Sunday, July 17, 2022

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है।

        महाभारत के युद्ध भूमि पर जब अर्जुन स्वजनों के मोह के कारण युद्ध करने से मना करते हैं तब श्रीकृष्ण उन्हें जो उपदेश देते हैं, उसे गीता नाम से संकलित किया जाता है। 


       गीता ‘ब्रह्म विद्या’ के अंतर्गत आती है। कहते हैं कि श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) के समय काल की गति रुक गई थी और युद्ध भूमि में उपस्थित अन्य सभी जनों से यह गुप्त रही।भगवान ने कहा है कि गीता अत्यंत गुप्त विद्या है।  

“इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया। (गीता १८/६३)” 

अर्थात, इस प्रकार समस्त गोपनीयों से अधिक गुह्य ज्ञान मैंने तुमसे कहा।

 

अब प्रश्न यह है कि इस श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

क्रम से प्रारंभ करते हैं -

१. अर्जुन : अर्जुन प्रत्यक्ष श्रोता थे, भगवान के मुखारबिन्दु से उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से गीता ज्ञान का श्रवण किया, इसमें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।

२. संजय : भगवान वेदव्यास की कृपा से संजय ने युद्धभूमि में जो कुछ भी हुआ उसे देखा और सुना, यहां तक कि उन्होंने भगवान के विराट रूप के दर्शन भी किये।

 प्रमाण :

 एष ते संजयो राजन्युद्धमेतद्वदिष्यति। 

एतस्य सर्वं संग्रामे न परोक्षं भविष्यति ॥

 - महाभारत, भीष्मपर्व २/९

 राजन! यह संजय आपको इस युद्ध का सब समाचार बताया करेगा। 

सम्पूर्ण संग्राम भूमि में कोई भी ऐसी बात नहीं होगी, जो इसके प्रत्यक्ष न हो।


प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा दिवा वा यदि वा निशि। 

मनसा चिन्तितमपि सर्वं वेत्स्यति संजयः ॥ 

- महाभारत, भीष्मपर्व २/११

कोई भी बात प्रकट हो या अप्रकट, दिन में हो या रात में अथवा मन में ही क्यों न सोची गई हो, 

संजय सब कुछ जान लेगा।


इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।

संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।। 

- गीता १८/७४

सञ्जय बोले - इस प्रकार मैंने भगवान वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुन का यह रोमाञ्चित करने वाला अद्भुत संवाद सुना।


व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।। 

- गीता १८/७५

व्यास जी की कृपा से मैंने इस परम् गुह्य योग को साक्षात् कहते हुए स्वयं योगोश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना।


तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।

विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।। 

- गीता १८/७७

हे राजन ! श्री हरि के अति अद्भुत रूप को भी पुन: पुन: स्मरण करके मुझे महान् विस्मय होता है और मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ।


३. हनुमानजी : महाभारत, उद्योगपर्व के ५६ वें अध्याय के ९ वें श्लोक के अनुसार -

भीमसेनानुरोधायक हनूमान्मारुतात्मजः।

आत्मप्रतिकृतिं तस्मिन्ध्वज आरोपयिष्यति ॥ 

- महाभारत, उद्योगपर्व ५६/९

भीमसेन के अनुरोध की रक्षा के लिये पवन नंदन हनुमानजी उस ध्‍वज में युद्ध के समय अपने स्‍वरूप को स्‍थापित किया था। और वे उस समय रथ की ध्वजा पर विराजमान थे। रूद्रावतार हनुमानजी को दिव्य दृष्टि की तो आवश्यकता भी न थी, अतः उन्होंने श्रीकृष्णार्जुन संवाद को अवश्य ही सुना होगा, इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए।


४. बर्बरीक : बर्बरीक भीष्म पुत्र घटोत्कच के पुत्र थे, यद्यपि बर्बरीक का उल्लेख वेदव्यास कृत महाभारत में तो नहीं मिलता किन्तु ‘खाटू श्याम’ के रूप में पूजित होने के कारण इनका चरित्र जानने योग्य है।

बर्बरीक की कथा स्कन्द पुराण के कुमारिका खण्ड के अंतिम अध्याय में मिलती है।





स्वयं भगवान श्रीकृष्ण से आशीर्वाद मिलने के कारण बर्बरीक ने सम्पूर्ण महाभारत युद्ध को अपनी आँखों से देखा था और भगवान के आशीर्वाद के कारण ही वे आज भी पूजित हैं।

अतः श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को अर्जुन, संजय, हनुमानजी और बर्बरीक ने सुना था। किन्तु केवल सुना था,गीता ज्ञान को पुनः ज्यों का त्यों स्वयं भगवान श्री कृष्ण भी कहने में असमर्थ थे।

आश्वमेधिकपर्व के अंतर्गत अनुगीता उपपर्व में अर्जुन ने गीता ज्ञान को भूल जाने के कारण जब भगवान से पुनः कहने को कहा, तब भगवान ने क्रोधित होकर कहा :


श्रावितस्त्वं मया गुह्यं ज्ञापितश्च सनातनम्।

धर्मं स्वरूपिणं पार्त सर्वलोकांश्च शाश्वतान्॥


अबुद्ध्या यन्न गृह्णीतास्तन्मे सुमहदप्रियम्।

न च साऽद्य पुनर्भूयः स्मृतिर्मे सम्भविष्यति॥ 

- महाभारत, आश्वमेधिकपर्व १६/९-१०

भगवान बोले- अर्जुन! उस समय मैंने तुम्हें अत्यंत गोपनीय ज्ञान का श्रवण कराया था, अपने स्वरूपभूत धर्म-सनातन पुरुषोत्तम तत्व का परिचय दिया था और सम्पूर्ण नित्य लोकों का भी वर्णन किया था; किन्तु तुमने जो अपनी नासमझी के कारण उस उपदेश को याद नहीं रखा, यह मुझे बहुत अप्रिय है। उन बातों का अब पूरा – पूरा स्मरण होना संभव नहीं जान पड़ता।

