति, वीरभद्र और महिषासुरमर्दिनी दुर्गा जैसे कुछ एक अपवादों को छोड़कर अन्य सभी देव प्रतिमाओं को सौम्य भाव में दिखाया जाता है। द्रोण पर्वत उठाए, लंका में रावण की सेना के साथ युद्धरत और लंका दहन करते मारुति की मूर्तियां ‘वीर मारुति’ की श्रेणी में आती हैं लेकिन इन प्रतिमाओं में भी हनुमानजी को चेहरे से सौम्य भाव का लोप नहीं होता। भूत-बाधा, विपत्ति या महत्वपूर्ण परीक्षा के समय और जीवन में साहसिक निर्णय लेते समय वीर मारुति की आराधना करते है। महाराष्ट्र के समर्थ स्वामी रामदास जी ने पराधीनता की मानसिकता से ग्रस्त युवाओं को राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए जागृत करने हेतु अनेक गाँवों में वीर मारुति के मंदिरों की स्थापना की थी।


मुंबई में कुछ समय पूर्व ध्यान साधना का अभ्यास कर रहे ३६ युवकों पर एक सर्वे किया गया जिसमें अधिकांश साधकों ने दास मारुति का चित्र ध्यान प्राणायाम के अभ्यास के लिए ज्यादा उपयुक्त पाया। घर के पूजास्थल में दास मारुति का चित्र या शिल्प रखने से एकाग्रता, धैर्य और बुद्धि का विकास होता है।
Maruti


श्री राम का क्रोध और मरुभूमि का रहस्य


अयोध्या के राजकुमार मर्यादा पुरुषोत्तम राम सभी बाधाओं को पार कर अपनी पत्नी की खोज में भारत भूमि के आखरी छोर पर पहुँच चुके थे, अब महाबली दशानन की स्वर्ण नगरी लंका और श्री राम की वानरसेना के मध्य था अगाध समुद्र। मारुती और जामवंत जैसे कुछ सिद्ध योद्धाओं के आलावा कोई समुद्र लांघने में समर्थ नहीं था। अब क्या किया जाए? सीता माता को अशोक वाटिका से मुक्त कराने के लिए युद्ध अनिवार्य था। बिना लंका गए राक्षसराज को पराजित नहीं किया जा सकता था इसीलिए श्री राम ने समुद्र से अपनी लहरों को सेतुबंध का कार्य पूर्ण होने तक शांत रखने का अनुरोध किया।

श्रीराम ने दोनों हाथ जोड़ कर दर्भासन पर शाष्टांग प्रणाम करते हुए समुद्र की आराधना की और सैन्य को लंका तक पहुँचने का मार्ग खाली करने का आह्वान किया इसीलिए रामेश्वरम में आज भी रामचंद्र की शयन प्रतिमा की पूजा की जाती है। समुद्र ने ना कोई प्रत्युत्तर दिया और ना ही प्रत्यक्ष रूप से राम के समक्ष प्रकट हुए। वरुण देव की यह अवहेलना राम के लिए असहनीय थी फिर भी धर्मनिष्ठ और कूटनीतिज्ञ रामचंद्र नदियों के स्वामी की तीन दिनों तक प्रतीक्षा करते रहे। 

तीन दिनों के पश्चात श्रीराम को क्रोध आना स्वाभाविक था। सीता के विरह से व्यथित राम के नेत्रों में क्रोधाग्नि की ज्वालाएं धधक रहीं थीं। उन्होंने अनुज लक्षमण जी से कहा “अब समुद्र के अहंकार की अति हो चुकी है, अब युद्ध ही अंतिम उपाय है। अब मैं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करूँगा और समुद्र को सूखा दूंगा और समुद्र वासी शंख, सीप, मत्स्य और मगरमच्छ जैसे सभी जीवों का अंत करूँगा।” 

राम ने समुद्र को ललकारते हुए कहा “हे अहंकारी सागर, अब मैं अपने बाणों की ज्वालाओं से तुम्हे जल विहीन कर दूंगा और मेरे सैन्य के लिए लंका का मार्ग प्रशश्त करूंगा।” प्रभु राम ने ब्रह्मास्त्र का आह्वान किया और इस महाविनाशकारी अस्त्र को धनुष पर चढ़ा कर प्रत्यंचा खींची। समस्त चराचर जगत में भय व्याप्त हो गया। स्वर्ग, पृथ्वी और आकाश में कोलाहल मच गया। पर्वत कांप गए और तेज आँधियों ने पहाड़ों के शिखरों को ध्वस्त कर दिया। डर के मरे समुद्र एक योजन पीछे चला गया। इस भीषण परिस्थिति में वरुण देव को प्रकट होना ही पड़ा। उन्होंने करबद्ध निवेदन करते हुए राम से कहा “समुद्र की सीमा में बदलाव प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है। यदि वे ऐसा करते हैं तो इसके विपरीत परिणाम हो सकते हैं।”

राम का क्रोध थोड़ा शांत हुआ और उन्होंने वरुण देव से इस समस्या का समाधान पूछा। समुद्र ने राम सेना के अग्रगण्य वास्तुविद विश्वकर्मा पुत्र नल एवं नील को सेतु निर्माण की अनुमति दी। समुद्र ने अपने मगरमच्छ जैसे हिंसक जीवों को राम के सैनिकों का भक्षण न करने का आदेश दिया।

इस तरह से एक समस्या का समाधान हुआ लेकिन एक और समस्या खड़ी हो गई। प्रत्यंचा चढ़ाया गया बाण वापिस उतारा नहीं जा सकता, अब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किस पर किया जाए। वरुणदेव ने इसका समाधान बताते हुए कहा कि ब्रह्मास्त्र का प्रयोग द्रुमकुल्य पर किया जा सकता है। द्रुमकुल्य दस्युओं का निवास है जो बार बार अपने पापकर्मों से समुद्र के पानी को दूषित करते रहते हैं। प्रभु राम ने लवणसमुद्र (लवण = नमक) पर बाण चला दिया, सभी दस्यु मारे गए, वनस्पति का नाश हो गया और उपजाऊ जमीन गर्मी से मरुभूमि में तब्दील हो गई। दस्युओं का अंत होने के पश्चात इस शापित भूमि को राम ने औषधियों और वनस्पतियों से पल्लवित होने का और हमेशा के लिए दूध/दही से भरपूर होने का वरदान दिया। महाभारत में भी इस घटना का उल्लेख मिलता है।

भौगोलिक दृष्टि से देखें तो यह मरुभूमि अरावली से पुष्कर के प्रदेश में होने के संकेत मिलते है। अरावली की पर्वत श्रृंखला औषधीय वनस्पतियों से भरपूर है। इस प्रदेश में गौपालन भी किया जाता है और मरुभूमि होते हुए भी यह प्रदेश राम कृपा से समृद्ध है। एक और रोचक बात यह भी है कि प्राचीन काल में राम ने जिस स्थान पर ब्रह्मास्त्र प्रयोग किया था उसी जगह अर्वाचीन में पोखरण के परमाणु प्रयोग भी किये गए। समस्त भारत में अपवाद स्वरुप पुष्कर में ब्रह्माजी का देवालय कहीं ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का प्रतीक तो नहीं?

