Sunday, July 5, 2020

भूरिश्रवा

भूरिश्रवा महाभारत के सबसे प्रसिद्ध योद्धाओं में से एक थे। इन्होने महाभारत युद्ध में कौरवों के पक्ष से युद्ध किया था। कौरव सेना के प्रधान सेनापति भीष्म ने अपनी ११ अक्षौहिणी सेना के लिए जिन ११ सेनापतियों का चयन किया था, भूरिश्रवा उन सेनापतियों में से एक थे। भूरिश्रवा का वध युद्ध के १४वें दिन सात्यिकी ने किया था। वास्तव में भूरिश्रवा कुरुवंशी ही थे और महाभारत युद्ध में उनके साथ उनके पिता और दादा ने भी युद्ध किया था।

चक्रवर्ती सम्राट ययाति से समस्त राजवश चले। उनके सबसे बड़े पुत्र यदु से यदुवंश चला जिसमे आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। इसी कुल में एक योद्धा हुए शिनि, जो श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के मित्र थे। शिनि के पुत्र हुए महारथी सात्यिकी जो श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र थे। शिनि ने वसुदेव के साथ कई युद्धों में भाग लिया था और उनके प्राणों की रक्षा की थी। दोनों तत्कालीन राजा उग्रसेन और उसके पश्चात कंस के विश्वासपात्र थे।

दूसरी ओर ययाति के सबसे छोटे पुत्र पुरु से पुरुवंश चला जिसमे दुष्यंत, भरत, कुरु, हस्ती इत्यादि महान सम्राट हुए। इसी वंश में एक प्रतापी सम्राट हुए प्रतीप। उनके तीन पुत्र थे - देवापि, बाह्लीक एवं शांतनु। देवापि ने संन्यास ग्रहण कर लिया और बाह्लीक हस्तिनापुर की सीमा बढ़ाने और उसकी सुरक्षा का दायित्व उठा कर युद्ध में रत हो गए। इसी कारण सिंहासन प्रतीप के सबसे छोटे बेटे शांतनु को प्राप्त हुआ। शांतनु ने गंगा से विवाह किया जिनसे उन्हें ८ संतानें हुईं। ७ शीघ्र मुक्त हो गए और ८वें पुत्र गंगापुत्र देवव्रत हुए जो भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।

प्रतीप के पुत्र बाह्लीक के पुत्र हुए सोमदत्त जो अपने पिता की भांति ही श्रेष्ठ योद्धा थे। सोमदत्त भीष्म के चचेरे भाई थे। इन्ही सोमदत्त के पुत्र हुए भूरिश्रवा जो भीष्म के भतीजे थे। इस प्रकार भूरिश्रवा कुरुवंशी ही थे और उन्होंने युद्ध में अपने पिता सोमदत्त और दादा बाह्लीक के साथ कौरव पक्ष का साथ दिया। इस प्रकार एक ही वंश की तीन पीढ़ियों ने महाभारत युद्ध में हिस्सा लिया।

अब थोड़ा पीछे चलते हैं। कंस की बहन थी देवकी जो भगवान श्रीकृष्ण की माता थी। यादवों ने देवकी का स्वयंवर बड़ी धूम-धाम से रचाया जिसमे वसुदेव, शिनि और अन्य यादव वीरों ने भाग लिया। किन्तु देवकी के रूप और गुण की चर्चा इतनी थी कि कुरु राजकुमार बाह्लीक पुत्र सोमदत्त भी उस स्वयंवर में भाग लेने आये। किन्तु यादव नहीं चाहते थे कि यादवों की कन्या कुरुओं से ब्याही जाये। इसी कारण वहाँ देवकी को प्राप्त करने हेतु सभी योद्धा आपस में उलझ पड़े।

शिनि ये जानते थे कि वसुदेव देवकी से प्रेम करते हैं इसीलिए उन्होंने वसुदेव के लिए देवकी का हरण कर लिया और उसे अपने रथ पर लेकर वसुदेव के साथ स्वयंवर स्थल से लेकर भागे। जब सोमदत्त ने शिनि को कन्या का हरण करते हुए देखा तो वे उसका प्रतिकार करने हेतु उनके पीछे लपके। उन्होंने बीच राह में शिनि को युद्ध के लिए ललकारा। तब शिनि ने देवकी को वसुदेव के साथ भेज दिया और वे सोमदत्त को रोकने के लिए वही रुक गए।