न च शक्यं पुनर्वक्तुमशेषेण धनंजय॥

स हि धर्मः सुपर्याप्तो ब्रह्मणः पदवेदने। 

न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः॥ 

- महाभारत, आश्वमेधिकपर्व १६/११-१२

अब मैं उस उपदेश को ज्यों का त्यों नहीं कह सकता। क्योंकि वह धर्म ब्रह्मपद की प्राप्ति कराने के लिए पर्याप्त था, वह सारा का सारा धर्म उसी रूप में फिर दुहरा देना अब मेरे वश की भी बात नहीं है।

यह थे कुछ महानुभाव जिन्हो ने गीता का ज्ञान सुना था।


Thursday, November 4, 2021

जानिए दीपावली कब से शुरू हुई और उन दिनों में क्या करना चाहिए?

🏹🚩सनातन धर्म संस्कृति🚩🏹
जानिए दीपावली कब से शुरू हुई और उन दिनों में क्या करना चाहिए?
दीपावली शब्द दीप एवं आवली की संधि से बना है । आवली अर्थात पंक्ति । इस प्रकार दीपावली का शाब्दिक अर्थ है, दीपों की पंक्ति । दीपावली के समय सर्वत्र दीप जलाए जाते हैं, इसलिए इस त्यौहार का नाम दीपावली है । 

भारतवर्ष में मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक एवं धार्मिक इन दोनों दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्व है । इसे दीपोत्सव भी कहते हैं । ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय ।’ अर्थात अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदों की आज्ञा है । अपने घर में सदैव लक्ष्मी का वास रहे, ज्ञान का प्रकाश रहे, इसलिए सभी अत्यंत हर्षोउल्लास से दीपावली मनाते हैं । 

प्रभु श्रीराम चौदह वर्ष का वनवास समाप्त कर अयोध्या लौटे, उस समय प्रजा ने दीपोत्सव मनाया । तब से प्रारंभ हुई दीपावली ।श्रीकृष्ण ने आसुरी वृत्ति के नरकासुर का वध कर जनता को भोगवृत्ति, लालसा, अनाचार एवं दुष्टप्रवृत्ति से मुक्त किया एवं प्रभुविचार (दैवी विचार) देकर सुखी किया, यह वही ‘दीपावली’ है । हम अनेक वर्षों से एक रूढ़ि के रूप में ही दीपावली मना रहे हैं ।

🚩दीपावली दृश्यपट:-

🚩1. दीपावली का इतिहास:-
बलिराजा अत्यंत दानवीर थे । द्वार पर पधारे अतिथि को उनसे मुंहमांगा दान मिलता था । दान देना गुण है; परंतु गुणों का अतिरेक दोष ही सिद्ध होता है । किसे क्या, कब और कहां दें, 
इसका निश्चित विचार शास्त्रों में एवं गीता में बताया गया है । सत्पात्र को दान देना चाहिए, अपात्र को नहीं । अपात्र मानवों के हाथ संपत्ति लगने पर वे मदोन्मत्त होकर मनमानी करने लगते हैं ।

बलि राजा से कोई, कभी भी, कुछ भी मांगता, उसे वह देते। 
तब भगवान श्रीविष्णु ने ब्रह्मचारी बालक का (वामन) अवतार लिया । ‘वामन’ अर्थात छोटा । ब्रह्मचारी बालक छोटा होता है और वह ‘ॐ भवति भिक्षां देही ।’ अर्थात ‘भिक्षा दो’ ऐसा कहता है । विष्णु ने वामन अवतार लिया एवं बलिराजा के पास जाकर भिक्षा मांगी । 

बलिराजा ने पूछा, ‘‘क्या चाहिए ?’’ तब वामन ने त्रिपाद भूमिदान मांगा । ‘वामन कौन है एवं इस दान से क्या होगा’, इसका ज्ञान न होने के कारण बलिराजा ने इस वामन को त्रिपाद भूमि दान कर दी । इसके साथ ही वामन ने विराट रूप धारण कर एक पैर से समस्त पृथ्वी नाप ली, दूसरे पैरसे अंतरिक्ष एवं फिर बलिराजा से पूछा ‘‘तीसरा पैर कहां रखूं ?’’ उसने उत्तर दिया ‘‘तीसरा पैर मेरे मस्तक पर रखें’’ । तब तीसरा पैर उसके मस्तक पर रख, उसे पाताल में भेजने का निश्चय कर वामन ने बलिराजासे कहा, ‘‘तुम्हें कोई वर मांगना हो, तो मांगो (वरं ब्रूहि) ।’’बलिराजा ने वर मांगा कि ‘अब पृथ्वी पर मेरा समस्त राज्य समाप्त होनेको है एवं आप मुझे पाताल में भेजनेवाले हैं, ऐसे में तीन कदमों के इस प्रसंग के प्रतीकरूप पृथ्वी पर प्रतिवर्ष कम से कम तीन दिन मेरे राज्य के रूप में माने जाएं । 