हालाँकि कुछ जानकारों के मतानुसार यह द्रुमकुल्य प्रदेश कज़ाख़िस्तान के निकट होने की सम्भावना भी जताई गई है।

कथावस्तु और भौगोलिक स्थान के उपरांत यहाँ एक और पहलू का विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। मर्यादापुरुषोत्तम और नित्य शांत रहने वाले राम को क्रोध क्यों आया? रामायण में स्वयंवर के पश्चात राम परशुरामजी पर क्रोधित हुए थे। वनवास में चित्रकूट निवास के समय काकासुर सीता जी की मर्यादा से खिलवाड़ करने की कोशिश करता है और तब राम क्रोधित हो जाते हैं। ऐसे ही कुछ अपवाद प्रसंगों में राम का क्रोधित होना इस बात का प्रमाण है कि धर्म पालन एवं कर्तव्य निर्वहन करने में आने वाली कोई भी रूकावट सर्वथा अस्वीकार्य है। मर्यादा का अर्थ कायरता कतई नहीं होना चाहिए। अति की परिस्थितियों में क्रोध भी आवश्यक है और श्रीराम ने वही किया।

Friday, August 7, 2020

विश्व पटल पर श्री राम की महिमा ।

 

प्रभु श्री राम के महिमा सिर्फ़ भारत, श्रीलंका या नेपाल तक ही सीमित नहीं है, किंतु श्री राम का प्रभुत्व समग्र विश्व में विराजमान है और बौद्ध, जैन,सिख समुदाए में भी राम के चरित्र का वर्णन मिलता है।

1. Itlay and rome

कुछ विद्वानो की माने तो संस्कृत में कई जगह पर ‘अ’ को ‘ओ’ के रूप में लिखा जाता है। तो लोग दावा करते हैं कि रोम का तात्पर्य राम से है। इतिहास के पन्नो में रोम की स्थापना 21 अप्रैल 753 ईसा पूर्व बताईं गई है। इस तारीख को दर्ज करने का कारण यह बताया जाता है कि 21 अप्रैल को 753 ईसा पूर्व में रामनवमी थी। लेकिन, इटली के संस्थापक कौन थे? Etruscans civilization, जो की रोम की प्राचीन सभ्यता मानी गई है, उन्हें ही इटली का संस्थापक माना गया है। इटली में ईसा पूर्व 7वी शताब्दी में खुदाई के समय जो मिला उसका चित्र नीचे देख सकते हैं आप।


2. Russia- 

1948 में अलेक्जेंडर बारानिकोव ने पहली बार रामायण का रूसी भाषा में अनुवाद किया। तब से रूस शायद एकमात्र यूरोपीय देश है जहां वाल्मीकि रामायण ने रूसी में कई हज़ार प्रतियाँ बेची हैं। रामनवमी समारोह में कई हजार लोगों  भगवान राम को प्रार्थना और श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।


राम का महत्व आप इस बात से लगा सकते है कि रूस के वोल्गा क्षेत्र के एक पुराने गाँव में खुदाई के दौरान एक प्राचीन विष्णु की मूर्ति मिली जो की 7वी शताब्दी की बताई जाती है।


3. Thailand

थाईलैंड में रामायण को रामकियेन कहा जाता है जो थाईलैंड की राष्ट्रीय पुस्तक भी है।प्रारंभिक थाईलैंड की राजधानी को अयोध्या कहा जाता था, जिसका नाम अयोध्या रखा गया था। थाईलैंड के राजा खुद को श्री राम के वंशज मानते थे।थाईलैंड के अंतिम शासक वंश को राम कहा जाता है


4. Cambodia

raemeker जिसे रामाकीर्ति भी कहा जाता है, कम्बोडियन महाकाव्य कविता है,जो संस्कृत के रामायण महाकाव्य पर आधारित है। नाम का अर्थ है "राम की महिमा"। यह बौद्ध विषयों के लिए हिंदू विचारों को स्वीकार करता है और दुनिया में अच्छाई और बुराई के संतुलन को दर्शाता है।


5. Myanmar (burma)

म्यांमार में रामायण को 'यमायण' कहा जाता है जो अनौपचारिक रूप से बर्मा का राष्ट्रीय महाकाव्य है, इसे यम (राम) ज़ताडव (जातक) भी कहा जाता है। बर्मा में, राम को 'यम' के रूप में उच्चारित किया जाता है, और सीता को 'मी थिदा' कहा जाता है।


6. Japan -

जापान में रामायण के दो संस्करण हैं, एक को 'Hobutsushu' कहा जाता है, और दूसरे को 'Sambo-Ekotoba' कहा जाता है।


7. China

राम की अरिष्ट जातक कथाएँ चीन में लोकप्रिय हैं, रामायण का सबसे पहला ज्ञात ज्ञान बौद्ध ग्रन्थ Liudu ji jing में पाया गया था।चीनी समाज पर रामायण का प्रभाव एक वानर राजा, सूर्य Wukong के लोकप्रिय लोकगीत से स्पष्ट होता है, जो रामायण से हनुमान के समान है।


8. Philippines

फिलीपींस में रामायण को Maharadia Lawana कहा जाता है। फिलीपींस का Singkil का प्रसिद्ध नृत्य वहाँ के रामायण से प्रेरित है।


9. Laos

लाओस में लोगों की मान्यता के अनुसार लाओस, राम का पुत्र, लाव का शहर हैPhra Lak Phra Ram लाओ लोगों का राष्ट्रीय महाकाव्य है, और वाल्मीकि की रामायण से अनुकूलित है। लाओस में अभी भी मंदिर हैं जो रामायण के दृश्यों को चित्रित करते हैं।

10. Malayasia

हिकायत सेरी राम हिंदू महाकाव्य 'रामायण' का मलय संस्करण है, हिकायत सेरी राम की मुख्य कहानी मूल संस्कृत संस्करण के समान है, लेकिन इसके कुछ पहलुओं को स्थानीय स्तर पर थोड़ा संशोधित किया गया है।

11. Indonesia

दुनिया का सबसे बड़ा इस्लामिक देश पर यहाँ भी लोग प्रबु राम से अछूते नहीं है। यह पर चार प्रकार की रामायण प्रचलित है- Kakawin Ramayana, Yogesvara Ramayana,Ramakavaca, Ramayana Swarnadwipa.

12. USA

अमेरिका में रामायण के  उपदेश पर एक कहानी प्रचलित है, जिसमें हनुमान को मध्य प्रदेश में एक सुरंग के माध्यम से पाताल लोक (दक्षिण अमेरिका) की यात्रा करने की कहानी सुनाते हैं, जबकि रावण के सौतेले भाई महिरावण द्वारा अपहरण किए गए राम और लक्ष्मण को बचाने की कोशिश करते हैं।

इसके अलावा mongolia, Egypt, Africa इत्यादि में  भी राम या रामायण की कथाएँ मिल जाती है।


हमारी संस्कृति सबसे पुरानी ओर शुद्ध हे , 
इस लिए राम ओर उन का नाम हर जगह है 
गर्व कीजिये की आप भारत मे जन्मे हे ओर हिन्दू है। 

Sunday, July 5, 2020

भूरिश्रवा

भूरिश्रवा महाभारत के सबसे प्रसिद्ध योद्धाओं में से एक थे। इन्होने महाभारत युद्ध में कौरवों के पक्ष से युद्ध किया था। कौरव सेना के प्रधान सेनापति भीष्म ने अपनी ११ अक्षौहिणी सेना के लिए जिन ११ सेनापतियों का चयन किया था, भूरिश्रवा उन सेनापतियों में से एक थे। भूरिश्रवा का वध युद्ध के १४वें दिन सात्यिकी ने किया था। वास्तव में भूरिश्रवा कुरुवंशी ही थे और महाभारत युद्ध में उनके साथ उनके पिता और दादा ने भी युद्ध किया था।

चक्रवर्ती सम्राट ययाति से समस्त राजवश चले। उनके सबसे बड़े पुत्र यदु से यदुवंश चला जिसमे आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। इसी कुल में एक योद्धा हुए शिनि, जो श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के मित्र थे। शिनि के पुत्र हुए महारथी सात्यिकी जो श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र थे। शिनि ने वसुदेव के साथ कई युद्धों में भाग लिया था और उनके प्राणों की रक्षा की थी। दोनों तत्कालीन राजा उग्रसेन और उसके पश्चात कंस के विश्वासपात्र थे।

दूसरी ओर ययाति के सबसे छोटे पुत्र पुरु से पुरुवंश चला जिसमे दुष्यंत, भरत, कुरु, हस्ती इत्यादि महान सम्राट हुए। इसी वंश में एक प्रतापी सम्राट हुए प्रतीप। उनके तीन पुत्र थे - देवापि, बाह्लीक एवं शांतनु। देवापि ने संन्यास ग्रहण कर लिया और बाह्लीक हस्तिनापुर की सीमा बढ़ाने और उसकी सुरक्षा का दायित्व उठा कर युद्ध में रत हो गए। इसी कारण सिंहासन प्रतीप के सबसे छोटे बेटे शांतनु को प्राप्त हुआ। शांतनु ने गंगा से विवाह किया जिनसे उन्हें ८ संतानें हुईं। ७ शीघ्र मुक्त हो गए और ८वें पुत्र गंगापुत्र देवव्रत हुए जो भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।