दोनों में घोर युद्ध प्रारम्भ हुआ जो बहुत देर तक चला। किन्तु अंततः शिनि ने सोमदत्त को पराजित कर दिया। वे सोमदत्त का सर काटना चाहते थे किन्तु अंत समय में उन्होंने दया में आकर सोमदत्त को जीवनदान दिया। सोमदत्त लज्जित होकर हस्तिनापुर लौट आये। जब भीष्म ने ये सुना तो उन्होंने यादवों पर आक्रमण करने की ठानी किन्तु फिर सोमदत्त के पिता और उनके चाचा बाह्लीक ने उन्हें ये कहकर रोक लिया कि कन्या तो वसुदेव से ब्याही जा चुकी है इसी कारण उसके लिए इतना व्यापक युद्ध नहीं छेड़ना चाहिए। किन्तु तब तक यादवों और कुरुओं के बीच वैमनस्व बढ़ गया।

सोमदत्त अपने अपमान से इतने दुखी हुए कि उन्होंने शिव की तपस्या आरम्भ कर दी। उधर वसुदेव के विवाह के पश्चात शिनि ने भी महादेव की तपस्या आरम्भ की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उसे दर्शन दिए तो शिनि ने उनसे एक अजेय पुत्र माँगा। तब महादेव ने उसे ऐसे पौत्र का वरदान दिया जो अजेय होगा और जिसपर प्रभु (श्रीकृष्ण) की कृपा रहेगी। उन्ही के कृपास्वरूप शिनि के घर उनके पुत्र सत्यक को एक पुत्र हुआ जिसका नाम सात्यिकी रखा गया। वो एक श्रेष्ठ यादव वीर और श्रीकृष्ण के परम मित्र हुए।

उसी दिन महादेव सोमदत्त की तपस्या से भी प्रसन्न हुए और उन्हें भी दर्शन दिए। तब सोमदत्त ने वरदान में एक ऐसे पुत्र की कामना की जो शिनि के पुत्र का वध कर सके। तब महादेव बोले कि उन्होंने पहले ही शिनि को अजेय पुत्र का वरदान दे दिया है इसी कारण वो उसे ऐसे पुत्र का वरदान नहीं दे सकते। किन्तु सोमदत्त की तपस्या विफल ना जाये इसीलिए महादेव ने उसे एक ऐसे पुत्र का वरदान दिया जो शिनि के पुत्र को युद्ध में मूर्छित कर सकेगा और अगर उस समय उसे किसी की सहायता ना मिले तो वो उसका वध कर सकेगा। यही नहीं, वो युद्ध में शिनि के उस पुत्र के सभी पुत्रों का वध करेगा। उसी वरदान स्वरुप सोमदत्त के पुत्र के रूप में भूरिश्रवा ने जन्म लिया।

महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पहले पितामह भीष्म प्रधान सेनापति बनाये गए। उसके बाद भीष्म ने अपनी ११ अक्षौहिणी सेना के लिए ११ सेनापति नियुक्त किये जिनमे से भूरिश्रवा को १ अक्षौहिणी सेना का सेनापति बनाया गया। महाभारत में वर्णित है कि भूरिश्रवा ने बड़ी कुशलता से अपनी सेना का नेतृत्व किया और भीष्म को युद्ध जीतने में सहायता की। कर्ण के युद्ध में भाग लेने से पहले भूरिश्रवा ने ही पांचालों को रोके रखा।

युद्ध के पांचवें दिन सात्यिकी के १० पुत्र भूरिश्रवा से प्रतिशोध लेने को उससे जा भिड़े। उन १० योद्धाओं ने एक साथ भूरिश्रवा पर आक्रमण कर दिया किन्तु वो बिलकुल भी विचलित नहीं हुए। उनकी युद्धकला बहुत उत्कृष्ट थी और इसी कारण उन्होंने ना केवल उन सभी के प्रहार रोके बल्कि केवल आधे प्रहार के युद्ध में ही उन्होंने सात्यिकी के सभी १० पुत्रों का वध कर दिया।