प्रभु, 
यमप्रीत्यर्थ दीपदान करनेवालेको यमयातनाएं न हों । 
उसे अपमृत्यु न आए । 
उसके घर पर सदा लक्ष्मीका वास हो । 
यह फल इस तीन दीन प्राप्त हो यह वर प्राप्त हुआ,
ये तीन दिन अर्थात कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी, अमावस्या एवं कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा । इसे ‘बलिराज्य’ कहा जाता है ।

🚩2. दीपावली कब मनाई जाती है ?
दीपावली पर्व के अंतर्गत आनेवाले महत्त्वपूर्ण दिन हैं, 
कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी (धनत्रयोदशी / धनतेरस), 
कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी (नरकचतुर्दशी), 
अमावस्या (लक्ष्मीपूजन) एवं कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा (बलिप्रतिपदा) ये तीन दिन दीपावली के विशेष उत्सव के रूप में मनाए जाते हैं । 

कुछ लोग त्रयोदशी को दीपावली में सम्मिलित न कर, शेष तीन दिनों की ही दीवाली मनाते हैं । वसुबारस अर्थात गोवत्स द्वादशी, धनत्रयोदशी अर्थात धनतेरस तथा भाईदूज अर्थात यमद्वितीया, ये दिन दीपावली के साथ ही आते हैं। इसलिए, भले ही ये त्यौहार भिन्न हों, फिर भी इनका समावेश दीपावली में ही किया जाता है । इन दिनों को दीपावली का एक अंग माना जाता है । कुछ प्रदेशों में वसुबारस अर्थात गोवत्स द्वादशी को ही दीपावली का आरंभदिन मानते है ।

दीपावली आने से पूर्व ही लोग अपने घर-द्वार की स्वच्छता पर ध्यान देते हैं । घर का कूड़ा-करकट साफ करते हैं । घर में टूटी-फूटी वस्तुओं को ठीक करवाकर घर की रंगाई करवाते हैं । इससे उस स्थान की न केवल आयु बढ़ती है, आकर्षण भी बढ़ जाता है।
वर्षाऋतु में फैली अस्वच्छता का भी परिमार्जन हो जाता है । स्वच्छता के साथ ही घर के सभी सदस्य नए कपड़े सिलवाते हैं । विविध मिठाइयां भी बनायी जाती है । ब्रह्मपुराण में लिखा है कि दीपावली को श्री लक्ष्मी सदगृहस्थों के घर में विचरण करती।
घर को सब प्रकार से स्वच्छ, शुद्ध एवं सुशोभित कर दीपावली मनानेसे श्री लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं तथा वहां स्थायीरूप से निवास करती हैं ।

🚩3. दीपावली में बनाई जानेवाली विशेष रंगोलियां:
दीपावली के पूर्वायोजन का ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है, रंगोली । 
दीपावली के शुभ पर्व पर विशेष रूप से रंगोली बनाने की प्रथा है । रंगोली के दो उद्देश्य हैं – सौंदर्य का साक्षात्कार एवं मंगल की सिद्धि । रंगोली देवताओं के स्वागतका प्रतीक है । रंगोली से सजाए आंगन को देखकर देवता प्रसन्न होते हैं । 
इसी कारण दिवाली में प्रतिदिन देवताओं के तत्त्व आकर्षित करने वाली रंगोलियां बनानी चाहिए तथा उस माध्यम से देवतातत्त्व का लाभ प्राप्त करना चाहिए ।

🚩4. तेल के दीप जलाना:-
रंगोली बनाने के साथ ही दीपावली में प्रतिदिन किए जानेवाला यह एक महत्त्वपूर्ण कृत्य है । दीपावली में प्रतिदिन सायंकाल में देवता एवं तुलसी के समक्ष, साथ ही द्वार पर एवं आंगन में विविध स्थानों पर तेल के दीप लगाए जाते हैं । यह भी देवता तथा अतिथियों का स्वागत करने का प्रतीक है । 

आज-कल तेल के दीप के स्थान पर मोम के दीप लगाए जाते हैं अथवा कुछ स्थानों पर बिजली के दीप भी लगाते हैं । परंतु शास्त्र के अनुसार तेल के दीप लगाना ही उचित एवं लाभदायक है । 

तेल का दीप एक मीटर तक की सात्त्विक तरंगें खींच सकता है । इसके विपरीत मोम का दीप केवल रज-तमकणों का प्रक्षेपण करता है, जबकि बिजली का दीप वृत्ति को बहिर्मुख बनाता है । 
इसलिए दीपों की संख्या अल्प ही क्यों न हो, तो भी तेल के दीप की ही पंक्ति लगाएं ।

🚩5. आकाश दीप अथवा आकाश कंडील:-
विशिष्ट प्रकारके रंगीन कागज, थर्माकोल इत्यादिकी विविध कलाकृतियां बनाकर उनमें बिजली के दिये लगाए जाते हैं, उसे आकाशदीप अथवा आकाशकंदील कहते हैं ।
आकाशदीप सुशोभन का ही एक भाग है ।

🚩6. दीपावली पर्व पर बच्चों द्वारा बनाए जानेवाले घरौंदे एवं किले:-
दीपावली के अवसर पर दक्षिण भारत के कुछ स्थानों पर बच्चे आंगन में मिट्टी का घरौंदा बनाते हैं, जिसे कहीं पर ‘हटरी’, तो कहीं पर ‘घरकुंडा’के नाम से जानते हैं । दीप से सजाकर, इसमें खीलें, बताशे, मिठाइयां एवं मिट्टी के खिलौने रखते हैं । महाराष्ट्र में बच्चे किला बनाते हैं तथा उसपर छत्रपति शिवाजी महाराज एवं उनके सैनिकों के चित्र रखते हैं । इस प्रकार त्यौहारों के माध्यमसे पराक्रम तथा धर्माभिमान की वृद्धि कर बच्चों में राष्ट्र एवं धर्म के प्रति कुछ नवनिर्माण की वृत्ति का पोषण किया जाता है ।