प्रतीप के पुत्र बाह्लीक के पुत्र हुए सोमदत्त जो अपने पिता की भांति ही श्रेष्ठ योद्धा थे। सोमदत्त भीष्म के चचेरे भाई थे। इन्ही सोमदत्त के पुत्र हुए भूरिश्रवा जो भीष्म के भतीजे थे। इस प्रकार भूरिश्रवा कुरुवंशी ही थे और उन्होंने युद्ध में अपने पिता सोमदत्त और दादा बाह्लीक के साथ कौरव पक्ष का साथ दिया। इस प्रकार एक ही वंश की तीन पीढ़ियों ने महाभारत युद्ध में हिस्सा लिया।

अब थोड़ा पीछे चलते हैं। कंस की बहन थी देवकी जो भगवान श्रीकृष्ण की माता थी। यादवों ने देवकी का स्वयंवर बड़ी धूम-धाम से रचाया जिसमे वसुदेव, शिनि और अन्य यादव वीरों ने भाग लिया। किन्तु देवकी के रूप और गुण की चर्चा इतनी थी कि कुरु राजकुमार बाह्लीक पुत्र सोमदत्त भी उस स्वयंवर में भाग लेने आये। किन्तु यादव नहीं चाहते थे कि यादवों की कन्या कुरुओं से ब्याही जाये। इसी कारण वहाँ देवकी को प्राप्त करने हेतु सभी योद्धा आपस में उलझ पड़े।

शिनि ये जानते थे कि वसुदेव देवकी से प्रेम करते हैं इसीलिए उन्होंने वसुदेव के लिए देवकी का हरण कर लिया और उसे अपने रथ पर लेकर वसुदेव के साथ स्वयंवर स्थल से लेकर भागे। जब सोमदत्त ने शिनि को कन्या का हरण करते हुए देखा तो वे उसका प्रतिकार करने हेतु उनके पीछे लपके। उन्होंने बीच राह में शिनि को युद्ध के लिए ललकारा। तब शिनि ने देवकी को वसुदेव के साथ भेज दिया और वे सोमदत्त को रोकने के लिए वही रुक गए।

दोनों में घोर युद्ध प्रारम्भ हुआ जो बहुत देर तक चला। किन्तु अंततः शिनि ने सोमदत्त को पराजित कर दिया। वे सोमदत्त का सर काटना चाहते थे किन्तु अंत समय में उन्होंने दया में आकर सोमदत्त को जीवनदान दिया। सोमदत्त लज्जित होकर हस्तिनापुर लौट आये। जब भीष्म ने ये सुना तो उन्होंने यादवों पर आक्रमण करने की ठानी किन्तु फिर सोमदत्त के पिता और उनके चाचा बाह्लीक ने उन्हें ये कहकर रोक लिया कि कन्या तो वसुदेव से ब्याही जा चुकी है इसी कारण उसके लिए इतना व्यापक युद्ध नहीं छेड़ना चाहिए। किन्तु तब तक यादवों और कुरुओं के बीच वैमनस्व बढ़ गया।

सोमदत्त अपने अपमान से इतने दुखी हुए कि उन्होंने शिव की तपस्या आरम्भ कर दी। उधर वसुदेव के विवाह के पश्चात शिनि ने भी महादेव की तपस्या आरम्भ की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उसे दर्शन दिए तो शिनि ने उनसे एक अजेय पुत्र माँगा। तब महादेव ने उसे ऐसे पौत्र का वरदान दिया जो अजेय होगा और जिसपर प्रभु (श्रीकृष्ण) की कृपा रहेगी। उन्ही के कृपास्वरूप शिनि के घर उनके पुत्र सत्यक को एक पुत्र हुआ जिसका नाम सात्यिकी रखा गया। वो एक श्रेष्ठ यादव वीर और श्रीकृष्ण के परम मित्र हुए।

उसी दिन महादेव सोमदत्त की तपस्या से भी प्रसन्न हुए और उन्हें भी दर्शन दिए। तब सोमदत्त ने वरदान में एक ऐसे पुत्र की कामना की जो शिनि के पुत्र का वध कर सके। तब महादेव बोले कि उन्होंने पहले ही शिनि को अजेय पुत्र का वरदान दे दिया है इसी कारण वो उसे ऐसे पुत्र का वरदान नहीं दे सकते। किन्तु सोमदत्त की तपस्या विफल ना जाये इसीलिए महादेव ने उसे एक ऐसे पुत्र का वरदान दिया जो शिनि के पुत्र को युद्ध में मूर्छित कर सकेगा और अगर उस समय उसे किसी की सहायता ना मिले तो वो उसका वध कर सकेगा। यही नहीं, वो युद्ध में शिनि के उस पुत्र के सभी पुत्रों का वध करेगा। उसी वरदान स्वरुप सोमदत्त के पुत्र के रूप में भूरिश्रवा ने जन्म लिया।

महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पहले पितामह भीष्म प्रधान सेनापति बनाये गए। उसके बाद भीष्म ने अपनी ११ अक्षौहिणी सेना के लिए ११ सेनापति नियुक्त किये जिनमे से भूरिश्रवा को १ अक्षौहिणी सेना का सेनापति बनाया गया। महाभारत में वर्णित है कि भूरिश्रवा ने बड़ी कुशलता से अपनी सेना का नेतृत्व किया और भीष्म को युद्ध जीतने में सहायता की। कर्ण के युद्ध में भाग लेने से पहले भूरिश्रवा ने ही पांचालों को रोके रखा।

युद्ध के पांचवें दिन सात्यिकी के १० पुत्र भूरिश्रवा से प्रतिशोध लेने को उससे जा भिड़े। उन १० योद्धाओं ने एक साथ भूरिश्रवा पर आक्रमण कर दिया किन्तु वो बिलकुल भी विचलित नहीं हुए। उनकी युद्धकला बहुत उत्कृष्ट थी और इसी कारण उन्होंने ना केवल उन सभी के प्रहार रोके बल्कि केवल आधे प्रहार के युद्ध में ही उन्होंने सात्यिकी के सभी १० पुत्रों का वध कर दिया।

जब सात्यिकी को अपने पुत्रों के वीरगति को प्राप्त होने का समाचार मिला तो उन्हें भूरिश्रवा पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने ये प्रतिज्ञा की कि चाहे जैसे भी हो किन्तु वो भूरिश्रवा का वध इस युद्ध में अवश्य कर देंगे। इसके बाद भी आने वाले दिनों में सात्यिकी और भूरिश्रवा के बीच युद्ध हुआ किन्तु कोई निर्णय नहीं हो पाया। दोनों के बीच हुए कई युद्धों में दोनों ने एक दूसरे को पराजित किया किन्तु उन्हें एक दूसरे का वध करने का समय नहीं मिला।

उधर युद्ध के १०वें दिन पितामह भीष्म शिखंडी और अर्जुन के छल के कारण धराशायी हो गए। उनके पतन के बाद दोनों पक्षों ने युद्ध के नियमों को ताक पर रख दिया। जो अधर्म पितामह भीष्म के साथ आरम्भ हुआ था उसकी भेंट कई अन्य योद्धा भी चढ़े। युद्ध के १३वें दिन जब अर्जुन सप्तशंशकों से युद्ध में व्यस्त थे तब उनके पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह में फसा कर ७ महारथियों द्वारा मार डाला गया।

जब अर्जुन को इस बात का पता चला तब उसने अगले दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा कर ली। अगले दिन प्रातः अर्जुन और श्रीकृष्ण सबसे पहले जयद्रथ को खोजते हुए कौरव सेना का संहार करते हुए आगे बढ़ने लगे। उनकी सहायता को भीम आगे बढे और कौरव सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। तब कौरव सेना के सेनापति आचार्य द्रोण ने भूरिश्रवा को जयद्रथ की रक्षा करने को कहा और अर्जुन को रोकने स्वयं आगे बढे।