जब सात्यिकी को अपने पुत्रों के वीरगति को प्राप्त होने का समाचार मिला तो उन्हें भूरिश्रवा पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने ये प्रतिज्ञा की कि चाहे जैसे भी हो किन्तु वो भूरिश्रवा का वध इस युद्ध में अवश्य कर देंगे। इसके बाद भी आने वाले दिनों में सात्यिकी और भूरिश्रवा के बीच युद्ध हुआ किन्तु कोई निर्णय नहीं हो पाया। दोनों के बीच हुए कई युद्धों में दोनों ने एक दूसरे को पराजित किया किन्तु उन्हें एक दूसरे का वध करने का समय नहीं मिला।

उधर युद्ध के १०वें दिन पितामह भीष्म शिखंडी और अर्जुन के छल के कारण धराशायी हो गए। उनके पतन के बाद दोनों पक्षों ने युद्ध के नियमों को ताक पर रख दिया। जो अधर्म पितामह भीष्म के साथ आरम्भ हुआ था उसकी भेंट कई अन्य योद्धा भी चढ़े। युद्ध के १३वें दिन जब अर्जुन सप्तशंशकों से युद्ध में व्यस्त थे तब उनके पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह में फसा कर ७ महारथियों द्वारा मार डाला गया।

जब अर्जुन को इस बात का पता चला तब उसने अगले दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा कर ली। अगले दिन प्रातः अर्जुन और श्रीकृष्ण सबसे पहले जयद्रथ को खोजते हुए कौरव सेना का संहार करते हुए आगे बढ़ने लगे। उनकी सहायता को भीम आगे बढे और कौरव सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। तब कौरव सेना के सेनापति आचार्य द्रोण ने भूरिश्रवा को जयद्रथ की रक्षा करने को कहा और अर्जुन को रोकने स्वयं आगे बढे।

तब सात्यिकी आगे ढ़ कर भूरिश्रवा से भिड़ गए। दोनों में द्वेष तो था ही, अब भयानक युद्ध छिड़ गया। बहुत देर युद्ध होने के पश्चात अचानक भूरिश्रवा ने अपनी गदा से सात्यिकी के सर पर प्रहार किया। उससे सात्यिकी मूर्छित होकर वही रथ पर गिर पड़े। उसे अपने सामने इस प्रकार पड़े देख भूरिश्रवा उसके वध को आगे बढे। उन्हें ये ज्ञात था कि महादेव के वरदान के अनुसार अब वो उसका वध कर सकते थे।

तभी अचानक अर्जुन और श्रीकृष्ण वहाँ आये और देखा कि सात्यिकी के प्राण संकट में हैं। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वो सात्यिकी की सहायता करे। तब अर्जुन ने कहा - "हे माधव! ये तो युद्ध के नियमों के विरुद्ध है। जब दो योद्धा युद्ध कर रहे हों तो तीसरे को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ये अन्याय है।" तब श्रीकृष्ण ने कहा - "पार्थ! इस युद्ध में हम न्याय-अन्याय से बहुत आगे बढ़ आये हैं। कौरवों ने कब धर्म के बारे में सोचा है? और ये भी तो सोचो कि सात्यिकी तुम्हारा मित्र और शिष्य है और इस नाते उसकी रक्षा करना तुम्हारा धर्म है। अतः सात्यिकी की सहायता करो।"

उधर भूरिश्रवा सात्यिकी का वध करने ही वाला था कि अर्जुन ने अपने बाण से उसकी भुजा काट दी। जब भूरिश्रवा ने ये देखा तो कृष्ण और अर्जुन को धिक्कारते हुए बोला - "पुत्र अर्जुन! मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी।कोई कुरुवंशी कभी ऐसी कायरता नहीं कर सकता। जब मुझमे और सात्यिकी में द्वन्द चल रहा था तब तुमने मुझे चेतावनी दिए बिना पीछे से मुझपर प्रहार किया। तुम किस प्रकार अपने आपको वीर कह सकते हो?"