🚩7. दीपावली शुभसंदेश देनेवाले दीपावली के शुभेच्छापत्र:-

दीपावली के मंगल पर्व पर लोग अपने सगे-संबंधियों एवं शुभचिंतकों को, आनंदमय दीपावली की शुभकामनाएं देते हैं । इसके लिए वे शुभकामना पत्र भेजते हैं तथा कुछ लोग उपहार भी देते हैं । ये साधन जितने सात्त्विक होंगे, देनेवाले एवं प्राप्त करनेवाले को उतना ही अधिक लाभ होगा । शुभकामना पत्रों के संदेश एवं उपहार, यदि धर्मशिक्षा, धर्मजागृति एवं धर्माचरणसे संबंधित हों, तो प्राप्त करनेवाले को इस दिशा में कुछ करने की प्रेरणा भी मिलती।
हिंदू जनजागृति समिति एवं सनातन संस्था द्वारा इस प्रकार के शुभेच्छापत्र बनाए जाते हैं ।

🚩संदर्भ : सनातनका ग्रंथ, ‘त्यौहार मनाने की उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र’ एवं अन्य ग्रंथ

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Monday, September 13, 2021

भगवान श्री गणेश ओर तुलसी संक्षिप्त कथा

पौराणिक काल की बात है | भगवान श्री गणेश गंगा के तट पर भगवान विष्णु के ध्यान में मग्न थे | गले में सुन्दर माला , शरीर पर चन्दन लिपटा हुआ था और वे रत्न जडित सिंहासन पर विराजित थे | उनके मुख पर करोडों सूर्यों का तेज चमक रहा था | इस तेज को धर्मात्मज की युवा कन्या तुलसी ने देखा और वे पूरी तरह गणेश जी पर मोहित हो गयी | तुलसी स्वयं भी भगवान विष्णु की परम भक्त थी| उन्हें लगा की यह मोहित करने वाले दर्शन हरि की इच्छा से ही हुए हैं | उसने गणेश से विवाह करने की इच्छा प्रकट की।
भगवान गणेश ने कहा कि वह ब्रम्हचर्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं और विवाह के बारे में अभी बिलकुल नहीं सोच सकते | विवाह करने से उनके जीवन में ध्यान और तप में कमी आ सकती है | इस तरह सीधे सीधे शब्दों में गणेश ने तुलसी के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया |

धर्मात्मज पुत्री तुलसी यह सहन नही कर सकी और उन्होंने क्रोध में आकर उमापुत्र गजानंद को श्राप दे दिया की उनकी शादी तो जरुर होगी और वो भी उनकी इच्छा के विरुद्ध ।

ऐसे वचन सुनकर गणेशजी भी क्रोधित हो उठे।गणेश जी ने उन्हें श्राप दे दिया कि तेरा विवाह एक असुर शंखचूड़ जलंधर से होगा। 

राक्षस से विवाह का श्राप सुनकर तुलसी विलाप करने लगी और गणेश जी से माफी मागी। दया के सागर भगवान गणेश ने उन्हें माफ कर दिया पर कहा कि मैं श्राप वापस तो नहीं ले सकता पर मैं तुम्हें एक वरदान देता हूँ।

इसके बाद गणेश जी ने कहा कि वह भगवान विष्णु और कृष्ण  प्रिय रहेगी और कलयुग में भी जीवन और मोक्ष देने का काम करेंगी लेकिन मेरी पूजा में तुम्हारा भोग कभी नहीं लगेगा। इसके बाद तुलसी जी का भोग कभी भी गणेश जी को नहीं लगाया जाता है। 
गणेश जी ने तुलसी को कहा कि दैत्य के साथ विवाह होने के बाद भी तुम विष्णु की प्रिय रहोगी और एक पवित्र पौधे के रूप में पूजी जाओगी। तुम्हारे पत्ते विष्णु के पूजन को पूर्ण करेंगे। चरणामृत में तुम हमेशा साथ रहोगी । मरने वाला यदि अंतिम समय में तुम्हारे पत्ते मुंह में डाल लेगा तो उसे वैकुण्ठ प्राप्त होगा। 

आगे गणेश जी का दिया श्राप पूरा होने लगा। शंखचूड़ नाम के राक्षस की शादी व़ृंदा नाम की युवती से हुई जो असल में  तुलसी थीं। वह पूरे संसार पर राज करना चाहता था।

वृंदा के पति का देवताओं ने कई बार वध करने का प्रयास किया लेकिन तुलसी के सतीत्व की वजह से ऐसा संभव नहीं हो पा रहा था।
इस समस्या से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान विष्णु के पास पहुंचे।उन्होंने समस्या का हल मांगा।भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रुप धारण किया और वृंदा के पास पहुंचे। 
अपने पति को देख उसने विष्णु के पैर छू लिए। वृंदा का सतीत्व भंग हो गया। देवताओं ने शंखचूड़ का वध कर दिया। अपने आपको छला मानकर उसने विष्णु जी को पत्थर बनजाने का श्राप दिया। लक्ष्मी मां को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने तुलसी को श्राप वापस लेने को कहा।