तब सात्यिकी आगे ढ़ कर भूरिश्रवा से भिड़ गए। दोनों में द्वेष तो था ही, अब भयानक युद्ध छिड़ गया। बहुत देर युद्ध होने के पश्चात अचानक भूरिश्रवा ने अपनी गदा से सात्यिकी के सर पर प्रहार किया। उससे सात्यिकी मूर्छित होकर वही रथ पर गिर पड़े। उसे अपने सामने इस प्रकार पड़े देख भूरिश्रवा उसके वध को आगे बढे। उन्हें ये ज्ञात था कि महादेव के वरदान के अनुसार अब वो उसका वध कर सकते थे।

तभी अचानक अर्जुन और श्रीकृष्ण वहाँ आये और देखा कि सात्यिकी के प्राण संकट में हैं। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वो सात्यिकी की सहायता करे। तब अर्जुन ने कहा - "हे माधव! ये तो युद्ध के नियमों के विरुद्ध है। जब दो योद्धा युद्ध कर रहे हों तो तीसरे को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ये अन्याय है।" तब श्रीकृष्ण ने कहा - "पार्थ! इस युद्ध में हम न्याय-अन्याय से बहुत आगे बढ़ आये हैं। कौरवों ने कब धर्म के बारे में सोचा है? और ये भी तो सोचो कि सात्यिकी तुम्हारा मित्र और शिष्य है और इस नाते उसकी रक्षा करना तुम्हारा धर्म है। अतः सात्यिकी की सहायता करो।"

उधर भूरिश्रवा सात्यिकी का वध करने ही वाला था कि अर्जुन ने अपने बाण से उसकी भुजा काट दी। जब भूरिश्रवा ने ये देखा तो कृष्ण और अर्जुन को धिक्कारते हुए बोला - "पुत्र अर्जुन! मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी।कोई कुरुवंशी कभी ऐसी कायरता नहीं कर सकता। जब मुझमे और सात्यिकी में द्वन्द चल रहा था तब तुमने मुझे चेतावनी दिए बिना पीछे से मुझपर प्रहार किया। तुम किस प्रकार अपने आपको वीर कह सकते हो?"

तब श्रीकृष्ण ने कहा - "हे वीरश्रेष्ठ! सात्यिकी अर्जुन का शिष्य था और अर्जुन उसकी रक्षा को वचनबद्ध था। और आपने ही कौन से धर्म का पालन किया? आप उसका वध उस स्थिति में करना चाह रहे थे जब वो मूर्छित है। आप भी अधर्म ही कर रहे थे और उसे रोकना अर्जुन का धर्म था। इस प्रकार मूर्छित योद्धा का वध करने के प्रयास करने के कारण आपको लज्जा आनी चाहिए।

श्रीकृष्ण द्वारा ऐसी बातें सुनकर भूरिश्रवा उस अधर्म से दुखी और क्रोधित होकर वहीँ रणभूमि पर अनशन पर बैठ गए। उसी समय सात्यिकी की मूर्छा टूटी। अपने सामने भूरिश्रवा को इस प्रकार बैठा देख कर उसे धर्म-अधर्म का ज्ञान ना रहा। वो नंगी तलवार लेकर समाधि में बैठे भूरिश्रवा की ओर बढ़ा। ये देख कर दोनों ओर की सेना हाहाकार कर उठी। अर्जुन और श्रीकृष्ण ने उसे ऐसा करने से मना किया किन्तु उसने तत्काल अपनी तलवार से निहत्थे भूरिश्रवा का सर काट डाला। इस प्रकार छल द्वारा एक और महान योद्धा का वध हुआ।

युद्ध के ३६ वर्ष के बाद प्रभास तीर्थ पर कृतवर्मा ने इस बात का उल्लेख करते हुए सात्यिकी को धिक्कारा कि उसने निहत्थे भूरिश्रवा का वध किया। इससे क्रोधित होकर सात्यिकी ने असावधान कृतवर्मा का भी वध कर डाला। उसी से यादव आपस में लड़ मरे और यादव वंश समाप्त हो गया।

विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध


ये युद्ध भगवान शंकर और श्रीकृष्ण के बीच हुआ था जब श्रीकृष्ण ने महादेव के शिवज्वर के विरुद्ध विष्णुज्वर चला दिया था। इसे ही विश्व का पहला जैविक युद्ध माना जाता है।

दानवीर दैत्यराज बलि के सौ प्रतापी पुत्र थे, उनमें सबसे बड़ा बाणासुर था। बाणासुर ने भगवान शंकर की बड़ी कठिन तपस्या की। शंकर जी ने उसके तप से प्रसन्न होकर उसे सहस्त्र बाहु तथा अपार बल दे दिया। उसके सहस्त्र बाहु और अपार बल के भय से कोई भी उससे युद्ध नहीं करता था। इसी कारण से बाणासुर अति अहंकारी हो गया। बहुत काल व्यतीत हो जाने के पश्चात् भी जब उससे किसी ने युद्ध नहीं किया तो वह एक दिन शंकर भगवान के पास आकर बोला, "हे चराचर जगत के ईश्वर! मुझे युद्ध करने की प्रबल इच्छा हो रही है किन्तु कोई भी मुझसे युद्ध नहीं करता। अतः कृपा करके आप ही मुझसे युद्ध करिये।"

उसकी अहंकारपूर्ण बात को सुन कर भगवान शंकर को क्रोध आया किन्तु बाणासुर उनका परमभक्त था इसलिये अपने क्रोध का शमन कर उन्होंने कहा, "रे मूर्ख! तुझसे युद्ध करके तेरे अहंकार को चूर-चूर करने वाला उत्पन्न हो चुका है। जब तेरे महल की ध्वजा गिर जावे तभी समझ लेना कि तेरा शत्रु आ चुका है।" ये सुनकर बाणासुर निराश होकर कैलाश से चला गया।

बाणासुर की उषा नाम की एक कन्या थी। एक बार उषा ने स्वप्न में श्रीकृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को देखा और उसपर मोहित हो गई। उसने अपने स्वप्न की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताया। चित्रलेखा ने अपने योगबल से पहले प्रद्युम्न का चित्र बनाया और उषा को दिखा कर पूछा कि "क्या इसी को तुमने स्वप्न में देखा था"? तब उषा बोली कि इसकी सूरत तो उससे मिलती है किन्तु ये वो नहीं है।" तब चित्रलेखा ने श्रीकृष्ण का चित्र बनाया। अनिरुद्ध श्रीकृष्ण का प्रतिरूप ही था। श्रीकृष्ण की तस्वीर देख कर उषा ने कहा - "हाँ ये वही है किन्तु पता नहीं क्यों इसे देख कर मेरे मन में पितृ तुल्य भाव आ रहे हैं।"

ये सुनकर चित्रलेखा समझ गयी कि उषा ने स्वप्न में अनिरुद्ध को देखा है। तब उसने अनिरुद्ध का चित्र बनाया और उषा को दिखाया। उसे देखते ही उषाने ने लज्जा से अपना सर झुका लिया और कहा - "हाँ! इसी को मैंने स्वप्न में देखा था। मैं इससे प्रेम करने लगी हूँ और अब मैं इनके बिना नहीं रह सकती।" अपनी सखी को कामवेग से ग्रसित देख चित्रलेखा द्वारका पहुँची और सोते हुये अनिरुद्ध को पलंग सहित उषा के महल में पहुँचा दिया। नींद खुलने पर अनिरुद्ध ने स्वयं को एक नये स्थान पर पाया और देखा कि उसके पास एक अनिंद्य सुन्दरी बैठी हुई है। अनिरुद्ध के पूछने पर उषा ने बताया कि वह बाणासुर की पुत्री है और अनिरुद्ध को पति रूप में पाने की कामना रखती है। अनिरुद्ध भी उषा पर मोहित हो गये और वहीं उसके साथ महल में ही रहने लगे।