तब श्रीकृष्ण ने कहा - "हे वीरश्रेष्ठ! सात्यिकी अर्जुन का शिष्य था और अर्जुन उसकी रक्षा को वचनबद्ध था। और आपने ही कौन से धर्म का पालन किया? आप उसका वध उस स्थिति में करना चाह रहे थे जब वो मूर्छित है। आप भी अधर्म ही कर रहे थे और उसे रोकना अर्जुन का धर्म था। इस प्रकार मूर्छित योद्धा का वध करने के प्रयास करने के कारण आपको लज्जा आनी चाहिए।

श्रीकृष्ण द्वारा ऐसी बातें सुनकर भूरिश्रवा उस अधर्म से दुखी और क्रोधित होकर वहीँ रणभूमि पर अनशन पर बैठ गए। उसी समय सात्यिकी की मूर्छा टूटी। अपने सामने भूरिश्रवा को इस प्रकार बैठा देख कर उसे धर्म-अधर्म का ज्ञान ना रहा। वो नंगी तलवार लेकर समाधि में बैठे भूरिश्रवा की ओर बढ़ा। ये देख कर दोनों ओर की सेना हाहाकार कर उठी। अर्जुन और श्रीकृष्ण ने उसे ऐसा करने से मना किया किन्तु उसने तत्काल अपनी तलवार से निहत्थे भूरिश्रवा का सर काट डाला। इस प्रकार छल द्वारा एक और महान योद्धा का वध हुआ।

युद्ध के ३६ वर्ष के बाद प्रभास तीर्थ पर कृतवर्मा ने इस बात का उल्लेख करते हुए सात्यिकी को धिक्कारा कि उसने निहत्थे भूरिश्रवा का वध किया। इससे क्रोधित होकर सात्यिकी ने असावधान कृतवर्मा का भी वध कर डाला। उसी से यादव आपस में लड़ मरे और यादव वंश समाप्त हो गया।

विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध


ये युद्ध भगवान शंकर और श्रीकृष्ण के बीच हुआ था जब श्रीकृष्ण ने महादेव के शिवज्वर के विरुद्ध विष्णुज्वर चला दिया था। इसे ही विश्व का पहला जैविक युद्ध माना जाता है।

दानवीर दैत्यराज बलि के सौ प्रतापी पुत्र थे, उनमें सबसे बड़ा बाणासुर था। बाणासुर ने भगवान शंकर की बड़ी कठिन तपस्या की। शंकर जी ने उसके तप से प्रसन्न होकर उसे सहस्त्र बाहु तथा अपार बल दे दिया। उसके सहस्त्र बाहु और अपार बल के भय से कोई भी उससे युद्ध नहीं करता था। इसी कारण से बाणासुर अति अहंकारी हो गया। बहुत काल व्यतीत हो जाने के पश्चात् भी जब उससे किसी ने युद्ध नहीं किया तो वह एक दिन शंकर भगवान के पास आकर बोला, "हे चराचर जगत के ईश्वर! मुझे युद्ध करने की प्रबल इच्छा हो रही है किन्तु कोई भी मुझसे युद्ध नहीं करता। अतः कृपा करके आप ही मुझसे युद्ध करिये।"

उसकी अहंकारपूर्ण बात को सुन कर भगवान शंकर को क्रोध आया किन्तु बाणासुर उनका परमभक्त था इसलिये अपने क्रोध का शमन कर उन्होंने कहा, "रे मूर्ख! तुझसे युद्ध करके तेरे अहंकार को चूर-चूर करने वाला उत्पन्न हो चुका है। जब तेरे महल की ध्वजा गिर जावे तभी समझ लेना कि तेरा शत्रु आ चुका है।" ये सुनकर बाणासुर निराश होकर कैलाश से चला गया।