तुलसी ने अपना श्राप वापस ले लिया और अपने पति के साथ सति हो गई। भगवान विष्णु को पश्चाताप हुआ। उन्होंने खुद को पहले जैसे एक पत्थर के रुप में बनाया और शालिग्राम नाम दिया।साथ ही कहा कि आज से उन्हें जब भी भोग लगेगा तो वह तुलसी के साथ ही लगेगा। 
इसके बाद से भगवान विष्णु की पूजा में हमेशा से तुलसी का उपयोग होने लगा। साथ ही रविवार भगवान विष्णु का प्रिय दिन होता है इसलिए इस दिन तुलसी का पत्ता नहीं तोड़ा जाता।

Saturday, June 19, 2021

कल्कि अवतार का वर्णन

कल्कि अवतार का वर्णन 
युधिष्ठिर द्वारा मार्कण्डेय से पूछने पर मार्कण्डेय युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव के बारे में युधिष्ठिर को बताते हैं और तब कल्कि अवतार का वर्णन के बारे में बताया गया।

जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 190 में बताया गया है

मार्कण्डेय कहते हैं- युधिष्ठिर युगान्तकाल आने पर सब ओर आग जल उठेगी। उस समय पापीयों को मांगने पर कहीं अन्न, जल या ठहरने के लिये स्थान नहीं मिलेगा। वे सब ओर से कड़वा जवाब पाकर निराश हो सड़कों पर ही सोए रहेंगे। युगान्तकाल उपस्थित होने पर बिजली की कड़क के समान कड़वी बोली बोलने वाले कौवे, हाथी, शकुन, पशु और पक्षी आदि बड़ी कठोर वाणी बोलेंगे। उस समय के मनुष्य अपने मित्रों, सम्बन्धियों, सेवकों तथा कुटुम्बीजनों की भी अकारण त्याग देंगे।

प्रायः लोग स्वदेश छोड़कर दूसरे देशों, दिशाओं, नगरों और गांवों का आश्रय लेंगे और हे तात! हे पुत्र! इत्यादि रूप से अत्यन्त दुःखद वाणी में एक-दूसरे को पुकारते हुए इस पृथ्वी पर विचरेंगे। युगान्तकाल में संसारकी यही दशा होगी। उस समय एक ही साथ समस्त लोकों का भयंकर संहार होगा। तदन्तर कालान्तर में सत्ययुग का आरम्भ होगा और फिर क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्ण प्रकट होकर अपने प्रभाव का विस्तार करेंगे। उस समय लोक के अभ्युदय के लिये पुनः अनायास दैव अनुकूल होगा।

कल्कि अवतार का वर्णन

जब सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति एक साथ पुष्य नक्षत्र एवं तदनुरूप एक राशि कर्क में पदार्पण करेंगे, तब सत्ययुग का प्रारम्भ होगा। उस समय मेघ समय पर वर्षा करेगा। नक्षत्र शुभ एवं तेजस्वी हो जायेंगे। ग्रह प्रदक्षिणाभाव से अनुकूल गति का आश्रय ले अपने पथ पर अग्रेसर मैं होगा विष्णुयशा कल्कि। वह महान बुद्धि एवं पराक्रम से सम्पन्न महात्मा, सदाचारी तथा प्रजावर्ग का हितैषी होगा। मन के द्वारा चिन्तन करते ही उसके पास इच्छानुसार वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और कवच उपस्थित हो जायंगे। वह धर्म-विजयी चक्रवर्ती राजा होगा। वह उदारबुद्धि, तेजस्वी ब्राह्मण, दुःख से व्याप्त हुए इस जगत को आनन्द प्रदान करेगा। कलियुग का अन्त करने के लिये ही उसका प्रभाव होगा। वही सम्पूर्ण कलियुग का संहार करके नूतन सत्ययुग का प्रवर्तक होगा। वह ब्राह्मणों से घिरा हुआ सर्वत्र विचरेगा और भूमण्डल में सर्वत्र फैले हुए नीच स्वभाव वाले सम्पूर्ण म्लेच्छों का संहार कर ड़ालेगा।

ईश्वर का जन्म उत्तर प्रदेश के सम्भल मैं ब्राह्मण परिवार मै होगा

Monday, December 28, 2020

दर्शन शास्त्र

हमारे ऋषि-मुनियों ने "निधि ध्यासन" की प्रक्रिया में बहुत सी ऐसी बातें देखीं, अनुभव करीं और उनका साक्षात्कार किया। वो सोचीं नहीं, विचार नहीं किया, संशोधन नहीं किया; उन्होंने साक्षात्कार किया। 

साक्षात्कार होने के बाद कुछ रहस्य ऐसे पता चले जो हम इन्द्रियों के द्वारा नहीं जान सकते वह, जिसका अनुभव इन्द्रियों रूपी साधन द्वारा नहीं हो सकता, उन्हें इन्द्रियातीत कहते हैं। ऐसे ही कुछ इन्द्रियातीत अनुभव ऋषि-मुनियों को हुए। वह पता चला जो सृष्टि के पार है।

इसीलिए तो ‘रिष’ धातु से ऋषि शब्द बना – 
ऋषति संसारस्य पारं दर्शयति, इति ऋषि:। 
ऋषि का अर्थ है, जो संसार से पर की बात बता सके, जो संसार के पार की बात को जान लेते हैं।

अतः निधि ध्यासन की प्रक्रिया में, ऋषि मुनियों के मन में प्रश्न उठे। प्रश्न उठने के पश्चात उन्होंने साधना करी। साधना के पश्चात उसके उत्तर मिले। उन्होंने इन्द्रियातीत अनुभवों से अपने मन में उठे प्रश्नों के उत्तर को जाना – ये शरीर कैसे चलता है ; मन कहाँ से आया है ; कौन प्राण को भेजता है ; मरने के बाद क्या होता है ; आत्मा कहाँ चला जाता है और क्या-क्या जाता है ; सृष्टि कहाँ से उत्पन्न हुई ; क्यों उत्पन्न हुई ; ये सब क्यों हुआ ; मैं संसार में क्यों आया ; मुझे कौन चला रहा है ; मैं कहाँ जाऊँगा ; मैं क्या कर रहा हूँ ; यह सब क्या है ;ये सभी रचना और इसकी विधि क्या है?