कुछ समय पश्चात प्रहरियों को सन्देह हो गया कि उषा के महल में अवश्य कोई बाहरी मनुष्य आ पहुँचा है। उन्होंने जाकर बाणासुर से अपने सन्देह के विषय में बताया। उसी समय बाणासुर ने अपने महल की ध्वजा को गिरी हुई देखा। उसे निश्चय हो गया कि कोई मेरा शत्रु ही उषा के महल में प्रवेश कर गया है। वह अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर उषा के महल में पहुँचा। उसने देखा कि उसकी पुत्री उषा के समीप पीताम्बर वस्त्र पहने बड़े बड़े नेत्रों वाला एक साँवला सलोना पुरुष बैठा हुआ है। वाणासुर ने क्रोधित हो कर अनिरुद्ध को युद्ध के लिये ललकारा। उसकी ललकार सुनकर अनिरुद्ध भी युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गये और उन्होंने लोहे के एक भयंकर मुद्गर को उठा कर उसी के द्वारा बाणासुर के समस्त अंगरक्षकों को मार डाला। वाणासुर और अनिरुद्ध में घोर युद्ध होने लगा। बाणासुर अपार बल का स्वामी था और शिव का पुत्र माना जाता था। अंततः उसने युद्ध में अनिरुद्ध को पराजित कर दिया और बंदी बना लिया।

इधर द्वारिका पुरी में अनिरुद्ध की खोज होने लगी और उनके न मिलने पर वहाँ पर शोक छा गया। तब देवर्षि नारद ने वहाँ पहुँच कर अनिरुद्ध का सारा वृत्तांत कहा। इस पर श्रीकृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न, सात्यिकी, गद, साम्ब आदि सभी वीर चतुरंगिणी सेना के साथ लेकर बाणासुर के नगर शोणितपुर पहुँचे। उन्होंने आक्रमण करके वहाँ के उद्यान, परकोटे, बुर्ज आदि को नष्ट कर दिया। श्रीकृष्ण ने एक बाण से बाणासुर के महल की ध्वजा गिरा दी। आक्रमण का समाचार सुन बाणासुर भी अपनी सेना को साथ लेकर आ गया जिसका नेतृत्व उसका सेनापति कुम्भाण्ड कर रहा था।

श्री बलराम जी कुम्भाण्ड तथा कूपकर्ण राक्षसों से जा भिड़े, प्रद्युम्न एक साथ कई योद्धाओं से भीड़ गए और श्रीकृष्ण बाणासुर के सामने आ डटे। घनघोर संग्राम होने लगा। चहुँओर बाणों की बौछार हो रही थी। बलराम ने कुम्भाण्ड और कूपकर्ण को मार डाला। बाणासुर ने जब अपने महल की ध्वजा को कटा देखा तो उसे महादेव के कथन का ध्यान हो आया। उसने अपनी पूरी शक्ति से श्रीकृष्ण पर हमला किया। दोनों महान वीर थे और भिन्न-भिन्न दिव्यास्त्रों से एक दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। बाणासुर से तो स्वयं रावण जैसा महारथी भी बच कर रहता था। उसपर भी बाणासुर के बल की एक सीमा थी किन्तु श्रीकृष्ण के बल की क्या सीमा? जल्द ही बाणासुर को ये पता चल गया कि वो वासुदेव को परास्त नहीं कर सकता।

उधर कृष्ण लगातार बाणासुर के योद्धाओं का अंत कर रहे थे। अब बाणासुर को लगा कि अगर युद्ध ऐसे ही चलता रहा तो उसका विनाश निश्चित है। तब उसे अपने आराध्य भगवान शंकर की याद आयी जिन्होंने उसे वरदान दिया था कि वे उसकी हर आपदा से रक्षा करेंगे। तब बाणासुर ने महादेव का स्मरण किया। बाणासुर की पुकार सुनकर भगवान शिव ने कार्तिकेय के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित अन्य शिवगणों को बाणासुर की सहायता के लिए भेज दिया। कार्तिकेय के नेतृत्व में शिवगणों ने श्रीकृष्ण की सेना पर चारो ओर से आक्रमण कर दिया। ऐसा भीषण आक्रमण देख कर श्रीकृष्ण की सेना पलायन करने लगी।

अपनी सेना का मनोबल टूटता देख कर श्रीकृष्ण ने महादेव द्वारा प्रदान किया गया सुदर्शन चक्र का आह्वान किया। १००० आरों वाला वो महान दिव्यास्त्र भयंकर प्रलयाग्नि निकलता हुआ शिवगणों को तप्त करने लगा। श्रीकृष्ण के के समक्ष शिवगण टिक नहीं पाए किन्तु शिवपुत्र कार्तिकेय इससे प्रभावित ना होकर युद्ध करते रहे। तब श्रीकृष्ण के साथ बलराम ने भी अपने दिव्य हल से कार्तिकेय पर धावा बोला। सुदर्शन और हल से कार्तिकेय का अहित और शिवगणों की प्राणहानि तो नहीं हुई किन्तु उसके समक्ष ही बाणासुर की सेना का नाश होता रहा। कृष्ण ने अपने धनुष "श्राङ्ग" से अनेकानेक महारथियों का वध कर दिया। अब कार्तिकेय को लगा कि वो इस प्रकार बाणासुर को नहीं बचा पाएंगे इसीलिए उन्होंने शिवगणों के साथ अपने पिता का आह्वान किया।

अपने पुत्र और शिवगणों की पुकार सुनकर और अपने भक्त की रक्षा हेतु अब स्वयं भगवान महारुद्र रणभूमि में आये। भगवान शंकर को वहाँ आया देख कर श्रीकृष्ण ने बलराम सहित अपने शस्त्रों को त्याग कर उन्हें प्रणाम किया और उनकी अभ्यर्थना की। भगवान शंकर ने श्रीकृष्ण को आशीर्वाद दिया और मधुर स्वर में कहा - "हे वासुदेव! आप जिस बाणासुर का वध करने को उद्यत हैं वो मेरा भक्त है और कार्तिकेय के सामान ही मैंने मेरे पुत्र समान है। मैंने उसकी रक्षा का वचन उसे दिया है इसीलिए आप उसके वध का विचार त्याग कर वापस चले जाएँ।"

तब श्रीकृष्ण ने करबद्ध होकर कहा - "हे महेश्वर! जिस प्रकार बाणासुर आपका भक्त है उसी प्रकार मैं भी तो आपका भक्त ही हूँ। मेरा बल और शक्ति आपके द्वारा ही प्रदत्त है। ये सुदर्शन, जो शत्रुओं का नाश कर रहा है, स्वयं आपके तीसरे नेत्र से उत्पन्न हुआ है। इसे आपने ही भगवान विष्णु को असुरों के नाश के लिए दिया था। मैं कौन हूँ और ये चक्र मुझे कैसे प्राप्त हुआ, ये रहस्य तो आप भली-भांति जानते हैं। अब युद्ध से पीछे हट कर मैं स्वयं आपका अपमान नहीं कर सकता हूँ।" जब श्रीकृष्ण किसी तरह भी पीछे हटने को तैयार नहीं हुए तो विवश होकर भगवान शिव ने अपना त्रिशूल उठाया। कार्तिकेय और शिवगणों सहित बाणासुर और श्रीकृष्ण की समस्त सेना और सभी देवताओं सहित परमपिता ब्रह्मा भी इस महान युद्ध को देखने के लिए रुक गए।

महारूद्र के भीषण तेज से ही श्रीकृष्ण की सारी सेना भाग निकली। केवल श्रीकृष्ण ही उनके सामने टिके रहे। अब तो दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा। बाणासुर ने जब देखा की कृष्ण महादेव से लड़ने में व्यस्त हैं तो उसने श्रीकृष्ण की बांकी सेना पर आक्रमण किया। दूसरी ओर श्रीकृष्ण ने अपने समस्त दिव्यास्त्रों का प्रयोग महादेव पर किया पर उससे महाकाल का क्या बिगड़ता? उन दोनों के बीच का युद्ध इतना भयानक हो गया कि देवताओं को सृष्टि की चिंता होने लगी। श्रीकृष्ण ने भगवान विष्णु से प्राप्त अपना महान "श्राङ्ग" धनुष धारण किया और महादेव ने अपना महान धनुष "पिनाक" उठाया। इससे दोनों में ठीक उसी प्रकार युद्ध होने लगा जैसे कालांतर में परमपिता ब्रह्मा की मध्यस्थता में भगवान शिव और भगवान विष्णु के बीच हुआ था। दोनों का युद्ध समय के साथ भीषण होता जा रहा था। अंत में भगवान शिव के त्रिशूल और वासुदेव के सुदर्शन के बीच द्वन्द हुआ किन्तु दोनों सामान शक्ति वाले ही सिद्ध हुए।

