भगवान गणेश ने कहा कि वह ब्रम्हचर्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं और विवाह के बारे में अभी बिलकुल नहीं सोच सकते | विवाह करने से उनके जीवन में ध्यान और तप में कमी आ सकती है | इस तरह सीधे सीधे शब्दों में गणेश ने तुलसी के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया |
धर्मात्मज पुत्री तुलसी यह सहन नही कर सकी और उन्होंने क्रोध में आकर उमापुत्र गजानंद को श्राप दे दिया की उनकी शादी तो जरुर होगी और वो भी उनकी इच्छा के विरुद्ध ।
ऐसे वचन सुनकर गणेशजी भी क्रोधित हो उठे।गणेश जी ने उन्हें श्राप दे दिया कि तेरा विवाह एक असुर शंखचूड़ जलंधर से होगा।
राक्षस से विवाह का श्राप सुनकर तुलसी विलाप करने लगी और गणेश जी से माफी मागी। दया के सागर भगवान गणेश ने उन्हें माफ कर दिया पर कहा कि मैं श्राप वापस तो नहीं ले सकता पर मैं तुम्हें एक वरदान देता हूँ।
इसके बाद गणेश जी ने कहा कि वह भगवान विष्णु और कृष्ण प्रिय रहेगी और कलयुग में भी जीवन और मोक्ष देने का काम करेंगी लेकिन मेरी पूजा में तुम्हारा भोग कभी नहीं लगेगा। इसके बाद तुलसी जी का भोग कभी भी गणेश जी को नहीं लगाया जाता है।
गणेश जी ने तुलसी को कहा कि दैत्य के साथ विवाह होने के बाद भी तुम विष्णु की प्रिय रहोगी और एक पवित्र पौधे के रूप में पूजी जाओगी। तुम्हारे पत्ते विष्णु के पूजन को पूर्ण करेंगे। चरणामृत में तुम हमेशा साथ रहोगी । मरने वाला यदि अंतिम समय में तुम्हारे पत्ते मुंह में डाल लेगा तो उसे वैकुण्ठ प्राप्त होगा।
आगे गणेश जी का दिया श्राप पूरा होने लगा। शंखचूड़ नाम के राक्षस की शादी व़ृंदा नाम की युवती से हुई जो असल में तुलसी थीं। वह पूरे संसार पर राज करना चाहता था।
वृंदा के पति का देवताओं ने कई बार वध करने का प्रयास किया लेकिन तुलसी के सतीत्व की वजह से ऐसा संभव नहीं हो पा रहा था।
इस समस्या से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान विष्णु के पास पहुंचे।उन्होंने समस्या का हल मांगा।भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रुप धारण किया और वृंदा के पास पहुंचे।
अपने पति को देख उसने विष्णु के पैर छू लिए। वृंदा का सतीत्व भंग हो गया। देवताओं ने शंखचूड़ का वध कर दिया। अपने आपको छला मानकर उसने विष्णु जी को पत्थर बनजाने का श्राप दिया। लक्ष्मी मां को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने तुलसी को श्राप वापस लेने को कहा।
तुलसी ने अपना श्राप वापस ले लिया और अपने पति के साथ सति हो गई। भगवान विष्णु को पश्चाताप हुआ। उन्होंने खुद को पहले जैसे एक पत्थर के रुप में बनाया और शालिग्राम नाम दिया।साथ ही कहा कि आज से उन्हें जब भी भोग लगेगा तो वह तुलसी के साथ ही लगेगा।