वह उत्तर अनुभूति के स्तर पर मिले, शब्द के स्तर पर नहीं! उन्होंने उन उत्तरों को देखा और उसको कहा – दर्शन! 

उसके ऊपर शास्त्र लिखे गये। विभिन्न ऋषियों ने विभिन्न शास्त्र लिखे। मनुष्य के लिए साधना के कई मार्ग हैं, प्राप्तव्य एक है।

इसे एक उदाहरण से समझते हैं : गणित में दो और दो चार होते हैं, एक और तीन भी चार होते हैं तथा आठ में से चार जाएँ, तो भी चार होते हैं। चार तक पहुँचना महत्वपूर्ण है और चार तक बहुत तरह से पहुँचा जा सकता है।

ऐसी ही यदि 100 की संख्या पर पहुँचना हो तो कई मार्ग हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि केवल कोई एक मार्ग ही सही है। ऐसा नहीं है कि केवल दो और दो चार ही उचित है अथवा शुद्ध है, तीन और एक नहीं। यदि कोई ऐसा कहता है तो कहने वाला गणितज्ञ नहीं हो सकता!

ऐसे ही मुक्ति का यही एक मार्ग है और कोई मार्ग नहीं हो सकता, ऐसा कहने वाला ज्ञानी नहीं है। 

ऋषि-मुनियों ने जाना कि परमात्मा की ओर जाने वाले कितने मार्ग हैं और भटकाने वाले कितने मार्ग  हैं। परमात्मा तक ले जाने वाले मार्गों की पूरी प्रक्रिया दी। 

सृष्टि का उद्भव कैसे हुआ।हम कहाँ से आये; जन्म कैसे होता है; जन्म के समय पर गर्भ में हम कैसे आ जाते हैं; वहीं क्यों आते हैं; पूर्व जन्म कैसे होता है; पुनर्जन्म कैसे होता है – ऐसी बहुत सारी बातें लिखीं और उनका नाम बताया गया दर्शन शास्त्र!

हमारे ऐसे छह दर्शन मुख्य हैं:
(1)न्याय, 
(2) वैशेषिक, 
(3) सांख्य, 
(4) योग, 
(5) पूर्व मीमांसा (मीमांसा शास्त्र) तथा 
(6) उत्तर मीमांसा (वेदांत)।

इन छह दर्शनों के शास्त्र भिन्न ऋषियों ने लिखे हैं। वेदों को आधार मानकर, वेदों के वाक्यों को आधार मानकर लिखे गये ये छह दर्शन वैदिक दर्शन कहलाते हैं।

Tuesday, August 25, 2020

श्री कृष्ण और 16 कलाएं

भगवान विष्णु ने जितने भी अवतार लिए सभी में कुछ न कुछ खासियत थीं और वे खासियत उनकी कला ही थी।
भगवान विष्णु के सभी अवतारों में भगवान श्री कृष्ण श्रेष्ठ अवतार थे क्योंकि उन्होंने गुरु सांदीपनि से इन सभी 16 कलाओं को सीखा था।

क्या होती हैं कलाएं?
भगवान श्रीकृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार माने जाते हैं। श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरुष थे। कृष्ण का गीता- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। आइए जानें भगवान श्रीकृष्ण किन 16 कलाओं में थे निपुण.
1 श्री-धन संपदा
प्रथम कला के रूप में धन संपदा को स्थान दिया गया है। जिस व्यक्ति के पास अपार धन हो और वह आत्मिक रूप से भी धनवान हो। जिसके घर से कोई भी खाली हाथ नहीं जाए वह प्रथम कला से संपन्न माना जाता है। यह कला भगवान श्री कृष्ण में मौजूद है।

2 भू-अचल संपत्ति
जिस व्यक्ति के पास पृथ्वी का राज भोगने की क्षमता है। पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग पर जिसका अधिकार है और उस क्षेत्र में रहने वाले जिसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करते हैं वह अचल संपत्ति का मालिक होता है। भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योग्यता से द्वारिका पुरी को बसाया। 

3 कीर्ति-यश प्रसिद्धि
जिसके मान-सम्मान व यश की कीर्ति से चारों दिशाओं में गूंजती हो। लोग जिसके प्रति स्वत: ही श्रद्घा व विश्वास रखते हों वह तीसरी कला से संपन्न होता है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद है। लोग सहर्ष श्री कृष्ण की जयकार करते हैं।

4 इला-वाणी की सम्मोहकता
चौथी कला का नाम इला हैअर्थ है मोहक वाणी। पुराणों में भी ये उल्लेख मिलता है कि श्री कृष्ण की वाणी सुनकर क्रोधी व्यक्ति भी अपना सुध-बुध खोकर शांत हो जाता था। यशोदा मैया के पास शिकायत करने वाली गोपियां भी कृष्ण वाणी सुनकर शिकायत भूलकर तारीफ करनेलगती थी।

5 लीला- आनंद उत्सव
पांचवीं कला का नाम है लीला। इसका अर्थ है आनंद। भगवान श्री कृष्ण धरती पर लीलाधर के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि इनकी बाल लीलाओं से लेकर जीवन की घटना रोचक और मोहक है। इनकी लीला कथाओं सुनकर कामी व्यक्ति भी भावुक और विरक्त होने लगता है।