बाणासुर की उषा नाम की एक कन्या थी। एक बार उषा ने स्वप्न में श्रीकृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को देखा और उसपर मोहित हो गई। उसने अपने स्वप्न की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताया। चित्रलेखा ने अपने योगबल से पहले प्रद्युम्न का चित्र बनाया और उषा को दिखा कर पूछा कि "क्या इसी को तुमने स्वप्न में देखा था"? तब उषा बोली कि इसकी सूरत तो उससे मिलती है किन्तु ये वो नहीं है।" तब चित्रलेखा ने श्रीकृष्ण का चित्र बनाया। अनिरुद्ध श्रीकृष्ण का प्रतिरूप ही था। श्रीकृष्ण की तस्वीर देख कर उषा ने कहा - "हाँ ये वही है किन्तु पता नहीं क्यों इसे देख कर मेरे मन में पितृ तुल्य भाव आ रहे हैं।"

ये सुनकर चित्रलेखा समझ गयी कि उषा ने स्वप्न में अनिरुद्ध को देखा है। तब उसने अनिरुद्ध का चित्र बनाया और उषा को दिखाया। उसे देखते ही उषाने ने लज्जा से अपना सर झुका लिया और कहा - "हाँ! इसी को मैंने स्वप्न में देखा था। मैं इससे प्रेम करने लगी हूँ और अब मैं इनके बिना नहीं रह सकती।" अपनी सखी को कामवेग से ग्रसित देख चित्रलेखा द्वारका पहुँची और सोते हुये अनिरुद्ध को पलंग सहित उषा के महल में पहुँचा दिया। नींद खुलने पर अनिरुद्ध ने स्वयं को एक नये स्थान पर पाया और देखा कि उसके पास एक अनिंद्य सुन्दरी बैठी हुई है। अनिरुद्ध के पूछने पर उषा ने बताया कि वह बाणासुर की पुत्री है और अनिरुद्ध को पति रूप में पाने की कामना रखती है। अनिरुद्ध भी उषा पर मोहित हो गये और वहीं उसके साथ महल में ही रहने लगे।

कुछ समय पश्चात प्रहरियों को सन्देह हो गया कि उषा के महल में अवश्य कोई बाहरी मनुष्य आ पहुँचा है। उन्होंने जाकर बाणासुर से अपने सन्देह के विषय में बताया। उसी समय बाणासुर ने अपने महल की ध्वजा को गिरी हुई देखा। उसे निश्चय हो गया कि कोई मेरा शत्रु ही उषा के महल में प्रवेश कर गया है। वह अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर उषा के महल में पहुँचा। उसने देखा कि उसकी पुत्री उषा के समीप पीताम्बर वस्त्र पहने बड़े बड़े नेत्रों वाला एक साँवला सलोना पुरुष बैठा हुआ है। वाणासुर ने क्रोधित हो कर अनिरुद्ध को युद्ध के लिये ललकारा। उसकी ललकार सुनकर अनिरुद्ध भी युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गये और उन्होंने लोहे के एक भयंकर मुद्गर को उठा कर उसी के द्वारा बाणासुर के समस्त अंगरक्षकों को मार डाला। वाणासुर और अनिरुद्ध में घोर युद्ध होने लगा। बाणासुर अपार बल का स्वामी था और शिव का पुत्र माना जाता था। अंततः उसने युद्ध में अनिरुद्ध को पराजित कर दिया और बंदी बना लिया।

इधर द्वारिका पुरी में अनिरुद्ध की खोज होने लगी और उनके न मिलने पर वहाँ पर शोक छा गया। तब देवर्षि नारद ने वहाँ पहुँच कर अनिरुद्ध का सारा वृत्तांत कहा। इस पर श्रीकृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न, सात्यिकी, गद, साम्ब आदि सभी वीर चतुरंगिणी सेना के साथ लेकर बाणासुर के नगर शोणितपुर पहुँचे। उन्होंने आक्रमण करके वहाँ के उद्यान, परकोटे, बुर्ज आदि को नष्ट कर दिया। श्रीकृष्ण ने एक बाण से बाणासुर के महल की ध्वजा गिरा दी। आक्रमण का समाचार सुन बाणासुर भी अपनी सेना को साथ लेकर आ गया जिसका नेतृत्व उसका सेनापति कुम्भाण्ड कर रहा था।