श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के परमावतार माने जाते हैं जो उनकी सभी १६ कलाओं के साथ अवतरित हुए थे। इसी कारण उन्हें उन सभी महास्त्रों का स्वतः ही ज्ञान था जो ज्ञान नारायण को था। हरिवंश पुराण में ये वर्णन है कि उन्होंने युद्ध को समाप्त करने के लिए नारायण का सर्वाधिक शक्तिशाली अस्त्र "विष्णुज्वर" का संधान किया। ये महास्त्र अत्यंत ठण्ड उत्पन्न करता है जिससे समस्त प्राणियों का नाश हो जाता है। विष्णुज्वर भयानक नाद करता हुआ भगवान शिव की ओर बढ़ा। तब महादेव ने भी अपना एक महान अस्त्र "शिवज्वर" का संधान किया और उसे विष्णुज्वर के निवारण के लिए छोड़ा। विष्णुज्वर के उलट शिवज्वर भयानक ताप उत्पन्न करता है जिससे सृष्टि का नाश हो जाता है। इन दोनों महास्त्रों से अधिक शक्तिशाली त्रिलोक में कोई और दिव्यास्त्र नहीं था। दोनों महास्त्रों का ताप ऐसा था कि मनुष्य तो मनुष्य, स्वयं देवता भी मूर्छित हो गए।

अब परमपिता ब्रह्मा ने देखा कि अब उनकी सृष्टि का नाश निश्चित है। उन्हें इस युद्ध को रोकने के लिए युद्धक्षेत्र में आना पड़ा। उन्होंने दोनों के बीच मध्यस्थता करवाते हुए कहा - "हे कृष्ण! हे महादेव! आप दोनों क्यों सृष्टि के नाश को तत्पर है? आपको भली भांति ज्ञात है कि अगर ये दोनों महास्त्र आपस में टकराये तो त्रिभुवन का नाश संभव है। जब सृष्टि ही नहीं रहेगी तो आप रक्षा किसकी करेंगे? हे महादेव! आपने ही बाणासुर को उसके अभिमान नष्ट होने का श्राप दिया था। श्रीकृष्ण आपके ही श्राप के अनुमोदन के लिए बाणासुर से युद्ध कर रहे हैं। अतः आप अपना क्रोध शांत करें और इस युद्ध का अंत करें।"

परमपिता को इस प्रकार बोलते देख श्रीकृष्ण ने भी महादेव से करबद्ध हो कहा - "हे महाकाल! आपने स्वयं ही बाणासुर को कहा था की उसे मैं परस्त करूँगा किन्तु आपके रहते तो ये संभव नहीं है। बाणासुर आपका भक्त अवश्य है किन्तु आततायी है। फिर क्यों आप उसकी रक्षा कर रहे हैं? महाबली रावण भी तो आपका भक्त था किन्तु उसका वध करने के लिए आपने श्रीराम की सहायता ही की। मुझपर भी अपनी कृपादृष्टि रखें। सभी को ये पता है की आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता। इसीलिए हे प्रभु! अब आप ही अपने वचन की रक्षा करें।" श्रीकृष्ण की ये बात सुनकर महादेव उन्हें आर्शीवाद देकर युद्ध क्षेत्र से हट गए।

महादेव के जाने के बाद श्रीकृष्ण पुनः बाणासुर पर टूट पड़े। बाणासुर भी अति क्रोध में आकर उनपर टूट पड़ा और अपनी १००० भुजाओं में विभिन्न प्रकार के अस्त्र लेकर उनपर प्रहार करने लगा। अंत में श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र निकला और बाणासुर की भुजाएं कटनी प्रारंभ कर दी। एक-एक करके उन्होंने बाणासुर की ९९८ भुजाएँ काट दी। उन्होंने क्रोध में भरकर बाणासुर को मरने की ठान ली। बाणासुर के प्राणों का अंत निश्चित जान कर भगवान रूद्र एक बार फिर रणक्षेत्र में आ गए। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा कि वे बाणासुर की रक्षा का वचन दे चुके हैं इसी कारण उसे मरने नहीं दे सकते।

उन्होंने कृष्ण से कहा - "वासुदेव! बाणासुर को पर्याप्त दंड मिल चूका है और उसका अभिमान समाप्त हो गया है। अब उसकी केवल दो भुजाएँ ही शेष है इसी लिए अब उसे प्राणदान दें। अगर आप अब भी इसकी मृत्यु की कामना करते हों तो पुनः मुझसे युद्ध कीजिये।" भगवान शिव की आज्ञा मान कर श्रीकृष्ण ने बाणासुर को मरने का विचार त्याग दिया। उन्होंने महादेव से कहा - "हे भगवन! जो आपका भक्त हो उसे इस ब्रह्माण्ड में कोई नहीं मार सकता। किन्तु इसने अनिरुद्ध को बंदी बना रखा है जिसे लिए बिना मैं वापस नहीं लौट सकता।" ये सुनकर भगवान शंकर ने बाणासुर से अनिरुद्ध को मुक्त करने की आज्ञा दी। उनकी आज्ञा मानते हुए बाणासुर ने ना केवल अनिरुद्ध को मुक्त किया बल्कि अपनी पुत्री उषा का विवाह भी उससे कर दिया। फिर कुछ काल तक वही सुखपूर्वक रहने के पश्चात श्रीकृष्ण अनिरुद्ध और उषा के साथ द्वारिका लौट गए।

Friday, June 5, 2020

विदुर

 
विदुर (अर्थ कुशलबुद्धिमान अथवा मनीषी) हिन्दू ग्रन्थ महाभारत के केन्द्रीय पात्रों में से एक व हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री, कौरवो और पांडवो के काका और धृतराष्ट्र एवं पाण्डु के भाई थे। उनका जन्म एक दासी के गर्भ से हुआ था। विदुर को धर्मराज का अवतार भी माने जाते  है।

हस्तिनापुर नरेश शान्तनु और रानी सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बाअम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राजा शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।

राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, "हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।" किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, "हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।" परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।

विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, "पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।" माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, "माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।"

यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। अचानक उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया। स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, "हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।" वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, "माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वे एक वर्ष तक नियम व्रत का पालन करते रहें तभी उनको गर्भ धारण होगा।" एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, "माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा। "सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ और उन्होंने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा, "माता! अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा।" इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी ने आनन्दपूर्वक वेदव्यास से भोग कराया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, "माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।" इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।

समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मान्ध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।


विदुर का धृतराष्ट्र तथा गान्धारी को उपदेश एवं वनगमन :

सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा करने पश्चात् विदुर जी हस्तिनापुर आये। उन्होंने मैत्रेय जी से आत्मज्ञान प्राप्त कर किया था। धर्मराज युधिष्ठिरभीम अर्जुननकुल सहदेवधृतराष्ट्रयुयुत्सुसंजयकृपाचार्यकुन्ती गांधारीद्रौपदीसुभद्राउत्तराकृपी नगर के गणमान्य नागरिकों के साथ विदुर जी के दर्शन के लिये आये। सभी के यथायोग्य अभिवादन के पश्चात् युधिष्ठिर ने कहा - "हे चाचाजी! आपने हम सब का पालन पोषण किया है और समय समय पर हमारी प्राणरक्षा करके आपत्तियों से बचाया है। अपने उपदेशों से हमें सन्मार्ग दिखाया है। अब आप हमें अपने तीर्थयात्रा का वृतान्त कहिये। अपनी इस यात्रा में आप द्वारिका भी अवश्य गये होंगे, कृपा करके हमारे आराध्य श्रीकृष्णचन्द्र का हाल चाल भी बताइये।"

अजातशत्रु युधिष्ठिर के इन वचनों को सुन कर विदुर जी ने उन्हें सभी तीर्थों का वर्णन सुनाया, किन्तु यदुवंश के विनाश का वर्णन को न कहना ही उचित समझा। वे जानते थे कि यदुवंश के विनाश का वर्णन सुन कर युधिष्ठिर को अत्यन्त क्लेश होगा और वे पाण्डवों को दुखी नहीं देख सकते थे। कुछ दिनों तक विदुर जी प्रसन्नता पूर्वक हस्तिनापुर में रहे।