6 कांति- सौदर्य और आभा
जिनके रूप को देखकर मन स्वत: ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है। जिसके मुखमंडल को देखकर बार-बार छवि निहारने का मन करता है वह छठी कला से संपन्न माना जाता है। भगवान राम में यह कला मौजूद थी। कृष्ण भी इस कला से संपन्न थे। 
कृष्ण की इस कला के कारण पूरा ब्रज मंडल कृष्ण को मोहिनी छवि को देखकर हर्षित होता था। गोपियां कृष्ण को देखकर काम पीडि़त हो जाती थीं और पति रूप में पाने की कामना करने लगती थीं।

7 विद्या- मेधा बुद्धि
सातवीं कला का नाम विद्या है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद थी। कृष्ण वेद, वेदांग के साथ ही युद्घ और संगीत कला में पारंगत थे। राजनीति एवं कूटनीति भी कृष्ण सिद्घहस्त थे।

8 विमला-पारदर्शिता
जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं हो वह आठवीं कला युक्त माना जाता है। महारास के समय भगवान ने अपनी इसी कला का प्रदर्शन किया था। इन्होंने राधा और गोपियों के बीच कोई फर्क नहीं समझा। सभी के साथ सम भाव से नृत्य करते हुए सबको आनंद प्रदान किया था।

9 उत्कर्षिणि-प्रेरणा और नियोजन
महाभारत के युद्घ के समय श्री कृष्ण ने नौवी कला का परिचय देते हुए युद्घ से विमुख अर्जुन को युद्घ के लिए प्रेरित किया और अधर्म पर धर्म की विजय पताका लहराई। नौवीं कला के रूप में प्रेरणा को स्थान दिया गया है। 

10 ज्ञान-नीर क्षीर विवेक
भगवान श्री कृष्ण ने जीवन में कई बार विवेक का परिचय देते हुए समाज को नई दिशा प्रदान की जो दसवीं कला का उदाहरण है। गोवर्धन पर्वत की पूजा हो अथवा महाभारत युद्घ टालने के लिए दुर्योधन से पांच गांव मांगना यह कृष्ण के उच्च स्तर के विवेक का परिचय है।

11 क्रिया-कर्मण्यता
जिनकी इच्छा मात्र से दुनिया का हर काम हो सकता है वह कृष्ण सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करते हैं और लोगों को कर्म की प्रेरणा देते हैं। महाभारत युद्घ में कृष्ण ने भले ही हाथों में हथियार लेकर युद्घ नहीं किया लेकिन अर्जुन के सारथी बनकर युद्घ का संचालन किया।

12 योग-चित्तलय
जिनका मन केन्द्रित है, अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है वह बारहवीं कला से संपन्न श्री कृष्ण हैं। इसलिए श्री कृष्ण योगेश्वर भी कहलाते हैं। कृष्ण उच्च कोटि के योगी थे। अपने योग बल से ब्रह्मास्त्र के प्रहार से माता के गर्भ में पल रहे परीक्षित की रक्षा की। 

13 प्रहवि-अत्यंतिक विनय
तेरहवीं कला का नाम प्रहवि है। इसका अर्थ विनय होता है। भगवान कृष्ण संपूर्ण जगत के स्वामी हैं। संपूर्ण सृष्टि का संचलन इनके हाथों में है फिर भी इनमें कर्ता का अहंकार नहीं है। गरीब सुदामा को मित्र बनाकर छाती से लगा लेते हैं। महाभारत युद्घ में विजय का श्रेय पाण्डवों को दे देते हैं। सब विद्याओं के पारंगत होते हुए भी ज्ञान प्राप्ति का श्रेय गुरू को देते हैं। यह कृष्ण की विनयशीलता है।

14 सत्य-यर्थाथ
श्री कृष्ण कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखते और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जानते हैं शिशुपाल की माता ने कृष्ण से पूछा की शिशुपाल का वध क्या तुम्हारे हाथों होगी। कृष्ण नि:संकोच कह देते हैं यह विधि का विधान है और मुझे ऐसा करना पड़ेगा।

15 इसना -आधिपत्य
तात्पर्य-व्यक्ति में उस गुण का मौजूद होना जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है, लोगों को अपने प्रभाव का एहसास दिलाता है। कृष्ण ने अपने जीवन में कई बार इस का भी प्रयोग किया जिसका एक उदाहरण, मथुरा निवासियों को द्वारिका में बसने के लिए तैयार करना।

16 अनुग्रह-उपकार
बिना प्रत्युकार की भावना से लोगों का उपकार करना यह सोलवीं कला है। भगवान कृष्ण कभी भक्तों से कुछ पाने की उम्मीद नहीं रखते हैं लेकिन जो भी इनके पास इनका बनाकर आ जाता है उसकी हर मनोकामना पूरी करते हैं।


Sunday, August 23, 2020

श्री कृष्ण के तीन बालरूप और हिन्दू मंदिरों में उनका चित्रांकन

 हिन्दू मंदिरों में देवी देवताओं के शिल्पों को हम दो मुख्य विभागों में वर्गीकृत कर सकते हैं; वैदिक देवता और पौराणिक अवतारों की कथाओं के शिल्प। पौराणिक अवतारों के जीवन लीला के प्रसंगों के अनुसार इनमे काफी वैविध्य देखा जाता है। इन कथाओं में सबसे अधिक लीलाधारी अवतार निसंदेह ही श्रीकृष्ण का है इसलिए कृष्ण की प्रतिमाओं में विविधतासभर प्रकारांतर होता है। चलिए कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर आज बालकृष्ण के ऐसे ही तीन स्वरूपों को मंदिर कला के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।