श्री बलराम जी कुम्भाण्ड तथा कूपकर्ण राक्षसों से जा भिड़े, प्रद्युम्न एक साथ कई योद्धाओं से भीड़ गए और श्रीकृष्ण बाणासुर के सामने आ डटे। घनघोर संग्राम होने लगा। चहुँओर बाणों की बौछार हो रही थी। बलराम ने कुम्भाण्ड और कूपकर्ण को मार डाला। बाणासुर ने जब अपने महल की ध्वजा को कटा देखा तो उसे महादेव के कथन का ध्यान हो आया। उसने अपनी पूरी शक्ति से श्रीकृष्ण पर हमला किया। दोनों महान वीर थे और भिन्न-भिन्न दिव्यास्त्रों से एक दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। बाणासुर से तो स्वयं रावण जैसा महारथी भी बच कर रहता था। उसपर भी बाणासुर के बल की एक सीमा थी किन्तु श्रीकृष्ण के बल की क्या सीमा? जल्द ही बाणासुर को ये पता चल गया कि वो वासुदेव को परास्त नहीं कर सकता।

उधर कृष्ण लगातार बाणासुर के योद्धाओं का अंत कर रहे थे। अब बाणासुर को लगा कि अगर युद्ध ऐसे ही चलता रहा तो उसका विनाश निश्चित है। तब उसे अपने आराध्य भगवान शंकर की याद आयी जिन्होंने उसे वरदान दिया था कि वे उसकी हर आपदा से रक्षा करेंगे। तब बाणासुर ने महादेव का स्मरण किया। बाणासुर की पुकार सुनकर भगवान शिव ने कार्तिकेय के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित अन्य शिवगणों को बाणासुर की सहायता के लिए भेज दिया। कार्तिकेय के नेतृत्व में शिवगणों ने श्रीकृष्ण की सेना पर चारो ओर से आक्रमण कर दिया। ऐसा भीषण आक्रमण देख कर श्रीकृष्ण की सेना पलायन करने लगी।

अपनी सेना का मनोबल टूटता देख कर श्रीकृष्ण ने महादेव द्वारा प्रदान किया गया सुदर्शन चक्र का आह्वान किया। १००० आरों वाला वो महान दिव्यास्त्र भयंकर प्रलयाग्नि निकलता हुआ शिवगणों को तप्त करने लगा। श्रीकृष्ण के के समक्ष शिवगण टिक नहीं पाए किन्तु शिवपुत्र कार्तिकेय इससे प्रभावित ना होकर युद्ध करते रहे। तब श्रीकृष्ण के साथ बलराम ने भी अपने दिव्य हल से कार्तिकेय पर धावा बोला। सुदर्शन और हल से कार्तिकेय का अहित और शिवगणों की प्राणहानि तो नहीं हुई किन्तु उसके समक्ष ही बाणासुर की सेना का नाश होता रहा। कृष्ण ने अपने धनुष "श्राङ्ग" से अनेकानेक महारथियों का वध कर दिया। अब कार्तिकेय को लगा कि वो इस प्रकार बाणासुर को नहीं बचा पाएंगे इसीलिए उन्होंने शिवगणों के साथ अपने पिता का आह्वान किया।

अपने पुत्र और शिवगणों की पुकार सुनकर और अपने भक्त की रक्षा हेतु अब स्वयं भगवान महारुद्र रणभूमि में आये। भगवान शंकर को वहाँ आया देख कर श्रीकृष्ण ने बलराम सहित अपने शस्त्रों को त्याग कर उन्हें प्रणाम किया और उनकी अभ्यर्थना की। भगवान शंकर ने श्रीकृष्ण को आशीर्वाद दिया और मधुर स्वर में कहा - "हे वासुदेव! आप जिस बाणासुर का वध करने को उद्यत हैं वो मेरा भक्त है और कार्तिकेय के सामान ही मैंने मेरे पुत्र समान है। मैंने उसकी रक्षा का वचन उसे दिया है इसीलिए आप उसके वध का विचार त्याग कर वापस चले जाएँ।"