विदुर जी धर्मराज के अवतार थे। मांडव्य ऋषि ने धर्मराज को श्राप दे दिया था इसी कारण वे सौ वर्ष पर्यन्त शूद्र बन कर रहे। एक समय एक राजा के दूतों ने मांडव्य हषि के आश्रम पर कुछ चोरों को पकड़ा था। दूतों ने चोरों के साथ मांडव्य ऋषि को भी चोर समझ कर पकड़ लिया। राजा ने चोरों को शूली पर चढ़ाने की आज्ञा दी। उन चोरों के साथ मांडव्ठ ऋषि को भी शूली पर चढ़ा दिया गया किन्तु इस बात का पता लगते ही कि चोर नहीं हैं बल्कि ऋषि हैं, राजा ने उन्हें शूली से उतरवा कर अपने अपराध के लिये क्षमा मांगी। मांडव्य ऋषि ने धर्मराज के पहुँच कर प्रश्न किया कि तुमने मझे मेरे किस पाप के कारण शूली पर चढ़वाया? धर्मराज ने कहा कि आपने बचपन में एक टिड्डे को कुश को नोंक से छेदा था, इसी पाप में आप को यह दंड मिला। ऋषि बोले - "वह कार्य मैंने अज्ञानवश किया था और तुमने अज्ञानवश किये गये कार्य का इतना कठोर दंड देकर अपराध किया है। अतः तुम इसी कारण से सौ वर्ष तक शूद्र योनि में जन्म लेकर मृत्युलोक में रहो।"

मुनि के शाप के कारण ही धर्मराज को विदुर जी का अवतार लेना पड़ा था। वे काल की गति को भली भाँति जानते थे। उन्होंने अपने बड़े भ्राता धृतराष्ट्र को समझाया कि महाराज! अब भविष्य में वड़अ बुरा समय आने वाला है। आप यहाँ से तुरन्त वन की ओर निकल चलिये। कराल काल शीघ्र ही यहाँ आने वाला है जिसे संसार का कोई भी प्राणी टाल नहीं सकता। आपके पुत्र-पौत्रादि सभी नष्ट हो चुके हैं और वृद्धावस्था के कारण आपके इन्द्रिय भी शिथिल हो गईं हैं। आपने इन पाण्डवों को महान क्लेश दिये, उन्हें मरवाने कि कुचेष्टा की, उनकी पत्नी द्रौपदी को भरि सभा में अपमानित किया और उनका राज्य छीन लिया। फिर भी उन्हीं का अन्न खाकर अपने शरीर को पाल रहे हैं और भीमसेन के दुर्वचन सुनते रहते हैं। आप मेरी बात बात मान कर सन्यास धारण कर शीघ्र ही चुपचाप यहाँ से उत्तराखंड की ओर चले जाइये। विदुर जी के इन वचनों से धृतराष्ट्र को प्रज्ञाचक्षु प्राप्त हो गये और वे उसी रात गांधारी को साथ लेकर चुपचाप विदुर जी के साथ वन को चले गये।

प्रातःकाल सन्ध्यावंदन से निवृत होकर ब्राह्मणों को तल, गौ, भूमि और सुवर्ण दान करके जब युधिष्ठिर अपने गुरुजन धृतराष्ट्र, विदुर और गांधारी के दर्शन करने गये तब उन्हें वहाँ न पाकर चिंतित हुये कि कहीं भीमसेन के कटुवचनों से त्रस्त होकर अथवा पुत्र शोक से दुखि हो कर कहीं गंगा में तो नहीं डूब गये। यदि ऐसा है तो मैं ही अपराधी समझा जाउँगा। वे उनके शोक से दुखी रहने लगे।

एक दिन देवर्षि नारद अपने तम्बूरे के साथ वहाँ पधारे। युधिष्ठिर ने प्रणाम करके और यथोचित सत्कार के साथ आसन देकर उनसे विदुर, धृतराष्ट्र और गांधारी के विषय में प्रश्न किया। उनके इस प्रश्न पर नारद जी बोले - "हे युधिष्ठिर! तुम किसी प्रकार का शोक मत करो। यह सम्पूर्ण विशव परमात्मा के वश में है और वही सब की रक्षा करता है। तुम्हारा यह समझना कि मैं ही उनकी रक्षा करता हूँ, तुम्हारी भूल है। यह संसार नश्वर है तथा जाने वालों के लिये शोक नहीं करना चाहिये। शोक का कारण केवल मोह ही है, इस मोह को त्याग दो। यह पंचभौतिक शरीर नाशवान एवं काल के वश में है। तुम्हारे चाचा धृतराष्ट्र, माता गांधारी एवं विदुर उत्तराखंड में सप्तश्रोत नामक स्थान पर आश्रम बना कर रहते हैं। वे वहाँ तीनों काल स्नान कर के अग्नहोत्र करते हैं और उनके सम्पूर्ण पाप धुल चुके हैं। अब उनकी कामनाएँ भी शान्त हो चुकी हैं। सदा भगवान के ध्यान में रहने के कारण तमोगुणरजोगुणसतोगुण और अहंकार बुद्धि नष्ट हो चुकी है। उन्होंने अपने आप को भगवान में लीन कर दिया है।

"अब मैं तुम्हें बताता हूँ कि वे आज से पाँचवे दिन अपने शरीर को त्याग देंगे। वन में अग्नि लग जाने के कारण वे उसी में भस्म हो जायेंगे। उनकी साध्वी पत्नी गांधारी भी उसी अग्नि में प्रवेश कर जायेंगी। फिर विदुर जी वहाँ से तीर्थयात्रा के लिये चले जायेंगे। अतः तुम उनके विषय में चिंता करना त्याग दो।" इतना कह कर देवर्षि नारद आकाशमार्ग से स्वर्ग के लिये प्रस्थान कर गये। युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद के उपदेश को समझ कर शोक का परित्याग कर दिया।

विदुर नीति:

हिन्दू ग्रंथों में दिये जीवन-जगत के व्यवहार में राजा और प्रजा के दायित्वों की विधिवत नीति की व्याख्या करने वाले महापुरुषों ने महात्मा विदुर सुविख्यात हैं। उनकी विदुर-नीति वास्तव में महाभारत युद्ध से पूर्व युद्ध के परिणाम के प्रति शंकित हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र के साथ उनका संवाद है। विदुर जानते थे, युद्ध विनाशकारी होगा। महाराज धृतराष्ट्र अपने पुत्र (दुर्योधन) मोह में समस्या का कोई सरल समाधान नहीं खोज पा रहे थे। वह अनिर्णय की स्थिति में थे। दुर्योधन अपनी हठ पर अड़ा था। दुर्योधन की हठ-नीति विरुद्ध थी। पाण्डवों ने द्यूत की शर्त के अनुसार बारह वर्ष के बनवास और एक वर्ष की अज्ञातवास अवधि पूर्ण करने का बाद जब अपना राज्य वापिस माँगा तो दुर्योधन के हठ के सम्मुख असहाय एवं पुत्र मोह से ग्रस्त महाराज धृतराष्ट्र के पाण्डवों के दूत कोई निर्णायक उत्तर नहीं दे सके। केवल इतना आश्वस्त किया कि वह सबसे परामर्श करके संजय द्वारा अपना निर्णय प्रेषित कर देंगे। संजय के माध्यम से भेजा गया संदेश भी कोई निर्णायक संदेश नहीं था। उसमें इतना कहा गया था कि वे ऐसा कार्य करें जिससे भरतवंशियों का हित हो और युद्ध न हो।

‘महाभारत’ की कथा के महत्त्वपूर्ण पात्र विदुर कौरव-वंश की गाथा में अपना विशेष स्थान रखते हैं। और विदुर नीति जीवन-युद्ध की नीति ही नहीं, जीवन-प्रेम, जीवन-व्यवहार की नीति के रूप में अपना विशेष स्थान रखती है। राज्य-व्यवस्था, व्यवहार और दिशा निर्देशक सिद्धांत वाक्यों को विस्तार से प्रस्तावना करने वाली नीतियों में जहां चाणक्य नीति का नामोल्लेख होता है, वहां सत्-असत् का स्पष्ट निर्देश और विवेचन की दृष्टि से विदुर-नीति का विशेष महत्त्व है। व्यक्ति वैयक्तिक अपेक्षाओं से जुड़कर अनेक बार नितान्त व्यक्तिगत, एकेंद्रीय और स्वार्थी हो जाता है, वहीं वह वैक्तिक अपेक्षाओं के दायरे से बाहर आकर एक को अनेक के साथ तोड़कर, सत्-असत् का विचार करते हुए समष्टिगत भाव से समाज केंद्रीय या बहुकेंद्रीय होकर परार्थी हो जाता है।