वेणुगोपाल कृष्ण

वेणुगोपाल उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक भारत के सभी प्रदेशों के लोगों के पसंदीदा हैं। इस प्रतिमा में मेघवर्णी श्यामसुन्दर अपने प्रिय गोप-गोपियों से घिरे होते हैं। वृक्षों से आच्छादित पृष्ठभूमि में गायों तथा बछड़ों को दिखाया जाता है। दोनों हाथों में कलात्मक रूप से बांसुरी धारण किए कृष्ण के अधरों पे मंद मंद मुस्कराहट होती है तथा अधबीडे नेत्रों में प्रेम का भाव होता है। दोनों पैरों को नृत्य मुद्रा में मोडे हुए वेणुगोपाल अपने सखा गोप-गोपियों के साथ होने के कारण इन्हें “गण-गोपाल” भी कहा जाता है।


हलेबिडु के शिव मंदिर में स्थित इस वेणुगोपाल की प्रतिमा का बारीकी से निरिक्षण कीजिये, कलाकार ने किस खूबसूरती से आच्छादित पृष्ठभूमि में गोधन और गोप-गोपियों का चित्रण किया है और श्रीकृष्ण के चेहरे पर मुस्कान देखते ही बनती है। आभूषणों से सज्जित कृष्ण प्रतिमा की भाव भंगिमा दर्शनार्थी की दृष्टि को बंधे रखती है।

केरल के कुछ शिल्पों में वेणुगोपाल को शंख तथा चक्र के साथ चतुर्भुज भी दिखाया गया है। एक और रसप्रद बात यह है कि जब बहुभुज वेणुगोपाल के हाथ में बांसुरी के साथ साथ गन्ना और पुष्प भी हों तो उन्हें “मदन गोपाल” कहा जाता है।

कालिया मर्दक कृष्ण

कालियामर्दन का प्रसंग सभी को ज्ञात है इसलिए उसकी पुनरावृत्ति ना करते हुए सीधे इसके प्रतिमा विज्ञान का विवरण देखते हैं। कालिय मर्दक बालकृष्ण को सौम्य मुद्रा में कालिय नाग के मस्तक पर नृत्य करते हुए दिखाया जाता है। बाएं हाथ में सर्प की पुच्छ पकडे कृष्ण का दूसरा हस्त अभय मुद्रा में होता है। यह एक तरह से अनिष्टों से अभय का प्रतीकात्मक चित्रण है। यदि इस प्रतिमा से कालिय नाग निकाल दें तो फिर यह प्रतिमा को “नवनीत नृत्य कृष्ण” प्रतिमा कहा जाएगा। इस प्रतिमा को ज्यादा आभूषणों से नहीं सजाया जाता। तंजौर से एल्लोरा तक के मंदिरों में इस प्रतिमा को उकेरा गया है और सभी प्रतिमाओं की समरूपता ध्यानाकर्षक है।


गोवर्धनधर कृष्ण

व्रजवासियों की रक्षा हेतु अपनी कनिष्ठा अंगुली पर गोवर्धन पर्वत धारण किए कृष्ण की विशेषता यह है कि इन प्रतिमाओं में कालिय मर्दक और वेणुगोपाल की भांति समरूपता नहीं होती। किसी स्थान पर कृष्ण दाएं हाथ से गोवर्धन उठाते हैं तो किसी मंदिर में बाएं हाथ से, इसका सबसे आश्चर्यजनक अवलोकन होयसला स्थापत्य में देखा गया है जहाँ के ही शैली की विभिन्न मूर्तियों में भी विषमताएं देखि गईं है। नुग्गेहल्ली के गोवर्धनधर कृष्ण हालेबिडु के गोवर्धनधर से एकदम अलग तरीके से बनाये गए हैं।


गोवर्धनधर कृष्ण की चर्चा पल्लव स्थापत्यकला के अप्रतिम उदहरण सम महाबलीपुरम के कृष्ण-मंडप गुफा का उल्लेख किए बिना अधूरी है। इस गुफा में ग्रेनाईट पत्थर से कृष्ण की गोवर्धन लीला को जीवंत स्वरुप देने का प्रयास किया गया है। यहां निर्भीक श्रीकृष्ण के साथ भयभीत व्रजवासियों और गायों का अद्भुत चित्रण किया गया है लेकिन इस गुफा को विशेष बनाती है इस दृश्य को जिवंत बनाने के लिए की गई कारीगरी। इसे ध्यान से देखने पर ऐसा महसूस होता है कि भित्तिचित्र को सजीव रूप देनेके लिए गुफा के ऊपरी भाग में जलस्त्रोत का निर्माण किया गया होगा और गुफा की छत में बने छेदों के माध्यम से गुफा में जलवर्षा कर के बारिश का प्रभाव उत्पन्न किया जाता होगा।

सहस्त्र वर्षों में महाबलीपुरम को भूला दिया गया, जलस्त्रोत नष्टप्राय हो गए और शिल्पों की आभा निस्तेज हो गई। जरा सोचिए, दीप प्राकट्य के समय संध्या-आरती के समय दीप प्राकट्य किया गया है और इन लघु तेजपुंजों के प्रकाश से गोवर्धन शरण व्रजवासियों के ऊपर से झरते पानी का अनुपम दृश्य और आपके समक्ष मंद हास्य करते गोवर्धनधारी की मनोरम्य प्रतिमा!

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...