तब श्रीकृष्ण ने करबद्ध होकर कहा - "हे महेश्वर! जिस प्रकार बाणासुर आपका भक्त है उसी प्रकार मैं भी तो आपका भक्त ही हूँ। मेरा बल और शक्ति आपके द्वारा ही प्रदत्त है। ये सुदर्शन, जो शत्रुओं का नाश कर रहा है, स्वयं आपके तीसरे नेत्र से उत्पन्न हुआ है। इसे आपने ही भगवान विष्णु को असुरों के नाश के लिए दिया था। मैं कौन हूँ और ये चक्र मुझे कैसे प्राप्त हुआ, ये रहस्य तो आप भली-भांति जानते हैं। अब युद्ध से पीछे हट कर मैं स्वयं आपका अपमान नहीं कर सकता हूँ।" जब श्रीकृष्ण किसी तरह भी पीछे हटने को तैयार नहीं हुए तो विवश होकर भगवान शिव ने अपना त्रिशूल उठाया। कार्तिकेय और शिवगणों सहित बाणासुर और श्रीकृष्ण की समस्त सेना और सभी देवताओं सहित परमपिता ब्रह्मा भी इस महान युद्ध को देखने के लिए रुक गए।

महारूद्र के भीषण तेज से ही श्रीकृष्ण की सारी सेना भाग निकली। केवल श्रीकृष्ण ही उनके सामने टिके रहे। अब तो दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा। बाणासुर ने जब देखा की कृष्ण महादेव से लड़ने में व्यस्त हैं तो उसने श्रीकृष्ण की बांकी सेना पर आक्रमण किया। दूसरी ओर श्रीकृष्ण ने अपने समस्त दिव्यास्त्रों का प्रयोग महादेव पर किया पर उससे महाकाल का क्या बिगड़ता? उन दोनों के बीच का युद्ध इतना भयानक हो गया कि देवताओं को सृष्टि की चिंता होने लगी। श्रीकृष्ण ने भगवान विष्णु से प्राप्त अपना महान "श्राङ्ग" धनुष धारण किया और महादेव ने अपना महान धनुष "पिनाक" उठाया। इससे दोनों में ठीक उसी प्रकार युद्ध होने लगा जैसे कालांतर में परमपिता ब्रह्मा की मध्यस्थता में भगवान शिव और भगवान विष्णु के बीच हुआ था। दोनों का युद्ध समय के साथ भीषण होता जा रहा था। अंत में भगवान शिव के त्रिशूल और वासुदेव के सुदर्शन के बीच द्वन्द हुआ किन्तु दोनों सामान शक्ति वाले ही सिद्ध हुए।

श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के परमावतार माने जाते हैं जो उनकी सभी १६ कलाओं के साथ अवतरित हुए थे। इसी कारण उन्हें उन सभी महास्त्रों का स्वतः ही ज्ञान था जो ज्ञान नारायण को था। हरिवंश पुराण में ये वर्णन है कि उन्होंने युद्ध को समाप्त करने के लिए नारायण का सर्वाधिक शक्तिशाली अस्त्र "विष्णुज्वर" का संधान किया। ये महास्त्र अत्यंत ठण्ड उत्पन्न करता है जिससे समस्त प्राणियों का नाश हो जाता है। विष्णुज्वर भयानक नाद करता हुआ भगवान शिव की ओर बढ़ा। तब महादेव ने भी अपना एक महान अस्त्र "शिवज्वर" का संधान किया और उसे विष्णुज्वर के निवारण के लिए छोड़ा। विष्णुज्वर के उलट शिवज्वर भयानक ताप उत्पन्न करता है जिससे सृष्टि का नाश हो जाता है। इन दोनों महास्त्रों से अधिक शक्तिशाली त्रिलोक में कोई और दिव्यास्त्र नहीं था। दोनों महास्त्रों का ताप ऐसा था कि मनुष्य तो मनुष्य, स्वयं देवता भी मूर्छित हो गए।