पाण्डवों की सभा में संजय का कथन सुनकर देवकीनन्दन कृष्ण ने सब विधि से सोच-विचार कर अपने धर्म विवेक से इतना कहा—‘‘संधि या युद्ध का निर्णय युधिष्ठिर के हाथों में नहीं, महाराज धृतराष्ट्र के निर्णय के अधीन है। वह इसे परामर्श या चुनौती कुछ भी मान सकते हैं। हमारा आशय परामर्श से है, चुनौती से नहीं।’’ संजय की वापसी जिस समय हुई, दिन ढल चुका था। महाराज धृतराष्ट्र युधिष्ठिर से हुई बातचीत का ब्यौरा जानने के लिए उत्सुक थे। जबकि संजय का मत था कि सारी बातें अगले दिन राज्यसभा में सबके सामने की जाए तो उत्तम होगा। यही सोचकर संजय महाराज धृतराष्ट्र को सांत्वना देकर घर लौट गया।

महाराज धृतराष्ट्र उद्विग्न हो रहे थे। संजय ने कोई बात उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं बताई थी। उनकी चिन्ता का विषय था, युधिष्ठिर का निर्णय। वास्तव में महाराज धृतराष्ट्र अनिश्चय से घिर गए थे। कहना बड़ा कठिन था कि युधिष्ठिर के पास से संजय क्या समाचार लाए हैं? उनके मन का चोर उन्हें व्याकुल किये हुए था। प्रश्न यह था कि—वह अपने मन की दशा किस के सामने प्रकट करें? और अन्ततः इस अनिश्चय और शंका की घड़ी में वह अपने परम आत्मीय विदुर को ही याद करते हैं। विदुर ने द्यूत क्रीड़ा के समय महाराज धृतराष्ट्र को चेताया था कि यदि यह खेल समाप्त नहीं किया गया तो अनर्थ हो जाएगा। हस्तिनापुर विनाश के कगार पर जाने से नहीं बच पाएगा और महाराज भौतिक रूप से नेत्रहीने होते हुए भी देख नहीं पा रहे थे, विदुर के समझाने पर भी नहीं समझ पाए। वह पुत्र मोह-पाश से मुक्त नहीं हो पाए। उन्हें अनुभव हो गया—यह दिन तो आना ही था। महाविनाश की आधारशिला रखी जाने से पूर्व सशंकित धृतराष्ट्र द्वारा विदुर को बुलाकर उनसे विचार-विमर्श करना और विदुर का महाराज धृतराष्ट्र की भूमिका का उल्लेख करते हुए उन्हें उनके दायित्व का बोध कराने के लिए दिया गया नीतिगत उपदेश ही वास्तव में महर्षि वेदव्यास रचित ‘महाभारत’ में उद्योग पर्व में ‘विदुर नीति’ के रूप में वर्णित है। विदुर एक तरह से हस्तिनापुर राज-परिवार का सदस्य होकर ही दासी पुत्र के नाते अधिकार-रूप में कुछ भी कह पाने की दशा में नहीं थे। यह तो राजपरिवार का अनुग्रह और विदुर का तटस्थ सत्य स्थापन, ज्ञान और धर्म में रुचि का प्रभाव था कि सामान्य होकर भी उन्हें विशिष्ट रूप में उन्हें सदैव सम्मान मिला। भीष्म, माता सत्यवती, धृतराष्ट्र अपने जीवनकाल तक पाण्डु, युधिष्ठिर आदि भाई, कृष्ण, गान्धारी, कुन्ती और आचार्य द्रोण, कृपाचार्य आदि सभी उनको यथोचित मान-सम्मान देते थे।


त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष का था, द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष का था। सिद्धान्तो या थ्योरी के बलबूते आज के वैज्ञानिक पुरातत्व का आकलन

त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष का था, द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष का था।

पहले तथय पर आते है, जिस सिद्धान्तो या थ्योरी के बलबूते आज के वैज्ञानिक पुरातत्व का आकलन कर रहे है वो कपोल कल्पनाओ पर आधारित है। हम काल गणना 0 से लेकर चले है। जैसे आज सृष्टि निर्मित हुए 1,96,08,53,121, वर्ष हो चुके है। लेकिन पाश्चात्य वैज्ञानिक भी जाते है। जैसे इन्होने काल गणना ईसा के जन्म से निर्धारित की। लेकिन जब इन्होने देखा कि भारत का इतिहास इससे भी पुराना जा रहा है तब इन्होने AD( anno Domini) ईसा के बाद, BC (Before christ)ईसा पूर्व की कल्पना गढी। भारत मे इतिहासकार अधिकतर वामपंथी है। ये एक ऐसा समूह है जो सनातन की अस्तित्व को मानता ही नही है। विदेशी मार्क्स और लेनिन इनके आदर्श रहे है। ये इतिहासकार सुनी सुनाई बाते लिखते रहे है कभी कुछ धरातल पर उतरकर नही लिखा। लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने साख्ष्य मांगे तब इस पाश्चात्य एवं वामपंथियो द्वारा समर्थित इतिहास की पोल पट्टी खुली।

आज से 5550 वर्ष पूर्व तो महाभारत का ही युद्ध हुआ था। जो की द्वापरयुग के अंत मे हुआ था। जबकि रामायण त्रेतायुग मे हुई थी।

पहले मै रामायण के काल पर आता हूँ। देखिये रामायण का काल वैवस्वत, मन्वंतर के 28 वी चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार ये सृष्टि 14 मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर मे 71 चतुर्युगी होती है। 1 चतुर्युगी मे 4 युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। अब तक 6 मन्वंतर बीत चुके है 7 वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।

देखिये बंधु, सतयुग 17,28,000 वर्षो का एक काल है, इसी प्रकार त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष, द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष एवं कलियुग 4,32,000 वर्ष का है। वर्तमान मे 28 वी चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है। अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच द्वापरयुग है। जो कि उपरोक्त 8,64,000 वर्ष का है। अब आगे आते है कलियुग के लगभग 5200 वर्ष बीत चुके है। ऐसा मानना था महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी का। उनके अनुसार

असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:

षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:

जिस समय युधिष्ठिर राज्य करते थे उस समय सप्तऋषि मघा नक्षत्र मे थे। वैदिक गणित मे 27 नक्षत्र होते है और सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे 100 वर्ष तक रहते है।ये चक्र चलता रहता है। राषा युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियो ने 27 चक्र पूर्ण कर लिये थे उसके बाद आज तक 24 चक्र और हुए कुल मिलाकर 51 चक्र हो चुके है सप्तऋषि तारा मंडल के। अत: कुल वर्ष व्यतीत हुए 51×100= 5100 वर्ष। राजा युधिष्ठिर लगभग 38 वर्ष शासन किये थे। तथा उसके कुछ समय बाद कलियुग का आरम्भ हुआ अत: मानकर चलते है कि कलियुग के कुल 5155 वर्ष बीत चुके है।

इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक कुल 8,64,000+5155=8,69,155 वर्ष।

श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत मे। इस प्रकार कम से कम 9 लाख वर्ष के आस पास श्रीराम और रामायण का काल आता है।

अब तथ्य पर आते है।

रामायण सुन्दरकांड सर्ग 5, श्लोक 12 मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते है-

वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे

भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||

अर्थात् जब हनुमान जी वन मे श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते है तब वो सफेद रंग 4 दांतो नाले हाथी को देखते है। ये हाथी के जीवाश्म सन 1870 मे मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग 10 लाख से 50 लाख के आसपास निकलती है।

वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इस से रामायण के लगभग 10 लाख साल के आस पास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण भी उपलब्ध होता है।

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...