अब परमपिता ब्रह्मा ने देखा कि अब उनकी सृष्टि का नाश निश्चित है। उन्हें इस युद्ध को रोकने के लिए युद्धक्षेत्र में आना पड़ा। उन्होंने दोनों के बीच मध्यस्थता करवाते हुए कहा - "हे कृष्ण! हे महादेव! आप दोनों क्यों सृष्टि के नाश को तत्पर है? आपको भली भांति ज्ञात है कि अगर ये दोनों महास्त्र आपस में टकराये तो त्रिभुवन का नाश संभव है। जब सृष्टि ही नहीं रहेगी तो आप रक्षा किसकी करेंगे? हे महादेव! आपने ही बाणासुर को उसके अभिमान नष्ट होने का श्राप दिया था। श्रीकृष्ण आपके ही श्राप के अनुमोदन के लिए बाणासुर से युद्ध कर रहे हैं। अतः आप अपना क्रोध शांत करें और इस युद्ध का अंत करें।"

परमपिता को इस प्रकार बोलते देख श्रीकृष्ण ने भी महादेव से करबद्ध हो कहा - "हे महाकाल! आपने स्वयं ही बाणासुर को कहा था की उसे मैं परस्त करूँगा किन्तु आपके रहते तो ये संभव नहीं है। बाणासुर आपका भक्त अवश्य है किन्तु आततायी है। फिर क्यों आप उसकी रक्षा कर रहे हैं? महाबली रावण भी तो आपका भक्त था किन्तु उसका वध करने के लिए आपने श्रीराम की सहायता ही की। मुझपर भी अपनी कृपादृष्टि रखें। सभी को ये पता है की आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता। इसीलिए हे प्रभु! अब आप ही अपने वचन की रक्षा करें।" श्रीकृष्ण की ये बात सुनकर महादेव उन्हें आर्शीवाद देकर युद्ध क्षेत्र से हट गए।

महादेव के जाने के बाद श्रीकृष्ण पुनः बाणासुर पर टूट पड़े। बाणासुर भी अति क्रोध में आकर उनपर टूट पड़ा और अपनी १००० भुजाओं में विभिन्न प्रकार के अस्त्र लेकर उनपर प्रहार करने लगा। अंत में श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र निकला और बाणासुर की भुजाएं कटनी प्रारंभ कर दी। एक-एक करके उन्होंने बाणासुर की ९९८ भुजाएँ काट दी। उन्होंने क्रोध में भरकर बाणासुर को मरने की ठान ली। बाणासुर के प्राणों का अंत निश्चित जान कर भगवान रूद्र एक बार फिर रणक्षेत्र में आ गए। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा कि वे बाणासुर की रक्षा का वचन दे चुके हैं इसी कारण उसे मरने नहीं दे सकते।

उन्होंने कृष्ण से कहा - "वासुदेव! बाणासुर को पर्याप्त दंड मिल चूका है और उसका अभिमान समाप्त हो गया है। अब उसकी केवल दो भुजाएँ ही शेष है इसी लिए अब उसे प्राणदान दें। अगर आप अब भी इसकी मृत्यु की कामना करते हों तो पुनः मुझसे युद्ध कीजिये।" भगवान शिव की आज्ञा मान कर श्रीकृष्ण ने बाणासुर को मरने का विचार त्याग दिया। उन्होंने महादेव से कहा - "हे भगवन! जो आपका भक्त हो उसे इस ब्रह्माण्ड में कोई नहीं मार सकता। किन्तु इसने अनिरुद्ध को बंदी बना रखा है जिसे लिए बिना मैं वापस नहीं लौट सकता।" ये सुनकर भगवान शंकर ने बाणासुर से अनिरुद्ध को मुक्त करने की आज्ञा दी। उनकी आज्ञा मानते हुए बाणासुर ने ना केवल अनिरुद्ध को मुक्त किया बल्कि अपनी पुत्री उषा का विवाह भी उससे कर दिया। फिर कुछ काल तक वही सुखपूर्वक रहने के पश्चात श्रीकृष्ण अनिरुद्ध और उषा के साथ द्वारिका लौट गए।

श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?

महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है जो भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होता है...